प्रेम की खेती
प्रेम की खेती
खेत में बीज डालकर फसल बोना बहुत आम बात है। बारिश की बूंदों से सिंचकर फसल तैयार होती है। वही फसल दुनिया की भूख को मिटाती है। जीने की राह बनती है।
भूख केवल पेट की नहीं होती है। पेट की भूख तो हर जीव मिटा ही लेता है। कुछ अलग करने की भूख ने ही मनुष्य को दूसरे जीवों से अलग बना दिया है।
दिल और दिमाग की जंग हमेशा जारी रहती है। जरूरी है कि दिल और दिमाग दोनों में सामंजस्य बनाया जाये। किसी को कम न रखा जाये।
पर ऐसा होता नहीं है। अनेकों दिल से मजबूर बालाएं दिमाग को सुनकर भी अनसुना कर देती हैं। फिर प्रेम में धोखा पाती हैं।
कभी कभी मनुष्य दिमाग के सामने इस तरह समर्पण कर देता है कि उसके लिये भावनाओं का कोई महत्व नहीं होता।
दिल के खेत में प्रेम के बीज डालकर की गयी खेती कई बार लहराती फसल बन जाती है। फिर वह फसल दूसरों को भी प्रेरित करती है। व्यक्तिगत प्रेम बढते बढते देश प्रेम और मानवता के प्रेम का रूप ले लेता है।
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" मैं तुमपर कैसे भरोसा करूं। प्रेम की बातें तो सभी कर जाते हैं। रूप के तो अनेकों आशिक होते हैं। पर वह प्रेम तो नहीं। प्रेम तो अमिट होता है। रूप के मिटने पर भी नहीं मिटता है।". संध्या ने सुबोध का प्रेम निवेदन ठुकरा दिया।
वैसे यह बुरा मानने की बात है। पर सुबोध ने बुरा नहीं माना। शायद यही प्रेम है। विश्वास जब तक न उपजे, तब तक प्रेम भी नहीं होता। प्रेम की प्रतीक्षा करनी होती है। खेत में बीज बो देने के बाद किसान भी बारिश होने का इंतजार करता है। उम्मीद करता है कि बारिश होते ही फसल लहराने लगेगी। कुछ ऐसी ही स्थिति एक प्रेमी की होती है। वह भी उम्मीद करता है कि उसकी खेती किसी न किसी दिन विश्वास के जल से सींचकर लहरायेगी।
प्रेम की मंजिल कितनों को मिलती है। ज्यादातर को तो प्रेम मिलता ही नहीं है। जैसे अकाल में सारी फसल सूख जाती हैं। वैसे ही जब भावनाओं की कद्र नहीं होती तो कितनों को प्रेम के नाम से ही नफरत होने लगती है।
वास्तव में जो टूट जाये, वह प्रेम होता ही नहीं है। प्रेम तो गंगा की अविरल धार होती है जो अपने लक्ष्य की तरफ बढती ही जाती है। हर प्रेम कहानी का एक अभीष्ट अंत होता है जो सुखांत और दुखांत की सीमाओं से परे होता है।
शायद सुबोध का प्रेम सच्चा नहीं था। भला और क्या बात हो सकती है। जब संध्या को किसी सहारे की आवश्यकता थी, सुबोध कहीं भी पास न था। सही बात है कि प्रेम पर जान देने का दाबा करना आसान है। पर प्रेम में साथ भी कोई नहीं देता है। साथ जो कि प्रेम का आरंभ है।
दुर्घटना के बाद संध्या ऐसी रूपसी न रही कि कोई उसके साथ जीने और मरने की कसमें खाये। वह तो दुर्घटना में अपनी आंखें भी खो चुकी थी। पर ईश्वर को कुछ और मंजूर था। जिस दुर्घटना में संध्या ने अपनी निगाहें और रूप खोया था, उसी दुर्घटना में किसी युवक ने अपने प्राण खोये थे। पता नहीं कैसे, मृत्यु से पूर्व वह अपने नैत्र दान कर गया। उन्हीं नैत्रों की मदद से संध्या फिर से दुनिया देख पायी।
जो हुआ अच्छा रहा। अब झूठे आशिकों से मुक्ति मिल गयी। संध्या का जीवन आगे बढ गया। अब उसकी शादी की बातें हो रही थीं। पर संबंध कहीं टिक न पाता। अब रूप उसकी शादी में रुकावट बन रहा था।
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" इस दीवानेपन से कुछ हल नहीं निकलेगा। ये तितलियाँ किसी से प्रेम नहीं करती हैं। वास्तव में प्रेम नाम की कोई चीज होती ही नहीं है। मनोरंजन के लिये प्रेम कहानियाँ बनायी जाती हैं। कुछ तुम्हारे जैसे भोले भाले युवक इनके जाल में फसते रहते हैं। झूठ को सच समझते रहते हैं। "
सच पूछो तो यह राहुल की यह धारणा उस समय तक थी, जब तक कि राहुल ने उस कन्या का फोटो नहीं देखा। वैसे सामाजिक मान्यता के अनुसार विवाह करना था। पर राहुल को प्रेम जैसी कोई बीमारी नहीं हो सकती थी। हमेशा अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहता आया राहुल सफलता की सीढियाँ चढता गया। अपने विद्यार्थी काल में भी वह अपने सहपाठियों से यही कहता। पर उसका खास मित्र समझता ही नहीं था। आज राहुल को अपने मित्र की बात सही लग रही थी।
" ये बातें तभी तक हैं जब तक कि प्रेम न हो जाये। प्रेम हो जाने पर मनुष्य हवा में उड़ता है। प्रेम के लिये जीता भी है और मरता भी प्रेम के लिये ही है। जानते हुए भी कोई भी कुर्बानी दे सकता है। प्रेम कहानियाँ झूठ नहीं होती हैं। प्रेम सृष्टि का शाश्वत सत्य है।"
आज राहुल को अपने मित्र की याद आ रही थी। वह सच ही कहता था। आज उसके सामने भी वही स्थिति है। वह भी प्रेम के लिये कुर्बानी दे सकता है। तभी तो मम्मी और पापा की इच्छा के विपरीत उसे यही लड़की पसंद है। रूप केवल चेहरे से नहीं होता है। और राहुल लड़की की आंखों पर फिदा हो गया।
संध्या विवाह के बाद राहुल के घर आ गयी। जल्द ही अपने गुणों से सास और ससुर की चहेती भी बन गयी। कभी रूप के कारण सास ससुर की पसंद न होने पर भी आज संध्या पूरे परिवार की पसंद बन गयी। परिवार में प्रेम की बहार आ गयी।
जीवन बहुत आगे बढ चुका था। संध्या को अब ध्यान ही न था कि कभी किसी सुबोध ने उससे प्रेम निवेदन किया था। वैसे भी झूठे आशिकों से वह हमेशा दूर ही रहती आयी थी।
पर एक दिन उसे फिर से सुबोध ध्यान आया। आखिर उसके पति के पुराने फोटो में उनके साथ वही तो है।
" कौन हैं यह आपके मित्र।" संध्या ने बिलकुल उसी तरह राहुल से कहा मानों उसे पहचाना ही न हो।
" एक सच्चा प्रेमी। जो प्रेम में अपनी जान भी दे गया। उसकी आंखें आज भी उसके प्रेम को दुनिया दिखा रही हैं। भले ही उस समय मैं उसकी बातों से सहमत न था। पर उसकी आंखें मुझे बहुत पसंद थीं। आज भी हैं। उसकी आंखें मुझे भी प्रेम की राह पर ले आयी। न प्रेम कहानियाँ झूठी हैं और न सच्चे प्रेमियों का प्यार झूठा है।
फिर संध्या की आंखों से आंसुओं की बारिश होने लगी। धीरे-धीरे बढकर बाढ आ गयी। बाढ जो फसल को बर्बाद करती है, जमीन को उपजाऊ भी बनाती है। नफरत की गंदगी को बहा ले जाती है। खेत को उपजाऊ बना जाती है।
अब संध्या के दिल का खेत बहुत उपजाऊ बन चुका है। सुबोध तो दुनिया में नहीं है पर सब जानकर भी उसे अपने घर की साम्राज्ञी बनाने बाले राहुल के प्रति प्रेम की फसल उस खेत में लहरा रही है। और सुबोध के लिये उसका प्रेम - सच कहूं तो बहुत आगे बढ चुका है। प्रेमिका और प्रेमी के प्रेम से बहुत आगे, भक्त और भगवान के मध्य का प्रेम। प्रेम जीवन देता है। और प्रेम में जीवन अर्पित करने वाले का स्थान भगवान से कैसे कम हो गए।

