astha singhal

Horror

3.4  

astha singhal

Horror

पिशाच

पिशाच

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बचपन से ही ख्वाहिश थी बड़े से बंगले में रहने की। मेरी यह ख्वाहिश पूरी हुई जब मेरे पति को ऑफिस की तरफ से एक बड़ा सा बंगला किराए पर मिला। बंगला क्या था एक बड़ी सी हवेली थी। उसमें ५ कमरे थे। घर के बीच में पुरानी हवेलियों की तरह आंगन था। जो ऊपर से खुला था। बाहर बड़ा सा बगीचा था और एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष था। उस वृक्ष को देख एक बहुत ही अजीब सा एहसास हुआ। कुछ पल उसको एक टक देखती रही। फिर अचानक लगा जैसे किसी ने हल्का सा धक्का दिया हो। पर ज्यादा गौर ना करते हुए मैं घर के अंदर चली गई।


बच्चे तो मानो बहुत ही खुश थे क्योंकि इतना बड़ा घर उनके लिए तो स्वप्न समान था। वह एक कमरे से दूसरे कमरे में भाग रहे थे। तभी छोटे बेटे रिशभ के चिल्लाने की आवाज़ आई। मैं और मेरे पति जो पीछे के कमरे में समान लगा रहे थे भाग कर आंगन में पहुंचे। रिशभ दर्द से कराह रहा था। मैंने उसे डांटना शुरू कर दिया। वह रोते हुए बोला," मेरी गलती नहीं थी। अचानक किसी ने मुझे धक्का दिया और मेरा पैर मुड़ गया।"

उसकी बात सुनकर मेरे होश उड़ गए। क्योंकि ऐसा ही धक्का मुझे ऊपर छत पर महसूस हुआ था। मैंने आंगन में चारों तरफ नज़र दौड़ाई पर ऐसा कुछ अजीब नहीं लगा। अचानक से मेरे ऊपर कबूतर की बीट गिरी। मैंने गर्दन उठा कर ऊपर देखा तो हैरान रह गयी। वही पीपल का पेड़ जो बाहर बगीचे में था, उसका आधे से ज्यादा भाग आंगन पर साफ दिख रहा था। उसके पत्ते हवा से खूब तेज़ हिल रहे थे। ना जाने क्यों पर उस पेड़ को देखते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे।


रात को मैंने अपने मन का डर अपने पति से साझा किया। वह पहले तो हंस पड़े फिर थोड़ा गंभीर होकर बोले, "देखो, तुम्हारी ही ज़िद्द की वजह से मैंने इतने बड़े बंगले के लिए हां किया था। इसलिए इस वहम को दिमाग से निकालो और अपने सपने को खुल कर जियो। फिर दोबारा ऐसे घर में शायद ही रहने का मौका मिले।"


कह तो वह ठीक ही रहे थे। मैंने अपने आप को समझाते हुए सोचा कि शायद मैं ही ज़्यादा सोच रही हूं। 


मैं अगले दिन घर की साफ-सफाई में जुट गई। हैरानी की बात थी कि मेरे ज़्यादा पैसे देने पर भी कोई कामवाली बाई मुझे नहीं मिल रही थी। मुझे घर के सारे काम अकेले ही करने पड़ रहे थे। झाडू लगाते - लगाते मैं थक गई थी। तो स्टूल पर बैठ कर आराम कर रही थी कि अचानक मेरी नज़र एक छोटे से बंद दरवाज़े पर पड़ी। उसपर एक बड़ा सा ताला लगा था। पता नहीं क्यों मन हुआ उस कमरे में जाने का। मुझे याद आया कि जिसने हमें यह घर दिलाया था उसने एक चाबी का पुराना सा गुच्छा हमें दिया था। 

मैं तुरंत उस गुच्छे को खोज लाई और उस कमरे का ताला खोल दिया।

अंदर का नज़ारा काफी भयानक था। कमरे में बत्ती नहीं थी। पर क्योंकि दिन का समय था तो कमरे में बने दो बड़े-बड़े रौशनदान से काफी रौशनी अंदर आ रही थी। मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई, जगह - जगह मकड़ी के जाले लगे हुए थे। कमरे में हर जगह धूल ही धूल थी। ऐसा लग रहा था कि इस कमरे को साफ किए सदियां बीत गयी हों। मैं खांसते हुए अंदर की ओर धीमे कदमों से बढ़ने लगी। कमरे में पुराना कबाड़ इकट्ठा कर रखा था। पर जब मैंने उन सब चीजों को गौर से देखा तो हैरान रह गयी। वो संदूक, कुर्सी, मेज़, मटके सब बहुत पुराने ज़माने के लग रहे थे। उन पर की गई नक्काशी 16वीं या 17वीं शताब्दी की लग रही थी। किसी राजा महाराजा के समय की। 

तभी मेरी नज़र एक अजीब से दिखने वाले ड्रैसिंग टेबल पर जा कर रुकी। उसका शीशा आधा टूटा था पर फिर भी मेरी पूरी शक्ल उसमें दिख रही थी। मैं अनायास ही उसकी तरफ आकर्षित होती चली गई। जैसे ही उसके पास पहुंच उसको खोलने की कोशिश करी वह हिलने लगा। मेरे मुंह से चीख निकल पड़ी पर मेरे चीखने की आवाज़ नहीं सुनाई दी। इससे पहले कि मैं कुछ करती वह ड्रेसिंग टेबल मेरे ऊपर गिर गया। मैंने बहुत कोशिश करी उसको उठाने की और खुद को निकालने की पर ऐसा लगा मानो कोई उसपर और दबाव बना रहा है। मैं बेहोश होने लगी कि तभी मुझे लगा कि किसी ने मुझे हाथ पकड़ कर खींचा।


जब होश आया तो मैं अपने बिस्तर पर थी और मेरे पति, बच्चे और डॉक्टर मेरे पास खड़े थे। कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ। मैं हैरानी से उनको देख रही थी। तभी मेरा बड़ा बेटा रौनक बोला," मम्मी, आप उस कमरे में बेहोश पड़े थे। मैं आप को खींच कर बाहर लाया। "

मेरे पति मुझ पर चिल्लाते हुए बोले," वो टेबल थोड़ा सा और ऊपर गिरता तो रीढ़ की हड्डी टूट जाती। तुम भी ना मंजू, हद करती हो। इतनी भी क्या साफ सफाई करने की रहती है तुम्हें।"

तभी डॉक्टर बोले,"शुक्र है ज़्यादा चोट नहीं आई। हल्का सा फ्रेक्चर है हाथ में ठीक हो जाएगा।" 


रात को मैंने अपने पति को सारी आपबीती सुनाई। "मुझे ना इस घर से डर लगने लगा है। " मैंने कहा।

"सब तुम्हारा वहम है । ऐसा कुछ नहीं है। सो जाओ सब ठीक हो जाएगा।" उन्होंने बड़े प्यार से कहा।


मेरे पति अपने ऑफिस के चपरासी की बहन को घर ले आए। " मंजू ये तुम्हारे काम में हाथ बंटाएगी। और यहां ही रहेगी। रोज़ आना जाना नहीं करना पड़ेगा।"

मैंने उसे उसका कमरा दिखाया और उस दिन का सारा काम समझा कर अपने कमरे में वापस आई।

" शुक्रिया, आपको मेरी कितनी फिक्र है।" यह कह मैं अपने पति के गले लग गयी। तभी मैंने खिड़की के बाहर एक साया देखा। मैं भाग कर वहां गई , पर्दा हटाया पर कुछ नहीं था। शायद वहम ही था। यह सोच अपने दिल को मना लिया।


कुछ दिन थोड़े सुकून से बीते। फिर एक दिन हमारी बाई आंगन में बंधी तार पर कपड़े डाल रही थी कि अचानक उसके चीखने की आवाज़ आई। मैं भाग कर वहां पहुंची तो देखा कि वह फर्श पर गिरी हुई है और जिस लोहे के डंडों पर तार बांध कर हम कपड़े सुखाते हैं वह उसपर गिरा हुआ है।

"अरे! लता, यह कैसे हुआ। यह डंड़े तो बहुत मज़बूत हैं यह तुझ पर कैसे गिर गये?" मैंने अचरज से पूछा।

फिर मैं किसी तरह उसको उठा कर बिस्तर तक लाई और अपने पति को ऑफिस में फोन कर बताया।

" मेमसाब, यकीन मानिए मेरी कोई गलती नहीं है। मैं तो आराम से कपड़े सुखा रही थी कि मेरी नज़र ऊपर पीपल पर पड़ी। बस उसे देख रही थी कि ये अचानक मुझ पर गिर पड़े।" वह दर्द से कराहती हुई बोली।

मेरा माथा ठनका। जब भी हम में से किसी को चोट पहुंची है तब- तब वहां पीपल के पेड़ का साया दिखा है। उस दिन उस कमरे में भी पीपल के वृक्ष का साया साफ दिख रहा था। मेरा शरीर कांप उठा। कहीं कोई पिशाच तो निवास नहीं करता इस पेड़ पर। जो नहीं चाहता कि हम यहां रहें। इसलिए हमें चोट पहुंचा कर हमें यहां से निकालना चाहता है। 

मैं अब बहुत डरी सहमी सी रहने लगी। ज़रा सी आहट होने पर मेरी रुह कांप जाती। मैंने अपने इस डर और पीपल के पेड़ से जुड़ी सभी घटनाओं को अपने पति को बताया।

" हम्म....चलो कुछ सोचते हैं। " मेरे पति ने आश्वासन देते हुए कहा।


कुछ दिन बीत गए। मुझे फिर सारा काम खुद ही करना पड़ रहा था क्योंकि लता को गहरी चोट आई थी तो वह गांव चली गई। 

एक दिन मेरे पति अपने साथ एक आदमी को लाए। उन्होंने उसको पीपल का पेड़ दिखाते हुए कहा," यह पेड़ है। इसकी जितनी छंटनी कर सकते हो कर दो। " 

जब मैंने यह सुना तो भाग कर वहां पहुंची। " यह क्या कर रहे हैं आप? पीपल का पेड़ भी भला कोई काटता है?" मैंने गुस्से से कहा।

" मंजू ये सब पुरानी दकियानूसी सोच है। पेड़ चाहे कोई भी हो उसकी छंटनी तो ज़रूरी होती है। और फिर इसकी छंटनी से इसकी छाया घर के हर कोने में नहीं पड़ेगी। तुम भी सुकून से रहोगी। चलो भैया, जल्दी करो।"उन्होंने कहा।

वह आदमी पीपल के पेड़ की तरफ जैसे ही बढ़ा बहुत तेज हवाएं चलने लगीं। देखते ही देखते हवाएं तुफान में तब्दील हो गई। तभी एक बहुत बड़ी टहनी पेड़ से गिरी और एक बहुत तेज़ आवाज़ आई। मैंने अपनी आंखें बंद कर लीं। दो मिनट बाद जब आंख खोली तो सब कुछ शांत हो गया। मैं जैसे ही आगे बढ़ी तो सामने जो देखा उससे मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। मेरे पति ज़मीन पर गिरे हुए थे और पेड़ की वह विशालकाय टहनी उनके ऊपर गिरी हुई थी। और वह दर्द से चीख रहे थे। मैंने घबरा कर रौनक को आवाज़ लगाई। उसकी मदद से हमने उस टहनी को जैसे-तैसे हटाया और उनको अंदर लेकर लाए।

डॉक्टर के आने पर एंमब्यूलेंस बुलवाई और हॉस्पिटल पहुंचे। 

मेरे पति की कमर में फ्रेक्चर आया था। यह सुन कर मैं स्तब्ध रह गई। और कितनो को नुकसान पहुंचाएगा वह पीपल का पिशाच। कोई माने या ना माने मुझे यकीन  हो चला था कि इस घर में कोई है जो नहीं चाहता कि हम वहां रहें।

उस समय यह सब अपने पति को बोलना ठीक नहीं समझा मैंने पर मन में ठान लिया था कि जब वह ठीक हो जाएंगे तब हम यह घर छोड़ देंगे।

अब हर रोज़ मेरे हॉस्पिटल के चक्कर लगते थे। एक दिन मुझे थोड़ा लेट हो गया। मैंने घर का दरवाजा खुला हुआ देखा तो घबरा गई। मैं तुरंत अंदर पहुंच गई। जो देखा वह एक डरावने सपने से कम नहीं था। आंगन में मेरा छोटा बेटा डरा सहमा खड़ा था और ऊपर पीपल के पेड़ को देख रहा था। उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। मैंने ऊपर देखा तो मेरी सांस हलक में ही अटक गई। मेरा बड़ा बेटा पेड़ से लटका हुआ था। यह देख मेरे मुंह से चीख निकल गई। मेरी चीख सुन रौनक डर गया और उसका हाथ फिसल गया। मैंने फुर्ती से पास पड़ी चारपाई उसके नीचे कर दी और वह धम्म से उसपर गिरा। 

मैं उसे उठा कर अंदर कमरे में ले गयी। उसकी पीठ बुरी तरह लाल हो चुकी थी। मैंने उसकी पीठ की सिकाई करी और उसे हल्दी वाला दूध पिलाकर सुला दिया।

अब मेरा यकीन और मजबूत हो गया था। सुबह जब रौनक उठा तो उसने मुझे बताया कि वह रिशभ के साथ बैडमिंटन खेल रहा था। शटल पेड़ पर अटक गई। वह उसे लेने ऊपर चढ़ा तो किसी ने उसे धक्का दे दिया। पर वहां कोई नहीं था। वह गिरने लगा तो अचानक उसने डाल पकड़ ली।

" पर तू ऊपर चढ़ा ही क्यों? मैंने मना किया था ना कि उस पेड़ के आसपास भी नहीं जाना।"  मैंने गुस्से में कहा।

" वो मम्मी... मेरे और रिशभ के बीच शर्त लगी थी। बस ....वो जीतना चाहता था।"

" शर्त जीतने के चक्कर में तुझे कुछ हो जाता तो?" मैंने उसे गले से लगाते हुए कहा।

बस अब मेरा परिवार और नहीं सहेगा। मैं कल ही यहां से चली जाऊंगी। मैं यह सब सोच ही रही थी कि एक परछाईं दिखी। मैंने बाहर जाकर देखा तो कोई नहीं था। तभी वह परछाईं मुझे गेट पर दिखी। मैं उसके पीछे वहां भागी। जैसे ही मैंने गेट पार किया गेट अपने आप ही बंद हो गया। मैंने घबरा कर पीछे मुड़कर देखा तो एक साया घर के अंदर जाते दिखाई दिया। मैंने जैसे ही गेट खोलकर अंदर जाने की कोशिश की गेट खुला ही नहीं। मैंने खूब ज़ोर लगाया पर गेट नहीं खुला। मैं पसीना- पसीना हो गई। क्योंकि बच्चे अंदर थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। तभी रिशभ के चीखने की आवाज़ आई।

"मम्मी कहां हो आप? मम्मी मुझे डर लग रहा है।"


" बेटा मैं बाहर हूं। गेट नहीं खुल रहा। तू हिम्मत रख। रौनक बेटा जल्दी से आ।" मैं चिल्ला कर बोली।पर मुझे लगा कि मेरी आवाज़ रिशभ- रौनक तक पहुंच नहीं रही।

मुझे बार - बार रिशभ की आवाज़ आ रही थी पर मेरी उस तक नहीं पहुंच रही थी। मैं असहाय हो गेट पर गिर गई।


सुबह जब मुझे होश आया तो मैंने फिर गेट खोलने की कोशिश की। इस बार गेट आसानी से खुल गया।मैं भाग कर अंदर बच्चों के कमरे में गई। वहां देखा तो वह आराम से सो रहे थे। मेरी जान में जान आई।जब वह उठे तो मैंने उनसे पूछा कि रात को क्या हुआ था।

" मम्मी कुछ नहीं हुआ था। हम तो आराम से सो रहे थे। और हमें आपकी कोई आवाज नहीं आई। "


मैं समझ गई कि उस पिशाच ने मुझे डराने के लिए यह सब किया। मैंने बच्चों को तैयार होकर आने को कहा। 

उन्हें ले मैं हॉस्पिटल गई। वहां अपने पति को सब कुछ बताया। डॉक्टर के मुताबिक  एक दिन बाद उनका प्लास्टर खुलना था। मैंने तय किया कि उस रात मैं वहीं रुकूंगी बच्चों के साथ।अगले दिन सुबह प्लास्टर खुलने के बाद हम सब घर पहुंचे। मेरा इरादा दृढ़ था। मैंने समान बांधना शुरू किया।

" एक बार और सोच लो मंजू। शायद यह वहम ही हो। "


" मैं कुछ नहीं जानती । शायद वहम हो। पर घटनाएं तो कुछ और ही इशारा कर रही हैं। मैं अपने बच्चों की जान को ख़तरे में नहीं डाल सकती। अगर सच में कोई पिशाच हुआ तो? नहीं, बस अब सोच लिया। हमें उस पिशाच को उसका घर लौटा देना चाहिए।"


समान बांध हमारी गाड़ी उस घर के गेट से बाहर निकली। मैंने मुड़ कर पीछे देखा। पीपल का वह पेड़ शांत खड़ा था और उसके पत्ते हवा में लहरा रहे थे। ऐसा लगा कि अपनी जीत पर इतरा रहे हों। अब यह तब तक शांत रहेगा जब तक कोई और वहां रहने ना आ जाए।



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