आसरा
आसरा


फ़ोन की घण्टी की घनघनाहट से अभय की निंद्रा भंग हुई। देखा तो मानसी का फ़ोन था। इस वक्त....?घड़ी देखी तो सुबह के छे बजे थे। मानसी उसकी बचपन की सहेली और पड़ोसन थी। पारिवारिक ताने-बाने में सदैव ही शीला का सहारा बनी थी। अभय ने बेमन से फोन उठा कर पूछा-"क्या हुआ मानसी इतनी सुबह फोन क्यो किया..?अनमने मन से की हुई बात मानसी समझ चुकी थी। कुछ जरूरी मैसेज था, इसी वज़ह से फ़ोन कर बैठी। अभय खीजते हुए, "बोलो यार सुबह का वक्त बर्बाद मत करो, काम की बात करो वैसे ही मेरे पास समय की कमी है, जिंदगी व्यस्तता से परेशान हूं। मुद्दे की बात सुनो, "काकी की तबियत ठीक नही है। , उन्हें हम हॉस्पिटल ले जा रहे हैं। तुम जल्दी आ जाओ। मानसी के शब्द सुन अभय और भी उहापोह में पड़ चुका था। किसी तरह सारे काम निपटाकर वह अपने पुराने शहर में आ गया। पत्नी बच्चो ने तो अपनी-अपनी व्यस्तता का राग आलाप लिया था। माँ की नजरे शायद उसी के आने के इंतजार में उम्मीद के चिराग जलाए बैठी थी।
एक अरसे से उसने अपनी बहूँ, पोतो का मुँह ना देखा था। जीवन के इस भाग-दौड़ में शीला तो जैसे बेसहारा सी हो गई थी। अपनो के होते भी अपनो के लिए मन की तड़प को अंतरमन में समेटकर बुझते चिराग में उम्मीद की आस का तेल डाल अस्पताल के दरवाजे पर बूढ़ी नजरे टकटकी लगाए थी। मानसी शीला के हरपल के क्षण-क्षण महसूस कर रही थी। वह अपने अंतरमन के भंवर पर संयम का चापू लगाए खामोशी से उनकी नजरो का समर्थन कर रही थी। डॉ ने जवाब दे दिया था। कह दिया था। अब कुछ नही हो सकता हैं। इनके सारे शरीर मे केंसर फैल चुका है। अब आप इन्हें घर ले जा सकते हैं। अस्पताल की खाना पूर्ति कर मानसी डिस्चार्ज पेपर लेने काउंटर की ओर गई। वह सोच रही थी। कि अंतिम समय मे यह जिम्मेदारी अभय निभाऐ। तो शायद जीते जी काकी को सुकून के कुछ पल मिल जाय। यह सोचकर वह काउंटर पर खड़ी थी। तभी नर्स की आवाज उसके कानों पर पड़ी। ग्यारह नम्बर रूम की बॉडी को जल्दी से डिस्चार्ज दो, नया पेशेंट आया है। मानसी नर्स के शब्द सुन चीख उठी। दो क्षण पहले तो काकी ठीक थी। वह बदहवास से रूम की ओर भागी।
देखा तो शीला काकी को श्वेत चादर से ढक दिया गया था।
अंतिम क्रिया के समय जब अभय घर पहुँचा। तो मोहल्ले के हुजूम देख कुछ समझ ना सका। इस मोहल्ले का पैतीस वर्षो का साथ माँ के हर सुख-दुख, में रहा था। मानसी अभय को देखते ही बोल पड़ी, -"अब आ रहे हो..?सब कुछ खत्म हो गया काकी चल बसी। अभय ने उखड़ते मूड से कहा-"क्या करता रात की ट्रेन थी , वह भी लेट हो चुकी थी, आ तो गया ना, मुझे क्या मालूम था। कि मुझे यह खबर सुनने को मिलेगी। मानसी तमकते हुए बोली-"बड़ी कम्पनी में अच्छे पोस्ट पर हो, हवाई यात्रा करते हो, आज ही ट्रेन से आना था। अभय बिना जवाब दिये ही अंदर चला गया। शीला को ले जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थी। उनका अंतिम संस्कार मोहल्ले वालों ने ससम्मान कर दिया था। अभय तो मात्र खाना पूर्ति की भूमिका में रहा। अब यह पुरातन मकान जो बाबूजी माँ के नाम कर गए थे। आज तक शीला का आसरा बना हुआ था। इसी मकान की वजह से अभय ओर उसकी पत्नी हमेशा शीला से रुष्ठ रहे। शीला ने जीते जी अपनी छत अभय के नाम नही करी। यही बात अभय को रास नही आई। वह अकेली अपनी परेशानियों से झुझती रही। आज अभय मन से बहुत ही खुश और प्रफुल्लित था। तभी उसकी नजर घर के चबूतरे पर बैठी एक अधेड़ महिला पर पड़ी।
वह अपनी लड़की के साथ वही बैठी आँसू बहा रही थी। उसने दुत्कारते हुए उस भिखारन सी दिखने वाली महिला को कहा-"ऐ बाई कल से देख रहा हू। की तुम कल से यहाँ जमी बैठी हो क्या चाहिए तुम्हे..?
जेब से पचास का नोट माँ के फोटो से न्योछावर कर उस अधेड़ महिला के गोद मे डाल दिया। फिर भी वह महिला वहाँ से जरा भी टस से मस नही हुई। अभय ने मानसी को आते देख पूछ बैठा..., "कौन है ये औरत...?"कल से देख रहा हूं यही बैठी हैं, तभी मानसी बोली, "अरे ये वही जमुना बाई है, इसी ने तुम्हे बचपन में गोदी में खिलाया था। सारी जिंदगी शीला काकी की सेवा की, बदले में कुछ नही मांगा। , तो अब क्या मांगने आई है, क्या इसको अपनी माँ की यह प्रोपर्टी दे दू, व्यंगात्मक हँसी के साथ अभय बोला। मानसी के चहरे पर क्रोध के भाव स्प्ष्ट नजर आ रहे थे। वह तमतमाते हुए बोली, "तुम्हे कुछ मालूम भी है, पिछले तीन सालों से काकी की दोनों किडनियां फैल हो चुकी थी। तुमने तो कभी माँ की सुध भी नही ली। इस गरीब जमुना ने अपनी एक किडनी काकी को दी। तभी वह साल भर से जीवित रही। नही तो वह पिछले साल ही गुजर जाती। अभय उसकी बात सुन सकते में आ गया। कहने लगा, "ठीक है, कुछ पिछले जन्मों का लेनदेन होगा, इसे हमे कुछ लौटना था।
तो लौटा दिया। कहते हुए, जेब से नोटों की गड्डी निकाल कर जमुना बाई के गोद मे डालते हुए सोच रहा था। इतने में तो माँ का कर्ज उतर ही जायेगा। गरीब की भूख तो पैसा ही है। तभी रुपये गोद से उठाकर जमुना बाई बोली , "भावनाओ से बने रिश्ते जात- पात नही देखते बाबू, माँजी के अनेकों उपकार है हम पर, हम उनके उपकार इस जन्म तो क्या, कोनो जनम नाही उतार सकत। माँजी ने हमार लड़की के अलावा पूरे निचले मोहल्ले की लड़कियों को शिक्षा देकर उन्हें नई दिसा दी गलत सही का ग्यान दिया। और अपने पैरों पर खड़ा किया। सिलाई, बुनाई सिखाई, पता नही तुम्हे वह सही सीख देने में कहा चुक गई। कहते हुए वह नोटो को गड्डी अभय को लौटाने लगी। माँ की प्रशंसा का गुणगान सुन अभय मानसी की ओर देखने लगा। तभी जमुना दहाड़े मार-मार कर रुदन करने लगी। और कहने लगी। "हम गरीबो की अन्नदाता हमे छोड़कर चली गई, हम तो बेसहारा हो गये, आसरा कोनो छत ही नही होता बाबूजी बिसबास , प्रेम, अपनापन भी होवे है, वह तो हमारी पूंजी हती। वह तो लूट चुकी अब का देत हो। हमार छोली तो हमेसा के लिए खाली हो गई। कहते हुए फफककर रो पड़ी। अभय इस ड्रामे को देख तिलमिला उठा।
मानसी की ओर कुपित निगाहों से देखते हुए बोला-"क्या झमेला है यार, हटाओ इसे दरवाजे से मुझे और भी काम है। कहते हुए अंदर आ गया। तभी उसका फ़ोन घनघना उठा। कामना का फ़ोन था। उधर से आवाज आई, सब कुछ ठीक- ठाक हो गया, सुनो बॉस से कहकर थोड़ी छुट्टियां बढ़ वालो प्रोपर्टी का सारा काम करके ही लौटना, में यहाँ सब मैनेज कर लूंगी।
कह कर उसने फ़ोन काट दिया। अभय ने सारी अलमारियां खंगाल ली उसे कही भी प्रोपर्टी के कागज नही मिले। उसका मन विचलित हो उठा। एक भय मन को व्याकुल कर रहा था। उसने मानसी को फ़ोन लगाया। उसने मानसी से पूछा-"मानसी तुम तो हमेशा माँ की परछाई बनी रही!"क्या तुम जानती हो माँ ने प्रॉपर्टी के कागज कहॉ रखे हैं?उसे शंका हुई कि कही मानसी ने माँ को बहलाफुसला कर इतना बड़ा मकान ना हड़प लिया हो। उसकी आवाज में शंका साफ बयां हो रही थी। चंद पलो में मानसी अपने क्रोध के उबलते आवेग को संभालते हुए आकर बोली-"क्या बात है, अभय क्या तुमने मुझे चोर समझा हैं, क्या?में भला तुम्हारी प्रॉपर्टी लेकर क्या करूंगी!ना मेने शादी की, ना मेरा कोई परिवार हैं, में तो अकेली हू!, मुझसे मेरा घर ही नही सम्भलता जो मेरे माता-पिता मेरे लिए छोड़ कर गए हैं। , में क्यो भला..…, कहकर अपराध बोध महसूस करने लगी। तभी उसने अपने पर्स से कुछ कागज निकले। अभय अचानक इन कागजो को छिनते हुए, "चोर की दाढ़ी में तिनका!"
ये ढकोसले के आँसू क्यू मैडम..?, पैसा किसे प्यारा नही होता, अकेले हो या दुकेले!जब उसने उन कागजो को खोलकर पढ़ा तो सारी प्रॉपर्टी गरीब कन्या सुधार छात्रावास के नाम बनाकर उसके लिगल केयर टेकर के रूप में मानसी का नाम दर्ज था। कागज पढ़ते ही सारे कागज अभय के हाथों फिसलकर जमीन पर बिखर गए। उम्मीदों का दामन खाली हो चुका था। वह अपना आसरा खो चुका था। यह आसरा अब उन गरीबो का आसरा गया था।
शीला ने सारी जिंदगी उनके आसरे ही व्यतीत की थी। मानसी गर्व से देखकर बोली-"अब क्या..?निरुत्तर खड़ा अभय अपना सामान समेट कर जाने लगा। उसमे देखा कि गरीब बस्तियों की
सारी लड़कियां एक कतार में अपने अश्रुपूरित श्रद्धा के फूल शीला के फोटो पर अर्पित कर रही थी। अभय माँ की फ़ोटो को ध्यान से देखते हुए निःशब्द हो अपना सामान उठा रहा था। उसे अपने किए का उत्तर आज मिल चुका था। कि उसने माँ की उम्मीद की आस को कभी पूरा नही किया। इसी वजह से आज उसकी माँ के आसरे की छत भी उससे छीन चुकी थी। वह मन ही मन पश्यताप के आँसू रो रहा था। वह आशा की चमक लेकर मानसी के करीब पहुँचा बोला-"मानसी क्या में भी तुम्हारे इस प्रकल्प में भागीदार हो सकता हूँ। जीते जी माँ की सेवा न कर सका। अब माँ के लक्ष्य की सेवा का एक अवसर मुझे भी देदो, शायद सही अर्थो में माँ को मेरी ओर से श्रद्धांजलि होगी। मानसी चहककर बोली-"बिल्कुल एक ओर एक ग्यारह होते है। पर क्या तुम्हारी बीवी को यह सब मंजूर होगा। कुछ सोच कर अभय बोला-" में अपनी जिम्मेवारीयो से भाग नही सकता। मगर सहयोग तो दे सकता हूँ। इस घर की माँ की दी हुई सीखो को हमेशा नजरअंदाज करने वाला अभय आज माँ के आसरे से जिंदगी की एक नई सीख लेकर वापस आने का इरादा बनाकर शहर की और प्रस्थान कर चुका था उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कुराहट साफ झलक रही थी।