नीलम
नीलम
सिंह साहब की वह कोठी वैसे तो पूरी गुलज़ार थी पर उसके सामने का हिस्सा वीरान ही पड़ा रहता। न तो कोठी के लोग ही उस तरफ़ की सीढ़ी चढ़ते न ही कोई किराए पर रहना चाहता था।
सभी को पता था कोठी के उस हिस्से में नीलम रहती है। नीलम नाम सुनते ही आस-पास के सभी लोग भय से पीले पड़ जाते। कोई भूले से भी उस तरफ़ चला जाता तो निश्चित ही उसका हाल बेहाल हो जाता और वह अपना आपा खो बैठता और विक्षिप्त सा हो जाता।
बच्चों को सख़्त हिदायत दे कर खेलने भेजा जाता की कोठी के सामने वाले हिस्से में क़दम न रखे और अंधेरा होने से पहले अपने- अपने घरों में वापस आ जाए। सिंह साहब ख़ुद भी दिया बत्ती होते ही बग़ीचे से उठा कर महफ़िल बैठक में जमा लिया करते थे। क्यूँ की नीलम का असली सच तो उन्हें ही पता था। दिन भर चहल-पहल से गुलज़ार रहने वाला कोठी का मुहान रात होते ही सन्नाटे में समा जाता लोग बाग़ सिंह साहब को शुभ रात्रि बोल अपने रास्ते निकल लिया करते थे।
रात गहराते ही चूड़ियों की खनक और पायल की रुनझुन साफ़ सुनी जा सकती थी कोठी के उस हिस्से में। कभी सिसकियाँ तो कभी तेज़ ईत्र की गंध कोठी की रात को रहस्य से भर दिया करती थी।
कुछ लोगों का तो कहना था की उन्होंने लाल जोड़े में सजी दुल्हन को छत पर खड़े भी देखा है कुछ ने तो उसकी पुकार भी सुनी थी पर सिंह साहब का कहना था की ऐसा कुछ नहीं है सब अफ़वाह है।
हाँ ! पर नीलम का साया है ही नहीं इस बात से इंकार उन्होंने कभी नहीं किया।
माँ दुर्गा के परम भक्त तोमर साहब सरकारी दफ़्तर में कार्यरत थे और तबादला हो सपरिवार शहर में रहने आए थे। थोड़े बड़े घर की तलाश में थे की सिंह साहब से टकरा गए। बात-चीत में दोनों एक दूसरे के मन को भा गए और सिंह साहब ने उन्हें कोठी आ मेहमाननवाज़ी कबूल करने की दावत पेश कर डाली। तोमर साहब कोठी पहुँचे तो वहाँ का रौब- दौब देख उनका मन प्रसन्न हो गया और ख़ाली पड़ी कोठी का वह हिस्सा किराए पर लेने की बात सिंह साहब के सामने रख दी।
सिंह साहब ने यह कहते हुए मना किया की वह इंसान के रहने के लिए उचित जगह नहीं है। जब तोमर साहब ने कारण पूछा तो उन्होंने शहर में फैली अफ़वाह के बारे में कह सुनाया।
ज़ोरदार ठहाके के साथ तोमर साहब ने वहाँ रहना एक चुनौती समझा और वहाँ रहने देने के लिए उनसे विनती की।
आख़िर तोमर साहब अपनी गृहस्थी ले सालों से बंद पड़े उस नीलम घर में जा बसे। पहली ही रात घर में उन्हें उन आवाज़ों का सामना करना पड़ा जिसे सालों से लोग बाहर से सुनते चले आ रहे थे।
पत्नी ने वहाँ रहने से मना किया पर तोमर साहब को तो अपनी पूजा पर अकंट्य विश्वास था। दूसरे ही दिन उन्होंने वहाँ माँ दुर्गा की हवन बेदी लगाई और पत्नी से पूर्ण आहुति के लिए खीर बनाने की कह कर बैठ गए पूजा पर। पत्नी जैसे ही खीर बनाना शुरू करती वैसे ही उसमें कुछ न कुछ आ कर गिर जाता यहाँ तक की हवन समाप्त हुआ किंतु पूर्ण आहुति की शुद्ध खीर न बन पाई और तोमर साहब की पूजा अधूरी रह गई अगली अमावस तक के लिए। अब पंद्रह दिन की उठा पटक तोमर साहब और नीलम की शुरू हुई।
जैसे-जैसे तोमर साहब की पूजा बढ़ती वैसे-वैसे उसके उत्पात बढ़ते कभी उनके खाने में कोई गंदगी गिर जाती कभी उनकी पत्नी के बदन को कोई कस कर दबा देता तो कभी चलते चलते बच्ची गिर पड़ती।
रोज़ के हवन से उस साये की घुटन बढ़ती और उसकी चीख़ निकलती।
आख़िर एक ढलती दोपहर उस साये ने तोमर साहब की पत्नी का गला दबाना शुरू किया और बोली।
“बंद करवा दो ये सब मुझे ऐसी ही तकलीफ़ होती है जैसी इस वक़्त तुमको हो रही है ये पुरुष किसी के वफ़ादार नहीं होते।”
तब तक शाम की आरती जला तोमर साहब ने धूप दीप सब प्रज्ज्वलित कर दिया और वह उन्हें छोड़ ख़ुद को बचाने लगी।
पत्नी से सब बात जान वह सिंह साहब से पूछ ही बैठे।
“आख़िर हुआ क्या था नीलम के साथ ?”
सिंह साहब को शब्द न मिल रहे थे किसी तरह से उन्होंने बताया “नई शादी का एक जोड़ा इस घर में रहने आया था नीलम बहुत ही ख़ूबसूरत थी और ख़ूब सज धज के रहा करती थी।
आस पास के लोग उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते थे।
वो करवा चौथ का दिन था वह किसी रतिकमानी सी सजी पति का इंतज़ार कर रही थी की मोहल्ले के चुहलबाज़ लोगों को चुहल सूझी और ख़बर फैला दी की कलकत्ते से एक नाचने वाली नीचे कोठी में आई है और महफ़िल जमी है।
वहाँ पर उस नाचने वाली ने अपनी नथ नीलम के पति से ही उतरवाने की रज़ा मंदी दे दी है।
और जब नीलम ने मुझसे सच जानना चाहा तो मैंने चुहलबाज़ पुरुष वर्ग की बातों का मूक समर्थन किया।
मेरी चुप्पी ने उसके विश्वास का गला घोंट दिया और वह
भूखी प्यासी बिना सोचे समझे एक ख़त उसकी बेवफ़ाई का लिख पंखे से जा लटकी और जान दे दी।
तब से आज तक नीलम का काला साया कोठी पर छाया रहता है।
और वह मेरे मौन का जवाब आज भी अपनी चीख़ों और सिसकियों से माँगती है।”
तोमर साहब को अब रास्ता मिल चुका था।
उन्होंने चौथ की रात को देवी हवन किया और अपनी बेटी का देवी माँ सा पूरा शृंगार कर सिंह साहब की गोद में बिठा कर हवन किया।
बेटी और सिंह साहब दोनो डरे हुए थे पर तोमर साहब को अपनी माँ और पूजा दोनो पर पूरा यक़ीन था।
आज पूर्णआहुति की खीर बन गई थी और बिटिया बड़े मन से भोग लगा रही थी तोमर साहब ने हवन बेदी में उस लाल चुनर को जलते हुए देख लिया था।
शायद अनजाने में किए अपराध की माफ़ी सिंह साहब को मिल गई थी।
अब रात में किसी को कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती बस तोमर साहब की बेटी के नाज़ुक पाँवों में पायल की रुनझुन बजती रहती है।