और समय निशब्द हो गया
और समय निशब्द हो गया
समय ने अपनी चौपाल लगाई और जन मानस को निमंत्रण भेज सभी स्त्री-पुरुष, बच्चा-बूढ़ा, बाल-बालिका से शामिल होने का अनुरोध किया। जब सभा खचाखच भर गई तब समय ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा, “साथियों! मैं जानना चाहता हूँ अपने बारे में आप सब के विचारI मेरा क्या महत्त्व है आप के जीवन में, क्यूँकि अच्छा-बुरा कुछ भी हो आप सब समय के मत्थे ही मढ़ देते हैं। पर सच में आप क्या समझते हैं, मुझे अपने विचार मुझसे साझा करें।”
अब सबने अपने-अपने समय में झाँककर देखना शुरू किया और उसके प्रश्न पर अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि डाली।
सब को चुप देख समय बोला, “आप सब मुझे मेरा महत्त्व बतायेंगे तो मुझे सहर्ष ख़ुशी होगी।”
तब सबसे पहले नटखट बच्चा बोला, “हम जिस वक़्त खेलते हैं, वह समय हमारा सबसे अच्छा समय होता है। पर अफसोस वह समय हमेशा कम होता है। तुम अगर हमारे खेलते वक़्त थम जाओ तो तुम सच में बहुत अच्छे हो।”
बात बीच में ही काट जवानी पर क़दम रखते हुए किशोर ने कहा, “न,न समय तुम थमना मत, नहीं तो काम करते-करते ही मेरा जीवन बीत जायेगा और जवानी का सुख भी मैं न ले पाऊँगा।”
इन सबकी सुन पास ही बैठे हुए बूढ़े ने कहा, “समय के हर रंग की लकीरें इस उम्र तक आते-आते चेहरे पर अपनी छाप छोड़ जाती हैं और उसने वहीं बैठे-बैठे मिट्टी में एक सीढ़ी नुमा चित्र खींच कर उसमें जीवन को दर्शाती चारों आश्रम को चित्रित किया।
ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रमI
सब ने हाँ में हाँ मिलाई, अब समय ने अपनी गर्दन घुमा कर कहा फिर सब से पूछा, “क्या बस खेलकूद और काम भर का ही हूँ मैं?” तभी बचपन मासूमियत से बोला, “माँ!”
अब सब एकमत में बोल उठे।
“हाँ सच ही तो है तुम माँ की कोख से ही तो हमारे साथ हो लेते हो और तब तक रहते हो जब तक कि तुम ख़ुद हमारा साथ नहीं छोड़ते।”
और समय निशब्द हो गयाI