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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

फिर दिला देना मुझे, नए कंगना

फिर दिला देना मुझे, नए कंगना

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फिर दिला देना मुझे, नए कंगना … सीमा पर अभी पिछले कुछ दिनों से, दुश्मन की ओर से हरकतों में बहुत कमी आई थी। ऐसा मैंने पिछले एक दशक में सीमाओं पर अपनी तैनाती के दौरान कभी नहीं देखा था। अतः यह मेरी सेना की सर्विस में मुझे अपने प्राण पर सबसे कम संकट वाला समय प्रतीत हो रहा था। 

पिछले कई वर्षों की दुरूह क्षेत्रों में अपनी तैनाती से, मैं कठिन परिस्थितियों में रहने का अभ्यस्त हो चुका था। अभी मेरी तैनाती ऐसी ही एक मुश्किल सीमा पर थी जहां मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता था। कुछ समय से गश्त देने के अपने कार्य में हमें, कोई चुनौती नहीं लग रही थी। इस से हम खाते पीते और अपने साथियों के साथ बातें और मौज मस्ती में दिन बिता रहे थे। किसी किसी दिन रसद के लिए मुझे, समीपस्थ कैंप में जाने का अवसर मिलता था। तब मैं अपनी पत्नी आरती, अपने दो छोटे बेटे और अपने परिजनों से मोबाइल पर बात किया करता था। 

आज जब ऐसा ही मौका मुझे मिला तो मैंने आरती से मोबाइल पर बात की थी। मुझे छह माह से अधिक समय हो गया था जब मैं अपनी विगत छुट्टी, परिवार के साथ बिताकर लौटा था। आरती इस कारण मेरे से विरह की वेदना फोन पर कहा करती थी। आज की बात में वह विरह वेदना से भी अधिक दुखी लगी तो मैंने पूछा - आरती क्या बात है, मेरे कॉल पर भी आज तुम खुश नहीं लग रही हो?

आरती ने बताया - 

पिछले 15 दिनों में गाँव में कोरोना का प्रकोप बहुत बढ़ गया है। हर तीसरे चौथे घर में लोग बुखार खाँसी से परेशान हैं। अभी तक तो हमने अपने घर में कोरोना प्रवेश को रोक रखा है। तब भी हम सभी बहुत डरे डरे रहते हैं। अभी हम सब उतने ही डरे हुए हैं जितना सीमा पर डिस्टर्बेंस के समय आपकी कुशलता को लेकर डरते हैं। 

मैंने अभी हाल में छुट्टी से लौटे अपने साथियों से कोरोना की दूसरी लहर से भयावह हो रही परिस्थितियों के बारे में सुन रखा था। फिर भी सरकार वैक्सीन और मरीजों के उपचार की भरसक कोशिश कर रही है यह भी पता होने से मैंने आरती को समझाते हुए कहा - 

आरती अब तो सरकार ने 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को वैक्सीन की अनुमति दे दी है। तुम सब वैक्सीन क्यों नहीं लगवा रहे हो? वैक्सीन लगने पर, सबका कोरोना का डर मिट जाएगा। 

आरती ने बताया - यहां गांव के लोगों की बातों में आकर पिताजी और माँ ने अपनी बारी पर वैक्सीन नहीं लगवाई थी। अब जब हर घर कोरोना से प्रभावित होते जा रहा है तो जेठ जी अन्य की छोड़, उन्हें लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। अब वैक्सीन के केंद्र पर भीड़ इतनी है कि जेठ जी कहते हैं वहाँ की धक्का मुक्की में कोरोना होने का खतरा, वैक्सीन से मिलने वाली राहत से अधिक हो गया है। वैक्सीन के लिए वहाँ पहुंचने वाले लोग कई कई बार बिना वैक्सीन के लौट रहे हैं। वैक्सीन की उपलब्धता पहले तो थी अब कम पड़ रही है। 

मैंने सांत्वना देते हुए कहा - आरती, अधिक डर के रहने से इम्यूनिटी कम हो जाती है। सावधानी सहित निर्भय होकर रहो। 

आरती ने बताया - 

मुझे तो बहुत डर लग रहा है। हर दूसरे, तीसरे दिन गाँव में कोई मर रहा है। उपचार के लिए दवाएं और इंजेक्शन नहीं मिल पा रहे हैं। जेठ जी बता रहे हैं कि जिन्हें मिल पा रहे हैं उन्हें उसकी कई कई गुनी कीमत देना पड़ रही है। अस्पताल एवं दवाओं के बिल/कैश मेमो भी नहीं दिए जा रहे हैं। अगर अपने घर में किसी को जरूरत पड़ी तो हमारा दवा खरीदना और अस्पताल में उपचार करा पाना मुश्किल होगा। कैश मेमो नहीं मिलने से आप भी सेना ऑफिस से मेडिकल बिल नहीं ले सकेंगे। 

अंत में मैंने आरती का ढांढस बढ़ाने का प्रयास करते हुए कहा - आरती, तब भी चिंता करने से कोई लाभ नहीं। सब लोग सावधानी रखो और कोशिश करो कि वैक्सीन लग जाए। 

इस तरह हमने बात खत्म की थी। यह पहली बार था कि हम आपस में प्यार की कोई बात नहीं कर पाए थे। मैं आरती के मुंह से उसकी पसंद के गाने की दो पंक्तियाँ नहीं सुन पाया था - “एक तेरा साथ हमको दो जहां से प्यारा है, ना मिले संसार तेरा प्यार तो हमारा है”। 

रसद लेकर वापस पहुंचा तो मेरा मन बोझिल और उदास था। रात मुझे देर तक नींद नहीं आई थी। आरती को तो मैं समझाते रहा था मगर माँ-बाबूजी को लेकर स्वयं मैं बहुत चिंतित हो गया था। मैं सोच रहा था देश की सीमाओं की रक्षा का भार मुझ पर था जिसे मैं भली भांति निभाता हूँ। देश में आई महामारी से, देश की अन्य एजेंसीज अर्थात सिविल सिटिजंस को निबटना है। क्यों ये एजेंसी अपने पर दायित्व को मुझ जैसी नैतिकता एवं साहस से नहीं निभा पा रहे हैं। 

सप्ताह भर मैं ड्यूटी करता रहा था मगर हृदय में विषाद बना रहा था। आठवें दिन परिवार के हाल चाल ले पाऊं इस हेतु, मैंने स्वयं ही रसद लाने की ड्यूटी ली थी। उस दिन आरती से जब बात हुई तो पता चला कि माँ-पिता, दोनों की हालत ठीक नहीं होने के कारण हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा है। उनकी दवाओं एवं उपचार के लिए खर्चा बहुत आ रहा है। अतः आरती और उसकी जेठानी को अपने अपने कंगन बेच देने पड़े हैं। 

तब मुझे याद आया था कि आरती को ये कंगन मैंने अपनी बचत राशि से खरीद कर, प्रथम प्रणय रात्रि पर अपने हाथों से पहनाए थे। मैंने कहा - 

आरती, मेरी प्यार का दिया प्रथम उपहार बेचकर तुम दुखी हो क्या?

आरती ने शायद मुझे दुखी ना करने के लिए उत्तर सोच रखा था उसने कहा - 

कोई नहीं जी, अभी माँ-बाबूजी अच्छे हो जाएं बाद में आप फिर दिला देना मुझे, नए कंगना। 

मैं आरती के मुख की कल्पना करने में लगा था कि कैसे उसने अपने सजल नेत्रों को अपनी ओढ़नी से पोछ कर यह कहा होगा। 

जब मैं लौट रहा था तब मेरी उदासी बढ़ गई थी। अगले दिन से शत्रु सेना ने अचानक गोलाबारी एवं फायरिंग शुरू कर दी थी। हमें उत्तर में कार्यवाही करना पड़ा था। पंद्रह दिन लगे थे जब शत्रु को सबक सिखाने के लिए हमें निरंतर मुस्तैद रह कर सख्त कार्यवाही करना पड़ा था। 

हमारी बटालियन से हमारे तीन साथी वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसी बीच मुझे सेना मुख्यालय से तीन दिनों के अंतर से दो बार सूचित किया गया था। मुझे, पहली बार पिताजी के एवं दूसरी बार माँ के देहांत की सूचना दी गई थी। सीमा पर हालात ऐसे थे कि बाबूजी एवं माँ के नहीं रहने पर भी मैंने छुट्टी की माँग करना उचित नहीं समझा था। अपनी ऐसी लाचारी और अपने पालकों को खोकर मैं अत्यंत भड़का हुआ था। 

देश के नैतिकता हीन अवसरवादी लोगों पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। जिन्होंने काला बाजारी और स्वयं के अधिक लाभ के लोभ एवं अन्य तरह से अपने हित साधने की कुत्सित भावना वशीभूत होकर, कोरोना पीड़ित लोगों के लिए सही व्यवस्था के हमारे सरकार के प्रयासों में सहयोग नहीं किया था। 

अपना यह गुस्सा मैंने शत्रु सेना पर उतारा था। दुश्मन के छह जवानों को मैंने अत्यंत निर्ममता से मारा था। इसे सेना में मेरी वीरता माना गया एवं मुझे तुरंत पुरस्कृत करने की अनुशंसा सरकार को भेजी गई थी। 

पंद्रह दिन से जारी सीमा पर बिगड़े हालात जब सुधर गए तो मेरे मांगने के पहले ही मुझे अवकाश स्वीकृत किया गया था। मैं गाँव पहुँचा था। मैं अत्यधिक व्यथित था। मेरे हर अवकाश पर मेरे घर पहुँचने की ममता से प्रतीक्षा करने वाले मेरे बाबूजी एवं माँ सदा के लिए जा चुके थे। 

अभी की लड़ाई में, मेरी वीरता के किस्से प्रदेश एवं गांव तक, मेरे पहुंचने के पहले पहुंच गए थे। इस कारण गाँव एवं आसपास के बड़ी संख्या में लोगों के साथ ही, प्रदेश के मुख्यमंत्री संवेदना देने मेरे गाँव आए थे। 

इस बड़ी भीड़ की प्रत्याशा में, सोशल डिस्टन्सिंग का विचार रख मेरे माँ-बाबूजी की तेरहवीं पर श्रद्धांजलि सभा बड़े मैदान में आयोजित की गई थी। इसी सभा में ही मुख्यमंत्री ने मुझे सम्मानित भी किया था। इस सभा में मुझे बोलने के लिए कहा गया था। मैं अत्यंत भाव विह्वल था। 

माइक के सामने पहले तो मैं 2-3 मिनट खड़ा रह गया था। मैं कुछ नहीं बोल पाया था। 

सभा में पिन ड्रॉप साइलेंस था। सब मेरे मुँह को ही तक रहे थे। तब मेरे व्यथित और रोष से द्रवित हृदय के रास्ते होते हुए, मेरे मुख पर यह शब्द आ पाए थे। मैंने कहा -

मेरे माँ-बाबूजी के संस्कार से मैंने नैतिकता, सिद्धांत एवं साहस की शिक्षा ली। आज मैं इस योग्य हूँ कि देश पर खतरा बनते प्रत्यक्ष शत्रु पर अपने मारक प्रहार से मैं, उनका वध कर देता हूँ। इस तरह से देश की सीमाओं पर आया संकट, टालने में मैं समर्थ रहता हूँ। 

आज चहुंओर प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकने वाले कुत्सित, नैतिकता विहीन, स्वार्थी एवं अमानवीय विचार, मेरे देशवासियों के मन पर हावी हैं। वे इस महामारी के समय में भी परस्पर सहयोगी कर्म नहीं कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मैं ऐसा अनुभव कर रहा हूँ। मुझे अपनी इस लाचारी पर अत्यंत क्षोभ है कि इन अदृश्य विचारों पर भी मैं, दुश्मन पर किए जैसे मारक प्रहार नहीं कर सकता हूँ। 

इन बुरे विचारों से दुष्प्रेरित मेरे बहुत से देशवासी, रोगियों की दवाओं एवं उपचार में भी अधिक से अधिक लाभ लिए जाने की जुगत में लगे हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि दवाओं सहित सभी दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर लागत से, कई कई गुना अधिकतम मूल्य अंकित होता है। यह कैसी राष्ट्र निष्ठा है कि इस विपदा काल में भी, अधिकतर निर्माता या विक्रेता अपना लाभ कम लेकर, एमआरपी पर डिस्काउंट देने का साहस और नैतिकता नहीं दिखा पा रहे हैं। उलटे इनकी कालाबाजारी करने में लगे हुए हैं। 

ऐसे राष्ट्र अहितकारी विचारों पर, मैं मारक निशाना साध पाने में असमर्थ हूँ। सब लोग समझते हैं कि देश की रक्षा सैनिक का ही दायित्व होता है। अपने माँ-बाबूजी को कोरोना में खोकर, मैं यह मानता हूँ कि देश रक्षा का दायित्व सेना से अधिक, सिविलियन का है। ये हमारी आगामी पीढ़ी को ऐसी घिनौनी परंपरा नहीं दें, जिसमें गिद्ध से अधिक, किसी मरे व्यक्ति को खुद मनुष्य ही नोच नोच कर खाने का दृश्य प्रस्तुत करता है। 

अगर देश में ऐसे विचार विद्यमान रहेंगे तो राष्ट्र सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकेगी। ऐसा चलता रहा तो देश को सुरक्षा देने वाली सेना के, सभी प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे। हम देश की सीमा तो बचा सकेंगे मगर देश की आत्मा नहीं बचा सकेंगे। आज देश एवं उसकी आत्मा की सुरक्षा, सैनिक के हाथों से अधिक सिविलियन के हाथ में है। 

कहकर मैं माइक पर ही बिलख कर रो पड़ा था।


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