पंंखों वाली साइकिल
पंंखों वाली साइकिल


आज इस lockdown के समय मे मजदूरों की पलायन की गाथा देखते हुए मन विषण्ण हो जाता है।
बार बार दिल मे कसक उठती है कि मजदूर तो पलायन कर रहे है बेबसी से।लेकिन मैं क्या कर रही हुँ?
मैं जो झट से रिमोट से टीवी में चैनल चेंज कर दूसरे चैनल पर आँखे गड़ा लेती हुँ।वह किसी पलायन से कम नहीं है क्या?
मैं स्वार्थी हो जाती हुँ शायद। हम सब जो अपने घरों में एयरकंडीशनर कमरों में सस्ते इंटरनेट के साथ नेटफ्लिक्स और हॉटस्टार पर अपने मनपसंद एंटरटेनमेंट के साथ बैठ कर फ़ोन में उलझे रहते है और फिर इंग्लिश में डिबेट करते रहते है।यह हमारे स्वार्थ की पराकाष्ठा नहीं है ?
मजदूरों का क्या ?
कभी शहरों को बसाने और उन्हें सुंदरतम बनाने के लिए वह अपने गाँव को छोड़कर आये थे कि यह शहर हमे रोजी रोटी देगा।हमे आसरा देगा।इन्ही छोटे छोटे ख्वाबों के सहारे वह वही पर छोटी छोटी झोपड़ियों में रहने लगा।गाँव के अपने बड़े से आँगन वाले घरों को छोड़कर।
वह भूल गया था कि शहरों में कालीनों के नीचे गंदगी के ढेर होते हैं।
आज वह खाली पेट और खाली जेब से हज़ारों किलोमीटर पैदल चलते बस चला ही जा रहा है।बस पुलिस की मार खाकर।
पुलिस की मार से बचते हुए वह कभी किसी गाड़ी में छुपकर जाता है।लेकिन नियति उसे फिर रोकती है।पुलिस उसे फिर रोक लेती है।
क्या करे वह ?
अब वह जान गया है कि बेबसी क्या होती है।
वह फिर कोशिश करने लगा है। इस बार कर्ज लेकर साईकल से हज़ारों किलोमीटर का सफर तय करने चला है।उसके उम्मीदों को जैसे पँख लग गये है बिल्कुल उस साईकल की तरह.....
वह साईकल जो आज चक्कों से ही नहीं बल्कि दो रंगबिरंगी पँखों से उसे उड़ाकर उसे अपनों के साथ अपनों के बीच उसको गाँव ले जा रही है......