पिता का दर्द
पिता का दर्द


विजयादशमी का दिन था। पति ने पड़ोसन के संग पत्नी को रामलीला देखने भेज दिया। ताकि उसका मन बहल जाय। वह बदहवास रहती, न तो उसे दिन में चैन पड़ता और न ही रात को! आँसू बहते-बहते आँखें पथरा गई थी बेचारी की !
बेटे का जीवन बाप की तरह गरीबी में न कटे, इसलिए खेतिहर बाप ने पेट काटकर उसे होनहार बनाया। जैसे ही इंजीनियरिंग की इनट्रेन्स परीक्षा उसने अव्वल दर्जे से पास की, माता- पिता खुशी के मारे लोगों से यह कहते नहीं अघाते,
"हमर बेटवा इंनजियर बनत। घर से दरिद्रा मिटत।"
पर, भाग्य को यह मंज़ूर नहीं था ! एकदिन लैपटॉप खरीदने के लिए बेटे का होस्टल से फोन आया। उसके मुँह से पैसों का डिमांड सुनकर पिता किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। काश! मैं अमीर होता! तो दाखिले के समय उसे लोन नहीं लेना पड़ता! इतने पैसों का इंतज़ाम तुरंत अभी कहाँ से करूँ?!
एक पुस्तैनी झोपड़ी, थोड़ा सा उपजाऊ जमीन ओर एक जोड़ी बैल। बस यही तो थी उसकी जमापूँजी।
"थोड़ा सब्र कर, चार महीने बाद लैपटॉप के लिए पैसे अवश्य भेज दूँगा। इस बार अगहनी फसल बहुत अच्छी है। "बाप ने बेटे को फोन से आश्वस्त किया।
हवा का रूख बदलते देर न लगी। छ: महीने बीतते -बीतते होस्टल की आबो हवा उस पर हावी होने लगी। अमीर बिगड़ैल दोस्तों के सम्मोहन में वह जकड़ता गया। खराब लत लग गई ! नशे के सेवन के साथ-साथ पाकेटमारी पर भी वह उतर आया !
इस सबसे बेखबर बाप अच्छी पैदावार के लिए खून पसीने बहाता रहा। अचानक एक दिन पब में किसी का पर्स बेटे के हाथ लगा। हजार की मोटी गड्डी देखकर उसकी आँखें चमक उठी। फौरन बाजार जाकर उसने लैपटॉप खरीद लिया। पढ़ाई कम, अशलीलता देखने में उसे अधिक रास आने लगा। काली करतूत के काले हाथ ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा! एक शाम एक मुठभेड़ में उसके प्राण पखेरू उड़ गए !
जैसे ही यह खबर आई, घर में मातम पसर गया। मानो माता -पिता के जीवन में बज्रपात हो गया !
अभागे पिता आखिरकार होस्टल पहुंचे। बेटे के करतूतों का पुलिस और अन्य लोगों के द्वारा जैसे ही सब पता चला, कटे वृक्ष की भांति वह अचेत गिर पड़े ! येन केन प्रकारेण बेटे की अंतेष्टि के बाद, उसके कुछ महत्वपूर्ण सामान के साथ वह मर्माहत घर लौटे।
पिता अपने हाव-भाव से भीतर की स्थिति का पता किसी को नहीं लगने देते, लेकिन, उनके अंदर न भरने वाला ज़ख्म हमेशा रिसते रहता! जब भी अकेले रहते, बेटे के लैपटॉप को एकटक देखने लगते। एक घिनौना हाथ और एक पर्स उसमें उन्हें नजर आता ! पर, अंधेरे में आँसू बहाने के सिवा और कुछ नहीं सूझता।
लेकिन, आज कुछ अलग हुआ। बाप ने अपने कलेजे को सख़्त किया। जिस राम की छवि को वह बेटे में देखना चाहते थे, रावण के वेश में वह उसके मन- मस्तिष्क को बारम्बार विचलित कर रहा था। झटके से उसने लैपटॉप उठाया और बाहर दलान के पास गंदे डबरे में जाकर फेंक दिया। एक लंबी सांस अभी खींच ही रहे थे कि दूर से पत्नी को अपनी ओर आते देखा।
मन फिर से द्रवित होने लगा। आकुल पति,पत्नी से लिपटकर आज जी भर रो लेना चाहता था। पर, ऐसा नहीं कर पाया ! विक्षिप्त की भांति मुस्कुराते हुए वह बुदबुदाया, "सुनो प्रिये, एक रावण बध यहाँ भी हुआ है।"
पत्नी ने पति के मनोदशा को भांपते हुए बस इतना ही कहा, "अब घर चलिए। आगे से हम अगहनी फसल को बेचकर, हर वर्ष विजयादशमी के दिन पास वाले अनाथालय में विजयोत्सव मनाने जाएंगे। जहाँ एक नहीं अनेक राम का मासूम चेहरा खिल उठेगा।"
डबरे के गंदे जल में उफन रहा बुलबुला अब तक शांत हो चुका था।