फीके रंग
फीके रंग


फागुन का महीना प्रेम उमंग की बहार लिए था।लेकिन दीप्ति का मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था। हर ग्रुप में होली की तैयारीयों पर बातें चटखारेदार व्यंजनों की रेसिपीयां देखकर वह कमरे में लगी अपनी ओर सौरभ तस्वीरों को देख बेचैन और उदास हो रही उठी। होली का त्योहार जैसे-जैसे पास आ रहा था। वैसे-वैसे मन की तरंगे रंगीन होने लगी थी।सौरभ की याद उसे हर पल-हर क्षण बेचैन कर रही थी।वह पल-पल सौरभ के आने का इंतजार कर रहीं थी।शादी के बाद उसकी यह पहली होली थी। समाज की मान मर्यादा का सामना करते-करते अब वह थक चुकी थी।घरवालों को बिना बताए उसने सौरभ से शादी कर ली थी। पहली बार घर वालों से दूर और सौरव से दूर अकेले पुणे में रह रही दीप्ति आज बहुत ही अकेलापन महसूस कर रही थी। सौरभ भी अपने माता-पिता से मिलने लखनऊ चला गया था। आज दो माह से ऊपर हो चुके थे। हर बार फोन पर वही बातें यार थोड़ा सब्र करो। समय मिलते ही बात करता हूं... थोड़े दिनों की ही तो बात है..। वह जब भी मुँह खोलती तो सांत्वना के रस में पके गुलाब जामुन उठाकर सौरभ उसके मुंह में रख देता।
अब तो सारे ग्रुप पर फागुन के फुहारों के रंग दिन-ब-दिन चटक होते जा रहा थे। दीप्ति का अकेलापन उसे अवसाद की दिशा में ले जा रहा था। उसकी तन्हाई उसे ही डस रही थी।सोच रही थी कि माता-पिता से बात कर उनसे माफी मांग लू और अपने परिवार के पास वापस चली जा जाऊं। लेकिन अंतर्मन का ईगो उसे झुकने नहीं दे रहा था। ऊपर से सौरभ की चासनी में लिपटी हुई बातें उसे इंतजार करने पर मजबूर कर रही थी। तभी फोन बज उठा। कविता की आवाज सुन थोड़ा सुकून महसूस हुआ। वह कह उठी- "अरे होली पर अकेले क्या करेगी। तू मेरे यहां आ जा.... मेरे परिवार के साथ रहेगी तो तेरा मन भी लगा रहेगा। वह सोच ही रही थी। कि अकेले रहने से अच्छा है की कविता के साथ रह लूंगी। तो मन की उदासी थोड़ी कम हो जाएगी। यही सोच वह अपने सारे जरूरी काम निपटाने लगी। कविता के यहां जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थी। सौरभ को बता देना उसने अपना फर्ज समझा। यही सोचकर उसने सौरभ को फोन लगाया कहा- "मैं अपनी सहेली कविता के यहां दो दिनों के लिए जा रही हूं।आप अपने परिवार के साथ खूब रंग खेलो तुम्हारी वजह से मेरी जिंदगी के रंग फीके पड़ गए हैं।"तभी सौरभ ने उसे फिर वही शब्दों की चासनी चटाते हुए कहा- "डियर क्यों तुम ऐसा कर रही हो! क्या तुम्हें मेरे प्यार पर भरोसा नहीं।"दीप्ति तुनक कर बोली- "बस अब और नहीं, आखिर कब तक यूं ही अकेली जीती रहूंगी। प्यार किया है,शादी की है,कोई गुनाह तो नहीं किया! तुम्हें जो भी फैसला लेना है,अभी ले लो,मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता।" कहते हुए दीप्ति ने फोन पटक दिया। और बेमन से कपड़े अलमारी में रख अनमने मन से बेड पर रोते-रोते ना जाने उसे कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। डोर बेल बजी तो वह चौक उठी। इस वक्त कौन आया होगा यही सोच दरवाजा खोला दरवाजा खुलते ही सौरभ को अपने परिवार के साथ देख चौक उठी। यह कैसे संभव हो सकता है,क्या मैं सपने तो नहीं देख रही हूं।तभी सौरभ की आवाज उसके कानों पर पड़ी। "अरे अब अंदर भी आने दोगी या हम लोग यूं ही दरवाजे पर खड़े रहेंगे ।" कहते हुए उसे झकझोरा सबके हाथों में अलग-अलग उपहार देख उसके चेहरे का रंग चटक होने लगा।मन का मयूर झूमने लगा। सौरभ के माता-पिता के चरण स्पर्श कर अपनी छोटी ननंद को सीने से लगाकर फफक पड़ी। उसके जीवन के फीके रंग अब चटक होने लगे। शिकायत भरी आंखों से सौरभ को देख मुस्कुरा कर होली की तैयारी में जुट गई। यह फागुन उसके जीवन का विशेष फागुन था। सारे उपहार खोल वह होली की तैयारी में जुट गई।उसका चेहरा सौरभ के परिवार का प्रेम पाकर गुलाबी हो गया।
फागुन की बयार उसे सुखद अनुभूतियों से भर रही थी।