फेमिनिज्म का शोर
फेमिनिज्म का शोर
ड्रॉइंग रूम में टीवी की ख़बरों के बीच चाय के साथ गपशप हो रही थी। टीवी में एंकर आज की औरतें और उनकी आज़ादी की बारें में कोई बात कह रही थी। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए वे अखबारों में छपी खबरों का भी हवाला दे रही थी।
इन्ही सब बातों के बीच मुझे अचानक कल की बात याद आयी जब मैं बस में गाँव जा रही थी। मई की तपती दोपहरी में मनरेगा में काम करते मज़दूरों को देखते हुए हमारी बस आगे बढ़ रही थी। मनरेगा में आम तौर सड़क बनाने का काम होता है। बस से झाँकते हुए पेड़ की छाँव में लेटे अपने नौनिहालों को एक नज़र निहारती उन मज़दूर औरतों पर मेरी निगाहें ठहर गयी... क्षण भर में ही मुझे वहाँ औरत और मर्द की तमाम तरह की 'बराबरी' दिखी.....
यहाँ दिखनेवाला फेमिनिज्म और औरतों की आज़ादी वाली बातें टीवी और अख़बारों के बरक्स मुझे कुछ उलटा ही नज़र आता है....
क्योंकि दिन भर मर्दों के साथ काम करनेवाली उन औरतों को फिर घर जाकर काम करना होता है....हमारी तरह मेड और नौकरों की फौज़ कहाँ होती है उनके पास ?
और तो और अपनी टूटी फूटी झोपड़ी से दिखते चाँद को वह बड़े मज़े से निहारती है। अपनी जिंदगी में न तो वह कोई आडंबर रचती है और न ही फेमिनिज्म का कोई शोर भी करती है...