सफ़ाई
सफ़ाई
सफ़ाई का जुनूनी कीड़ा था सूमी दी के दिमाग़ में हर वक़्त हर चीज़ उनकी चमचम करती रहती।
घर द्वार सब क़रीने से व्यवस्थित मजाल क्या की कोई भी चीज़ अव्यवस्थित हो या मैली-कुचैली हो।
हमारे छोटे से घर को अपने शौक़ से अभाव में भी सुंदरता का जामा पहना रक्ख़ा था।
हम सात भाई बहन के परिवार में सबसे बड़ी थी वह।
इतने बड़े परिवार में जब कमाने वाला सिर्फ़ एक पिता हो तो सम्पन्नता तो दूर की मेहमान ही बनी रहती।
विपन्नता के पाँव पूरी तरह से तो न पसरे थे पर फिर भी आँगन कुठार जब-तब अपनी पीड़ा किसी न किसी दराज़ से कह ही गुज़रते थे।
बस सूमी दी का साफ़ सुथरा तौर तरीक़ा हमारे घर में रौनक़ बनाये रखता था।
सूमी दी कि क़िस्मत ने करवट बदली और हमारे अँगना उनकी बारात आई उनसे दुगुनी उम्र के पुरुष हमारे जीजा बन उन्हें अपने घर की रौशनी बना ले गये।
हम सब भी ख़ुश थे की दी की सुपर रिन की चमकार में अब जीजा के सिक्कों की खनक भी शामिल हो जायेगी।
महीनो बाद सूमी दी की ससुराल जाने को मिला तब उनके घर-आँगन की गंदगी देख हतप्रभ रह गया और पूँछ ही बैठा उनसे।
“दी! आप का घर इतना गंदा कैसे और आप ये सब गंदगी बर्दाश्त कैसे करती हैं?”
सर्द गहराती रात की ठिठुरन को दूर करने के लिये आग सेंकतीं सूमी दी बोल उठी।
“जब तन-मन ही गंदा हो तो घर-द्वार की साफ़-सफ़ाई रख क्या करना है।”
गज़रे की सुगंध और शराब की गंध के साथ दालान पार कर आते हुए जीजा को देख मलिन मुख हो गई सूमी दी ने अलाव को और तेज़ कर दिया हमारे आस-पास का वातावरण उस सर्द रात में भी सुलग उठा।