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Diwa Shanker Saraswat

Romance Classics Inspirational

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Diwa Shanker Saraswat

Romance Classics Inspirational

प्रेम की अजीब कहानी

प्रेम की अजीब कहानी

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शहर के बीचों बीच शारदा पब्लिक स्कूल लोगों के मध्य उच्च गुणवत्ता की पढाई का मापदंड था। विद्यालय के मालिक दातादीन ने कभी शिक्षा का प्रसार प्रचार करने के लिये एक छोटा सा विद्यालय खोला था। उन्होंने और उनकी पत्नी शारदा ने बङी जतन से विद्यालय को चलाया था। परिणाम समाज में खूब सम्मान मिला। अब उनपर धन की भी कोई कमी नहीं थी। आज भी विद्यालय के प्रधानाचार्य का पद दातादीन जी ही देख रहे थे। उनकी पत्नी शारदा विद्यालय में वरिष्ठ अध्यापिका थीं।

पिछले एक साल से विद्यालय का नाम बहुत बढा। दोनों पति और पत्नी खुले तौर पर स्वीकार करते कि यह उनकी पुत्रवधू कम पर बेटी अधिक नंदनी की मेहनत का नतीजा है। आज के दौर की पढी लिखी नंदनी को ससुराल और मायके में कोई ज्यादा अंतर नहीं लगा। उसे भी पढाना पसंद था। तो ससुर जी के विद्यालय में वह भी पढाने लगी। घर के रिश्तो से अलग दातादीन जी अपनी पत्नी और पुत्रवधू दोनों को आवश्यक वेतन देते थे। उन्होंने इसे कहाॅ खर्च किया, इसपर कभी नहीं सोचते थे। यह बात अलग थी कि दातादीन जी की कमाई पर शारदा जी अपना हक जताती थीं। अब मजाक ही मजाक में नंदनी भी हक जताने लगी। यह सब वास्तव में विनोद के लिये होता था। दातादीन जी की संपति भी तो बेटों के लिये ही थी।

नंदनी ने विद्यालय में एक्स्ट्रा एक्टिविटी पर बहुत जोर दिया। बच्चों का चतुर्मुखी विकास हुआ। अक्सर विद्यालय में जनरल नोलेज, कहानी लेखन, चित्रकारिता, गायन आदि की प्रतियोगिताएं होतीं। नंदनी मनोयोग से प्रतियोगिताओं का आयोजन कराती। नंदनी खुद प्रतियोगिताओं का परिणाम घोषित करती। अपने ससुर और सास दोनों को दिखाती। आज तक कभी भी दातादीन जी व शारदा जी ने अपनी बहू के निर्णय को गलत नहीं कहा। पर प्रेम कहानियों के परिणाम में नंदनी ने एक कहानी को सांत्वना पुरस्कार की श्रेणी में रखा था। जो दोनों को बहुत पसंद आ रही थी। विद्यालय के होनहार छात्र सुवोध ने कहानी लिखी थी।

 पंद्रह, सोलह साल कोई आयु होती है। इस आयु में तो दुनिया समझने की भी समझ नहीं होती। इतनी कम आयु में सुधीर के पिता परसुराम जगती त्याग गये। सुधीर की माता तो दो साल पहले ही छोटे भाई को जन्म देते समय परलोक सिधार गयीं थी। यों तो लोगों के इस विषय में अलग अलग विचार थे। परसुराम ने अपनी घर बाली को सही तरह किसी डाक्टर को नहीं दिखाया। अस्पताल में इलाज होता तो जच्चा और बच्चा दोनों सुरक्षित होते। पर आदमी उतना ही सोचता है, जितनी उसकी औकात होती है। परसुराम की सोच अभी दाइयों से ऊपर नहीं गयी। परिणाम पत्नी का वियोग। पर अब पछताने से भला क्या होता है। सच तो यह भी है कि आदमी को बच्चे भी औकात देखकर पैदा करने चाहिये। पर इस विषय में अक्सर उल्टा ही होता है। जिनकी अच्छी स्थिति होती है, वह एक दो बच्चों से संतोष कर लेते हैं। पर जिनकी स्थिति ठीक नहीं होती, उन्हें संतान पैदा करने में कोई संतोष नहीं होता। कौन सा पढाने लिखाने में खर्च करना है। थोङी ही आयु पर बच्चे मजदूरी करने लगतै हैं। अखवार बांटने का , चाय की दुकान पर बर्तन मांजने का। तो भाई सही बात तो यह है कि गरीब के जितने बच्चे, उतनी ही कमाई। 

परसुराम इस विषय में थोड़ा दुर्भाग्यशाली था। यों तो उसके प्रयासों में कोई कमी नहीं थी। पर जब ईश्वर ही प्रतिकूल तो क्या हो सकता है। बङे लङके सुधीर के बाद ईश्वर ऐसा रूठे कि हर बार असफलता ही हाथ मिली। गरीबों के पास खिलाने को क्या। आखिर में कमजोरी में पत्नी भी चल बसी। पर इस बार एक छोटा बेटा दे गयी। 

परसुराम को जिंदगी में पहली बार लगा कि उसकी औरत भी कुछ काम करती थी। दो बच्चों की जिम्मेदारी उठाना कोई हसी खेल नहीं। जल्द उसे भी बीमारियों ने ऐसा घेरा कि फिर उठ न सका। 

इतनी कम आयु में सुधीर पर खुद की और छोटे भाई की जिम्मेदारी आ गयी। सुधीर उससे ज्यादा साहसी था जितना लोग समझते थे। कोई भी छोटा या बङा काम न था जो सुधीर ने अपने छोटे भाई के पालन के लिये न किया हो। खुद की पढाई छूट गयी पर सुधीर अपने भाई को पढाना चाहता था। पता नहीं, उसकी सोच ऐसी अलग क्यों थी। छोटे भाई को उसने कभी कोई कमी नहीं महसूस होने दी। 

"देख संगीता। कितनी बार बोला तुझे। मेरी राह मत रोका कर। तेरा मेरा कोई साथ नहीं। तू अपने लिये कोई और लङका देख।" 

संगीता सुधीर को बचपन से जानती थी। दोनों जवानी की चौखट पर खङे थे। इसे प्यार कहें या आकर्षण पर संगीता सुधीर की तरफ आकर्षित थी। पर सुधीर उसे कभी भाव नहीं देता। उसका प्रेम तो छोटा भाई था। उसे लगता कि कोई और उसकी जिंदगी में आ गया तो छोटे भाई से अलग कर देगा। यदि अपनी खुशियों को त्यागना ही प्रेम है तो सुधीर अपने भाई से प्रेम करता था। अपने भाई के लिये अपनी खुशियां छोङने को तैयार था। 

 एक रोज मोहल्ले में बहुत शोर हुआ। संगीता की माॅ उसपर जोर जोर से चिल्ला रही थी। "अरी कहमुही। बेबकूफ लङकी। बिना सोचे समझे क्या कर आयी। अब क्या होगा।" 

सुधीर कुछ अलग सोच रहा था। जैसा आप भी सोच रहे हैं। पर सच्चाई कुछ अलग थी। संगीता ने चुपचाप झूठ बोलकर अपनी नसबंदी करा ली थी। कारण बताया कि पहले से एक बेटा है। अब बेटे की जरूरत नहीं है। पर जैसे ही डाक्टर ने नसबंदी की, वह अनिष्ट की आशा से घबरा गया। इतने समय में कभी ऐसा हुआ भी नहीं कि कोई कुंवारी लङकी अपनी नसबंदी कराये। तो इतना ध्यान देने की जरूरत न थी। अलबत्ता कुछ लोगों ने दबी जबान इतना तो कह ही दिया कि संगीता ने यह कदम सुधीर के प्रेम में उठाया है। सुधीर को लगता है कि उसकी पत्नी अपने बच्चे के प्रेम में छोटे भाई को भूल जायेगी। तो अब यह बात भी खत्म। 

आखिर संगीता की इच्छा पूर्ण हुई। सुधीर ने उसे स्वीकार किया। छोटे को भाभी के रूप में माॅ मिली। पर घर में अभी खुशियाॅ इंतजार कर रही थीं। नजदीक शहर में फौज की नियुक्ति का शिविर लगा। सुधीर भी गांव के लङकों के साथ चला गया। भाग्य अच्छा था कि वह फौज में चयनित हो गया। 

ईश्वर खुशी के साथ साथ दुख भी देता है। अभी संगीता के विवाह को कुछ साल ही हुए कि सुधीर एक आतंकी मुठभेड़ में शहीद हो गया। प्रेम की अजीब कहानी कभी खत्म नहीं हुई। आज भी संगीता अपने देवर को अपना सगा बेटा मानकर उस पर अपना प्रेम लुटा रही है। सुधीर के सपनों को आगे बढा रही है। 

 नंदनी को सुवोध की कहानी तो बहुत अच्छी लगी। पर उसे लगा कि इसमें अतिश्योक्ति अधिक है। वास्तव में कभी भी ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी लङके ने अच्छी कहानी लिखी है तो सांत्वना पुरस्कार तो मिलना चाहिये। दातादीन जी व शारदा जी एक घटना को याद कर रहे थे जब एक फौजी की विधवा अपने देवर का दाखिला कराने विद्यालय आयी थी। किसी ने बोल दिया था कि कौन तुम्हारा खुद की औलाद है। किसी सस्ते स्कूल में दाखिल करा दो। बस फिर वह चंडी बन गयी थी। 

 "क्या कहा। यह मेरा खुद का बेटा नहीं है। यह मेरा बेटा है। अपने पति की इच्छा को आखिरी सांस तक पूरा करूंगी।" 

 बच्चे प्रतियोगिता का परिणाम जानने को बहुत उत्सुक थे। नंदनी ने परिणाम सुनाया। प्रथम स्थान पर सुवोध की कहानी 'प्रेम की अजीब कहानी' रही। सुवोध पुरस्कार लेने पहुंचा तो नंदनी ने तुरंत उसे गले लगा लिया। कुछ घंटे पहले की बात मन में आने लगी। 

"बेटी नंदनी। तुम्हें अभी भी लगता है कि सुवोध की कहानी को सांत्वना पुरस्कार मिलना चाहिये।" 

"आफकार्स पिता जी। वैसे कहानी सबसे अच्छी है। पर हमारा उद्देश्य तो यह भी है कि कहानी यथार्थ के करीब हो।" 

दातादीन जी ने स्कूल के रिकोर्ड में से एक छात्र का व्यक्तिगत रिकोर्ड नंदनी के सामने रखा। जो इस तरह था 

छात्र का नाम - सुवोध कुमार 

पिता का नाम - स्व0 श्री परसुराम 

संरक्षिका का नाम - श्रीमती संगीता पत्नी स्व0 श्री सुधीर कुमार 

संरक्षिका से छात्र का संबंध - भाभी


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