पराजाई
पराजाई


सीली लकड़ी चूल्हे में लगाते ही धुएं का गुबार उठा और उसकी कच्ची रसोई और पक्के मन पर अपना पूरा साम्राज्य बना लिया।धुएं से कड़वाई अपनी आँखो में अपने हृदय से निकले आँसुओ को भी उसने उसी में मसल दिया।
दलान से आ रही आवाज़ें उसके कानों को छलनी किये देते थे।बात ज़मीनी बँटवारे की थी और इज़्ज़त उसके किये कामों की दाँव पर लगा दी देवर ने।पुत्रवत देवर की ईर्ष्या भरी ज़बान से शब्द-शब्द कोढ़ से टपक रहे थे।उसका पति का क्रोध भी सातवें आसमान पर जा पहुँचा।बात एक दूसरे की जान लेने पर आ बनी।
जर्जर बेवा बुढ़ापा, निरीह सा अपनी जाई औलाद की नीचता को देख अपनी दुआओं की गठरी पर गाँठे मज़बूती से कसे जा रही थी।अपनी बहू को पास बुला बोली।
“ धुएं से बाहर निकल री, आग बन आग जा सबै नू भस्म कर दे, महतारी होये के भी कह रहें हैं हम तोहसे।”
उसने ठंडी सी साँस ली और सास का हाथ अपने हाथों में ले बोली।
“अम्मा जी! औरत जननी है सांघारी न। रही बात आग बनने की तो आग तो सब एक पल में जला राख कर देती है और राख तो धरती पर ही रह जावे है।धुआँ, करकन तो सभी को देवे है पर ख़ुद आसमान की तरफ़ ही जाये है।सो अम्मा! मैं धुँआ ही ठीक सबकी करकन बन ख़ुद का आसमान बनाऊँगी और तेरे जैसी अम्मा के आशीर्वाद का हाथ भी तो है मेरे सर पर।”
और वह अपने शुरू किये कुटीर उद्योग के लिए तैयार आँचार पापड़ की पैकिंग में लग गई।अम्मा की दुआओं की गढ़री की गाँठे उस पराजाई के लिये ढीली पड़ने लगी।