Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Jyotsana Singh

Drama

4  

Jyotsana Singh

Drama

रति निवेदन

रति निवेदन

5 mins
324


सूरत देख कर प्यार करने वाले की फ़ेहरिस्त लम्बी होती है ये सच है किसी की सीरत देख प्यार हो जाता है ये भी उतना ही सच है जितना की यह कि प्यार किया नहीं जाता हो जाता है पर यहाँ जो दिख रहा था वह मन से ज़्यादा तन की भूख थी।

यह सब उसके नारंगी रंग से लिपि पुती माँग वाले चेहरे पर उस वक्त सहज हो उठता जब उस छोटी सी चाय की दुकान पर सड़क के उस पार पुरानी चप्पल जूते की मरम्मत करने वाला वह जिसकी हड्डियों से उसकी खाल चिपकी हुई सी मालूम होती थी वह श्याम वर्णी “चिनुक”

जब भी वहाँ चाय पीने आता और स्पेशल चाय का ऑर्डर देता तब वह बड़ी फुर्ती से सब काम छोड़ उसकी स्पेशल चाय को मालिक की नज़र बचा थोड़ा दूध,शक्कर और बढ़ा कर ज़रा अदरक इलाइची के पेस्ट को डबल कर कुछ और ज़्यादा ऊबाल कर सुपर स्पेशल कर दिया करती थी।

वह भी पैसे देने के साथ ही उसे स्पर्श का सुख दे दिया करता था।

और दोनो के ही चेहरे पर एक सुखद भाव पसर ज़ाया करते थे।

उस चाय की दुकान पर काम करते अभी उसे तीन महीना ही हुआ था पर उसकी चर्चा आस-पास की सभी दुकानों में आम हो गई थी।

सस्ता ही सही पर रहती वह पूरे बनाव शृगार से थी जो की स्त्री के सहज स्वभाव का द्योतक था।

 वह अपनी वाक् चपलता के कारण मालिक के व्यापार को भी एक सीढ़ी ऊपर ही किए रहती थी।

लोगों के दिलों को वह आंदोलित करती और खुद पर तब और इतरा जाती जब टिप्पणी में उसकी उम्र से दुगुने हो चले लोग भी उसे 

“बड़ी कँटीली छबीली हो”

कह कर फबतियाँ कसते और वह उन उम्र दराज़ों को मुस्कान फेंक रिझाती और नवयुवकों को लोकल गालियों से नवाज़ती। 

मगर दोनो ही वर्ग के चेहरे पर एक अजीब सी झुर्जरी नज़र आती जो कहीं न कहीं दर्शा जाती उस समाज की मानसिकता को जिसे हम सभ्य कह सकते हैं।

आस- पास के दुकानदार जो चाय समोसा उस दुकान से लेते उनकी कहीं न कहीं यही मंशा होती कि उनकी दुकान पर चाय “छबीली” ही ले कर आए जिससे उन्हें काम के बोझ तले कुछ पल बेहूदी हँसी के मिलें।

 दो छोटे बच्चों की माँ और दिमाग़ से पंगु व्यक्ति की पत्नी होने का भार वहन करते हुए वह शरीर पर पति के दिए चोट के नीले निशान और आँचल में ममता बांधे अपने चेहरे पर दिन भर रहस्यमय मुस्कान लिए फिरती रहती पर शाम होते ही उसके चेहरे पर एक मलिनता तैरने लगती थी 

यह तो स्पष्ट था कि यह मलिनता थकान की नहीं बल्की घर पहुँच उस निठल्ले पति से मिलने वाली कलह की हैं।

जो न चाहते हुए भी अपनी रखायें उसके नारंगी माँग वाले चेहरे पर खींच जाती हैं।

आज वह दुकान का बचा हुआ छोला समोसा ले घर की ओर चली ही थी कि राह में उसे चिनुक खड़ा मिल गया और उसकी छाती में उतरा दूध न जाने कैसे सूख गया और उसके उरोजों में कामुकता समाने लगी और बातों ही बातों में कामुकता ने ममता को बड़ी चालाकी से कुचल दिया और वह उसकी कोठरी की ओर चल पड़ी।

 आज की भोर में उसके चेहरे पर एक अनजानी सी तृप्ति छाई हुई थी उसकी शारीरिक स्फूर्ति में भी बढ़ोत्तरी हुई थी।

 लेकिन चित्त शांत न था ऐसा लग रहा था कि रात जैसे ही उसकी भूख तृप्त हुई वैसे ही उसे अपने ज़ने के पेट की भूख ने विचलित कर दिया और उसका आँचल फिर से भीग गया।

शायद आज वह जल्दी से घर जाने के प्रयास में थी मगर मालिक वह क्यूँ छुट्टी मंज़ूर करता? आख़िर उसके धंधे का वक्त था।

छोले जैसे ही कढ़ाई में महकने शुरू हुए वैसे ही उसकी ममता की छटपाटहट ने भी भटकना शुरू किया और अब उसे पैकेट में बंद बास मार चुके कल के छोले समोसों की याद हो आई और वह अपने को ही कोसने लगी उसकी आँखे छलछला आई।

कि तभी चिनुक चाय की तलब में दुकान की सीढ़ियाँ चढ़ आया और उसे देख खुद का नैन सुख भी ले लिया।

मगर आज छबीली की आँखो में अपनी भूख न उभरी उसने उसकी चाय सिर्फ़ स्पेशल ही रखी और पैसे लेते वक्त भी उसके मन ने भरे पेट जैसी ही खट्टी डकार ली और उसके चेहरे के भाव तिक्त हो चले।

पर चिनुक वह तो आज भी आतृप्त था और बीती रात का स्वाद उसके मुख की लार को बढ़ा रहा था।

उसने चुपके से उसे रात का नेह निमंत्रण दे डाला पर वह तिलमिला उठी उसे लगा जैसे उबल रहे छोले की गरम कड़ाही के काने को उसने अपनी गट्ठे पड़ी नंगी हँथेलिया से छू लिया हो।

 चुभती हुई आँखो से उसने उसे बेंध डाला पर उस पर उसकी आँखो के बेंधने का असर कैसे होता उसे तो कामदेव के शर बेंध रहे थे।

वह एक बाद दूसरी फिर तीसरी चाय तक वहीं बैठा उसके एक इशारे का इंतज़ार करता रहा पर वह अपनी ही धुन में एक दुकान से दूसरी दुकान तक चाय पहुँचाती रही।

उसकी बेरुख़ी देख चिनुक सीढ़ियां उतर अपनी रोज़ी की तरफ़ चल पड़ा शायद उसके क़ानो में भी कोई ऐसा ही शेर टकरा रहा होगा 

“बड़े बे आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले”

शाम का समय दुकानदारी की अफ़रा- तफ़री में गुजरने लगा किसी का मज़ाक़ तो किसी झिड़क में न उसे चिनुक याद रहा न अपने बच्चे ही पर जैसे- जैसे ग्राहक बढ़ते और कड़ाही से छोला और ट्रे से समोसा बिकते वैसे ही वह कोने में रखे अपने गंदे से झोले को देख मन मसोस के रह जाती।

कल के बास मार रहे छोले समोसे उसकी भूख पर उसे झोले में हँसते नज़र आ रहे थे।

तभी मालिक ने उसे आवाज़ दे दुकान बढ़ाने की बात कही और दिन भर की अपनी कमाई समेटते हुए बोला।

“छबीली आज का दिन बहुत अच्छा रहा सब माल बिक गया कुछ भी नहीं बचा न बासी बचे न कुत्ता खाए!”

उसने मालिक की ख़ुशी में अपने शब्द मिलाए।

“सब ऊपर वाले का खेल है मालिक कुत्ता भी वही पैदा करता है।”

और अपनी कोख पर अपनी नम नज़र डाल अपने खेले कल के खेल के लिए खुद को दुत्कारने लगी और जूठे पत्ते चाट रहे कुत्तों के आगे उसने बासी छोला समोसा डाल दिया।

हाथ में दिन भर की दिहाड़ी और ख़ाली झोला लिए आज वह अपने घर की ओर चल पड़ी चिनुक ने उसे आवाज़ भी दी पर आज उसके क़ानो से वो आवाज़ टकरा कर वापस कहीं विलुप्त हो गई।

दोनोंं बच्चों के रोने और बिलखने की आवाज़ के आगे आज उसे चिनुक का रति निवेदन नहीं सुनाई दे रहा था।


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