फागुन
फागुन
(१)
कड़कड़ाती ठंड रुकी। पेड़ों पर नूतन पत्र कुछ रक्त और कुछ चटक हरे शोभा को बढ़ाने लगे। अब खेतों में भी काम में भी राहत थी। फागुन की शुरुआत के साथ ही हुरहारों का उत्साह माहौल को कुछ अलग ही रंग दे रहा था। यही तो ऐसा महीना था जबकि मस्ती में थोड़ी बहुत छेड़छाड़ भी जायज कही जाती थी।
गांव से बाहर खाली जगह पर होलिका माई की स्थापना की गयी। थोड़ी सी लकड़ियां और थोड़े से उपले रख विधिवत पूजन किया गया। पंडित जी के मंत्रोच्चारण से आसमान गूंज रहा था। इन थोड़ी सी लकड़ियों और थोड़े से उपलों की भी एक अलग ही कहानी थी। वैसे बड़ी होली भी रखी जा सकती थी। गांव के हर घर से कुछ लकड़ियों और उपलों को मांगा जा सकता था। पर इसमें वह आनंद नहीं था जो कि चोरी कर लायीं लकड़ियों और उपलों से होलिका माता के स्वरूप में विस्तार करने में था। अघोषित रूप से गांव बालों ने इस तरह की चोरी को स्वीकृति दे दी थी।
रात में जब गांव बाले गहरी नींद सो रहे होते, तभी कुछ युवक किसी न किसी के घर से चोरी करते और जो चोरी से मिलता, उसे होलिका माई को अर्पण करते। फिर सुबह किसी घर से गालियों की आवाज आती।
" कड़ी खाये। मेरे घर से इतना चोरी कर ले गये। अरे कुछ हिसाब से चुराते।"
दूसरी तरफ सत्ता बाबा का तख्त गायब था। उस तख्त के आस पास हर रोज महफिल लगती थी। वह तख्त होलिका माई की सेवा में लग चुका था।
पनघट पर पानी लेने जाती नवविवाहिता भी सकुचाकर किसी के रंग फेंकने का इंतजार करतीं। फिर बहुधा पानी भरने गयीं युवतियों और उन मनचलों के बीच बहस हो जाती। घर के लिये कम ही पानी आ पाता। युवतियां भी युवकों की जमकर खातिर करना जानती थीं। शोर शराबा सुनकर भी बुजुर्ग अपने कान बंद कर अपने जवानी के दिनों को याद करने लगते, जबकि वह भी गांव की भाभियों से होली खेलने का लुत्फ़ लेते थे। वैसे अभी भी उनकी भाभियां उन्हें रंग लगाती थीं। पर उसमें वह आनंद कहां। युवावस्था गुजरते ही सब औपचारिकता रह जाती है।
इस बार सुजान एकदम शांत था। हर साल उसके घर कोई न कोई शिकायत लेकर आता था। उसे ही चांडाल चौकड़ी का नेता माना जाता था। फागुन के महीने में सब कुछ हो रहा था, बस सुजान एकदम निस्प्रह बन गया था। उसके माता-पिता भी शिकायतों के अभाव में कुछ दुखी से थे। यह भी एक विचित्र बात है। जब बेटे की शिकायत आतीं तब फटकारने में कम न पड़ते। पर इस बार सुजान का अलग व्यवहार मन को व्यथित कर रहे रहा था। पता नहीं क्या यह एक बड़े तूफान से पहले की शांति थी।
पिछली साल सुजान का उत्साह कुछ अलग ही था। आखिर क्यों न हो। उसका पड़ोसी भाई रमतो की नयी शादी जो हुई थी। सुंदरियां वास्तव में बहुत सुंदर थी। रमतो की माॅ रज्जो फूली न समा रही थी। इतनी सुंदर दुल्हन गांव में पहली बार जो आयी थी। हुरियारों का हुजूम हर रोज रमतो के घर का दौरा करता। सुंदरिया को रंग लगाये बिना न मानता। युवा आसानी से हटने का नाम न लेते। फिर अंत में जब रज्जो एक मोटा सा डंडा लेकर उन्हें खदेड़ती। आगे हुरियारों की भीड़ और पीछे गालियां देती रज्जो। गांव बालों का मुफ्त का मनोरंजन हो जाता।
वहीं सुंदरियां के चेहरे पर भी एक मुस्कान आ जाती। जिसे देख रज्जो का गुस्सा काफूर हो जाता। बहुरिया को दुआओं से नवाज वृद्धा घर में घुसती थी।
समय बदलते देर नहीं लगती। दुल्हन के हाथ गंदे न हो जायें, इस भय से सुंदरिया से काम भी न कराने बाली रज्जो ताई के घर अब सारा काम सुंदरियां ही करती है। कभी उसकी सुंदरता के चर्चे थे तो आज सभी उससे दूर भागते हैं। मानो कि वह कोई छूत की रोगिणी है। जो उससे दूर हो सकता था, वह दूर हो गया। पर रज्जो ताई, वह कैसे दूर होतीं। हो सकती थीं अगर सुंदरिया के मायके में भी कोई होता। फिर खुद के इलाज के लिये दिन भर सुंदरिया को भर सर गालियां देतीं। कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देतीं। जानती थीं कि इसमें इस अबोध बालिका की कोई त्रुटि नहीं है।
फिर वही प्रश्न बार बार मन को दग्ध करता। यदि सुंदरिया का दोष नहीं तो किसका है। विवाह से पूर्व रमतो कभी बीमार नहीं पड़ा। कभी उसे एक इंजेक्शन भी नहीं लगाया गया। और सुंदरिया के आगमन के बाद.... ।सचमुच सुंदरिया का ही दोष है। मैं भी मूर्ख... इसकी सूरत पर रीझ गयी। सूरत से ज्यादा तकदीर जरूरी है। आज सूरत खुद रो रही है। साथ बालों को रुला रही है। और रमतो... ।उसकी बात मत करो। निर्मोही...। छोड़ कर चला गया। कहीं दूसरी दुनिया में।
(२)
एक साल से थोड़ा ज्यादा ही गुजरा था जब रमतो की बरात में जाने का नौता आया था। सुजान का मन बल्लियों उछल रहा था। पर ऐन बक्त पर उसके अरमान मिट्टी में मिल गये। वास्तव में यह हर जिम्मेदार व्यक्ति की कहानी है। चाहे घर हो या कार्यक्षेत्र, कुछ के जिम्मे बस जिम्मेदारी ही आती हैं। फसल को समय पर पानी देना जरूरी है। जिस समय सुजान के हमउम्र रमतो की शादी में नाच रहे थे, उस समय सुजान उदास हो अपने खेतों पर बैठा सिचाई की व्यवस्था कर रहा था।
वैसे इस बारे में सुजान के घर बालों की भी पूरी गलती नहीं थी। वैसे सुजान के बारात में जाने की पूरी तैयारी थी। पर ऐन मौके पर जब रज्जो ताई ने सुजान के बाबूजी से हाथ जोड़ अनुरोध किया। पिता रहित रमतो की बरात में चाचा तो रहना ही चाहिये। फिर सुजान की बरात की टिकट कट गयी। वैसे भी यह कोई सरकारी नौकरी तो नहीं थी कि महीने के अंत पर बंधी तनख्वाह आती रहे। किसानों की खेती तो तब सार्थक होती है जबकि फसल की बाजिद कीमत मिल जाये। खेतों में खड़ी फसल तो विधाता की होती है जिसे किसान अपने पुरुषार्थ से अपनी बनाता है।
बरात से वापस आये युवकों के मध्य सुंदर दुल्हन की चर्चा थी। सुजान का मन भी एक बार दुल्हन को देखने का था। सुंदरता को देखने की इच्छा सभी को होती है। पर यह संभव न था। पर जल्द संभव हो गया। फागुन का महीना सुजान के लिये अवसर लेकर आया। सिंदुरिया भाभी से होली खेलने के बहाने खोजे जाते। होली का त्यौहार सुजान और सुंदरिया को कुछ नजदीक ले आया। हालांकि इस नजदीकी में कुछ भी अपवित्रता न थी।
कभी कभी सुजान के मन में रमतो के लिये ईर्ष्या भी उठती। खुद कैसी बेढंगी शक्ल सूरत का। और दुल्हन इतनी सुंदर। सचमुच कभी कभी ईश्वर कुछ नहीं देखते हैं। पर लड़की के घर बालों को तो देखना चाहिये।
सुंदरिया के घर बालों में था ही कौन। बचपन में ही उसके माॅ बाप गुजर गये। एक अनाथ लड़की। रिश्ते के चाचा चाची ने पाली। एक नौकरानी जैसी स्थिति में। शायद रमतो के लिये रिश्ता भी सुंदरिया का नहीं आया था। अच्छी खेती के मालिक रमतो के लिये रिश्ता तो सुंदरिया की चचेरी बहन का आया था। पर जब रज्जो ताई लड़की देखने गयीं तो सुंदरिया की सुंदरता पर रीझ गयीं। दूसरी तरफ चाचा की लड़की को रंग रूप में कम रमतो पसंद नहीं था। इस तरह सुंदरिया इस गांव की बहू बन गयी।
विचारों के सागर में गोता खाते सुजान को फिर उसका मन धिक्कारने भी लगता। आखिर रमतो में क्या कमी है। अच्छा खासा लड़का है। पूरा दो सौ बीघा जमीन का मालिक है। दुल्हन से बहुत प्रेम भी करता है। ताई भी बहू पर जान लुटाती है। केवल सुंदरता का क्या मोल। मुख्य तो सम्मान है। सुंदरिया के लिये रमतो से अच्छा दूल्हा भला कौन हो सकता है। कोई भी तो नहीं।
वैसे गांव की बहू के नाते सुंदरिया ज्यादातर पर्दे में रहती। पर कुछ समय रज्जो ने ही उसे छूट दी तो वह एक हँसती खेलती गुड़िया की तरह गांव के दूसरे घरों में भी आने जाने लगी। रज्जो ताई सचमुच क्रांतिकारी थीं। व्यर्थ परिपाटी को मिटाना जानती थीं। विरोध का प्रति उत्तर देना जानती थीं। और सुंदरिया अपनी वाणी की मिठास से ही विरोधियों के तेवर ढीले कर देती।
सचमुच समय ज्यादा तेज गति से आगे बढ़ता है। अब फिर से फागुन आया है। गांव में होली की धूम है। पर गांव में क्रांतिकारी के रूप में जानी जाती रज्जो ताई अब कठोर से भी ज्यादा कठोर सास हैं। उनके शब्द कोश में अब बहू के लिये गालियों की एक लंबी सूची है। कभी बहू की आंख में आंसू न देख सकने बाली रज्जो ताई को अब खाना ही तब पचता है जबकि सुंदरिया की आंखें रो रोकर लाल न हो जायें।
सचमुच विधाता अधिक निष्ठुर है। दुखी के जीवन में कुछ क्षणों के लिये सुख देकर फिर दारूण विपत्ति दे देता है। उससे भी अधिक दुखद है कि इनका प्रतिकार करने बाला कोई नहीं है। जब हमेशा सच के साथ रहने बाली रज्जो ने ही झूठ का दामन पकड़ लिया तब फिर किसी अन्य से क्या उम्मीद। उम्मीद का सूरज अस्त हो चुका है। पर शायद फिर से उदित होने की तैयारी कर रहा है। यदि यह सत्य नहीं तो सुजान को विकलता क्यों। पूरा गांव होली के रंग में डूबा हुआ है। वहीं वह भी डूबा है एक प्रेम की दरिया में। जहाँ उसके प्रेम की पात्रा गुजर रही है दारुण परिस्थितियों से। उससे बिना कुछ कहे भी उसे पुकार रही है। पर वास्तव में इस पुकार को सुन उसपर प्रतिक्रिया करना कब आसान है। यह तो खुद एक क्रांति है। अभी तो सुजान का मन क्रांति लाने या तटस्थ रहने के निर्णय के मध्य झूल रहा है। कभी उसे क्रांति पुकारती है तो कभी स्वार्थ रूपी तटस्थता।
(३)
गांव से ठीक उत्तर की दिशा में मुख्य मार्ग जो उसे नजदीकी कस्बे से जोड़ता, कुछ वक्र गति से आगे बढ़ता, दांयी और बांयी और छोटे छोटे रास्तों को जोड़ता जाता। उसी मार्ग पर लगभग आधा किलोमीटर की दूरी के बाद बांयी और की तरफ एक दगरा जो एक छोटे से जंगल की और जाता था। जंगल का अर्थ रीछ, शेर जैसे जंगली जानवरों के निवास स्थान से अलग एक सरकारी जगह जहाँ घने पेड़ थे। वैसे सरकारी संपत्ति तो जनता की ही माननी चाहिये। इसीलिये पूरे गाँव के लोग इसी जंगल से ईंधन जुटाते। उसी जंगल और मुख्य मार्ग के मध्य दगरे के एक किनारे पर एक चबूतरे के ऊपर एक कुछ कच्चा, कुछ खपरैल का आशियाना जिसमें द्वार पर कोई फाटक भी न था। वैसे फाटक की जरूरत ही किसे थी। मढ़ैया में रहने बाले बाबा के पास ऐसी क्या संपत्ति थी कि कोई चुराता। उसी जंगल के फलों और कंदमूलों से अपना जीवन चलाता, गांव से दूर रहकर भी दूर न था। पिछले दस सालों या उससे ज्यादा समय से भी वह सन्यासी यहीं था। हालांकि यह मढ़ैया उसका आरंभ से निवास स्थल न थी। आरंभ में गांव के मंदिर में उसे श्रद्धा से जगह दी गयी थी। मंदिर में भगवान की उचित समय पर सेवा हो जाती। पर ऐसा अधिक दिनों तक न चल पाया। बाबा का नाम भले ही कोई नहीं जानता था। पर एक दिन पाखंडी, धूर्त, छली जैसे बहुत से नाम देकर उसे मंदिर से भगा दिया गया। पर वह भी अपनी जिद का पक्का, कहीं गया नहीं।
बाबा को कभी किसी ने कोई धार्मिक पुस्तक पढ़ते न देखा था। उसके संग्रह में कोई पुस्तक भी न थी। पर विभिन्न धार्मिक विषयों पर उसका ज्ञान अपार था। हालांकि अब उसका वह ज्ञान किसी काम का न था।
पाखंडी बाबा पाखंडी किस तरह है, इसका किसी के पास कोई उत्तर न था। उसने कब कौन सा धर्म विरुद्ध कार्य किया था, इसका भी कोई उत्तर नहीं। धूर्त ने कब कहाँ अमर्यादित आचरण किया था, यह प्रश्न भी गौण था। फिर भी इसके ये नाम सत्य थे। आखिर उसने मुखिया की बेटी के प्रेम को जायज कहा था। मुखिया की बेटी और सोनू किसान के प्रेम को स्वीकार कराया था। दोनों के प्रेम की परिणति अपने ज्ञान जिसमें विधिक ज्ञान भी था, के उपयोग से संयोग में करायी थी। उसके बाद से ही वह गांव बालों के आंख की किरकिरी बन गया। ऐसा क्या सन्यासी जो दुनिया दारी में ही रमा रहे। प्रेम, शादी, विवाह सब संसार के ही प्रपंच हैं। सन्यासी खुद इन प्रपंचों से ऊपर होता है और दूसरों को ऊपर उठाता है।
वैसे रज्जो इस विषय में ज्यादा कुशल थी। पता नहीं कैसे उसे बाबा के कपट रूप का सबसे पहले पता चल गया। आरंभ से ही वह बाबा की विरोधी थीं। जब तक बाबा मंदिर में रहा, वह मंदिर न आयीं। और बाबा के मंदिर से हटते ही उसने खुद पवित्र गंगा जल से मंदिर को साफ किया। जैसे कि उसकी संगत में भगवान खुद अपवित्र हो गये हों।
अब बाबा गांव से बहिष्कृत जरूर थे। गांव का कोई भी उनसे संबंध नहीं रखता था। पर क्या यह सत्य था। शायद नहीं। प्रेम में साथ जीने और मरने की कसम खाने वालों का खेवनहार बाबा ही था। मुखिया की बेटी के बाद भी आस पास के गांवों में जब भी कोई प्रेम कहानी अपना लक्ष्य पाती तो उसका एक श्रेय पाखंडी बाबा को जरूर जाता। प्रत्यक्ष में भले ही कोई बाबा का आदर न करे, पर सत्य यह भी था कि बाबा की मढ़ैया किसी न किसी प्रेम पथिक को उसका मार्ग दिखाती ही रहती थी।
कुछ दिनों आनाकानी करने के बाद आखिर सुजान भी रात्रि टोली के साथ निकला। कुछ घरों से लकड़ियां उठायीं। फिर चुपचाप एक तरफ निकल गया। साथ बाले युवक भी कुछ भ्रम में थे। कुछ समय बाद उसके वापस घर लौट जाने की ही संभावना थी। ऐसी कौन कल्पना कर सकता था कि आज की रात सुजान के कदम उस मढ़ैया की तरफ बढ़ रहे हैं, जिसे पाखंड का केंद्र माना जाता था। सुजान भी अभी तक यही मानता था। पर अब उसका मन उसे वहीं खेंचे ले जा रहा था। वहीं से अपनी राह तलाशना चाहता था।
(४)
भगवान सूर्य नारायण आसमान तक आ गये और सुजान अभी तक बिस्तर पर ही था। रात बहुत देर में वह अपने घर आया था तो जगने में देर हो गयी। वैसे सच्ची बात तो यह थी कि उसे नींद ही सुबह के समय आयी थी। ज्यादातर समय तो वह बिस्तर पर करवट बदलता रहा था। ज्यादातर समय वह बाबा की बातों की समीक्षा कर रहा था। वैसे वह खुद उन बातों को सही मान रहा था फिर भी उसका साहस उसका साथ नहीं दे रहा था। बड़े से बड़े सांड़ को फसल से भरे खेत से भगाने का साहस रखने बाला युवक अपनी प्रेम की राह पर आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पा रहा था। सचमुच मुख्य साहस तो विचारों को मूर्त रूप देने में है। फिर उसे तो दूसरे प्रेमियों से भी अधिक साहस दिखाना हो सकता है। प्रेम की अधिकांश कहानियाँ छोटे बड़े, मजहब और जाति के बंधनों में बंध अपना अस्तित्व भुला देती हैं। पर सुजान की प्रेम गाथा तो एक ऐसी गाथा थी जिसकी पात्रा ही वैधव्य का दंश भोग रही थी। खुद निर्दोष होने पर भी अपनी पति की मृत्यु की दोषी समझी जा रही थी।
सुजान के सामने बार बार सुंदरिया का चेहरा आता। जिस दिन रमतो भैय्या बीमार हुए थे, वही तो उन्हें अस्पताल लेकर गया था। साथ में सुंदरिया भी जिद कर चली थीं। पूरे मार्ग अपने पति का माथा दबाती रहीं। पर विधि का विधान कि जैसे ही टैक्टर अस्पताल के द्वार पर रुका, रमतो भाई इस संसार से विदा हो गये। फिर सुंदरिया के रुदन से कस्बे का आकाश गूंज रहा था।
सोते सोते सुजान को रमतो भाई भी दिखे। एकदम कमजोर और उदास से। सुजान को उनके पास जाने में भय लगा। सुना है कि मृतक मन की बात जान लेते हैं। और अब मन की बात मन में तो रही नहीं। कुछ घंटे पूर्व ही तो बाबा से वह अपने प्रेम के विषय में बोल रहा था। कहीं रमतो भाई इससे नाराज तो नहीं हो गये।
रमतो सुजान से वास्तव में नाराज था। पर सुंदरिया से प्रेम करने के लिये नहीं। प्रेम करने के बाद भी उसे पल पल तड़पते देखने के लिये।
मान मर्यादा और परिपाटी संभवतः इस संसार का ही विषय है। कुछ अपरिहार्य कारणों से निर्मित ये परिपाटियां कई बार मनुष्य को इस तरह बांध देती हैं कि सांस लेना भी कठिन होता है। आत्मा तो शुद्ध, आनंदमय और बंधन मुक्त होती है। फिर आत्मा कब किस तरह किसी को बंधन में डालने बाली परिपाटी का समर्थन कर सकती है। शुद्ध आत्मा केवल प्रेम फैलाना ही जानती है।
विगत दसियों वर्षों से सुजान भी बाबा को गलत मानता आया था। पर आज उसे लग रहा था कि बाबा गलत कहाँ है। प्रेम तो ईश्वर का रूप है। प्रेम ही पूजा है। सत्य तो यही है कि खुद ईश्वर के अवतार कथाओं का सार भी तो प्रेम ही है।
फिर अब सुजान अपनी प्रेम गाथा को आगे बढ़ाने को तैयार था। दिन में उसे मौका भी मिल गया। सुंदरिया पानी भरने जा रही थी। कभी अपनी हंसी से रौनक करने बाली सुंदरिया यत्न पूर्वक खुद को रोने से रोके हुए थी।
" सुंदरिया.. आ.. आ भाभी ।"
पति के निधन के बाद पहली बार सुंदरिया को किसी ने आवाज दी थी। हमेशा सुजान के मुख से खुद को भाभी सुनती आयी सुंदरिया के लिये उसके नाम से पुकारा जाना दूसरा बड़ा अचरज था। वह रुके या न रुके, इसका निश्चय भी नहीं कर पा रही थी। विधि की त्रासदी झेलती आयी एक बाला स्वयं को ही एक त्रासदी समझने लगी थी। फिर उचित है खुद ही उस त्रासदी को झेलना। स्वयं की त्रासदी में किसी अन्य को साझी बनाना सुंदरिया को उचित न लगा।
सुजान की बात को अनसुना कर आगे बढ़ती सुंदरिया को सुजान से आगे बढ़कर रोक लिया। फिर एक तरफ से अपने मन के जज्बात बोल दिये। सुजान नहीं जानता था कि इसका क्या परिणाम होगा। सुंदरिया सुनकर अनसुना न कर पायी। उसके नैत्रों से अश्रु विंदु उसके गालों पर लुढ़कने लगे। सुजान समझ न पाया कि यह उसके प्रेम निवेदन की स्वीकृति है अथवा अस्वीकृति।
जैसे सूखी घास में जरा सी अग्नि फैल जाती है, उसी तरह एक विधवा के लिये किया प्रेम निवेदन और विधवा द्वारा उस निवेदन को सुनते रहना जंगल में फैली अग्नि की भांति फैल गया। रूढ़िवादिता की अग्नि एक घर से दूसरे घर तक फैलती गयी।
सुजान को उसके घर कड़ी फटकार मिली तो दूसरी तरफ रज्जो ने सुंदरिया की जमकर पिटाई की। वैसे भी अब उसके हाथ सुंदरिया पर ज्यादा बरसते थे।
सुजान एक शिष्ट और संस्कारी बालक, इस तरह कैसे। संदेह की सुई एक बार फिर से ढोंगी बाबा की तरफ उठी। कल रात सुजान के साथियों ने जब पुष्ट कर दिया कि रात में सुजान उसके साथ अधिक देर न था, फिर क्या था। गांव के युवक को विधवा से इश्क लड़ाने की शिक्षा देने बाले बाबा को उचित शिक्षा देने को बहुत लोग तैयार थे।
कुछ देर बाद मढ़ैया में बाबा के चीखने की आवाज गूंज रही थी। इतने अपमान और दर्द को सहकर भी बाबा कहीं जाने को तैयार न लगा। थोड़ी देर बाद दर्द से कराहते हुए धीरे धीरे उस टूटी मढ़ैया को फिर से सही कर रहा था। हालांकि इस समय उसका शरीर साथ नहीं दे रहा था।
(५)
आधी से अधिक रात गुजर गयी। पूरा गांव गहरी नींद में सो रहा था। आज दिन में जो स्थिति आ गयी, उसके बाद युवाओं का मन भी कुछ व्यथित था। सत्य बात तो यही है कि युवाओं का चिंतन अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत होता है। आखिर सुजान उनका मित्र था। फिर उत्साह हीन हुरदंगी युवा समाज भी आज रात्रि शांत था। कुछ समय पूर्व तक गांव के कुत्ते भोंक रहे थे। फिर संभवतः वे भी गहरी नींद में सो गये। शांति में झींगुरों का शब्द भी स्पष्ट सुनाई दे रहा था।
इस रात्रि में जबकि पूरा गांव गहरी नींद में सो रहा था, गांव में तीन ऐसे थे जिनसे आज निद्रा देवी ने दूरी बना ली थी। सुजान प्रेम का वह पुजारी, जिसने आज ही अपनी पूरी इच्छा शक्ति से प्रेम यज्ञ में अपनी आहुति दी थी, नींद से कोसों दूर था। सुंदरिया के मन की अपने अनुसार विवेचना कर रहा था। बाबा का कथन उसे सत्य लग रहा था। स्त्रियाँ अक्सर अपने मन के प्रेम को छिपाती हैं। अक्सर खुद अपने मन को भी धोखा देती हैं। सचमुच सुंदरिया की आंखों में किसी तरह की कोई अस्वीकृति तो नहीं थी। सुंदरिया उसके प्रस्ताव पर उसे फटकार सकती थी। पूरी बात सुनने से पूर्व भी बोल सकती थी। सुना है कि रज्जो ताई ने उसे बहुत पीटा भी है। फिर भी उसका मेरे विपक्ष में कुछ भी न बोलना, यही तो सिद्ध कर रहा है कि वास्तव में प्रेम ने उसके मन को भी वश में कर लिया है।
दूसरी तरफ सुंदरिया को भी नींद नहीं आ रही है। वह खुद अपने मन से प्रश्न कर रही थी। उसने सुजान की पूरी बात सुनी ही क्यों। क्या उसका मन भी सुजान के लिये डांवा डोल है। लगता तो यही है। फिर भी सत्य स्वीकार नहीं करना चाहिये। एक स्त्री को अपने मन का करने का क्या अधिकार। फिर मन की बात सुनने का क्या प्रश्न।
गांव से बाहर मढ़ैया में बाबा दर्द से कराह रहा था। ऐसे दर्द में भला कैसे सो पाता। उसके कराहने की ध्वनि से वह निर्जन स्थल गूंज रहा था। संभव है कि उसका मानस बाह्य रूप से भी अधिक जोर से कराह रहा हो। शरीर की तुलना में मन का दर्द ज्यादा असह्य होता है। फिर जब शरीर में भी दर्द हो तब मानस जीवन के कितने ही दर्दों का एक साथ अनुभव करने लगता है। पूरे जीवन के मानसिक दर्द जब एक साथ उठने लगते हैं, उस समय शरीर की पीड़ा कुछ भी नहीं लगती।
इन सभी के जगते रहने का कारण था। सभी अपने अपने दर्द से गुजर रहे थे। पर रज्जो के जगते रहने का क्या कारण हो सकता है। आज तो उसने बहू की जमकर धुनाई भी की है। इससे तो उसके मन को अलग शांति ही मिलनी चाहिये। पर रज्जो की यह अशांति क्यों। क्या यह पश्चाताप की अग्नि थी। क्या उसका मन अपने पुराने मत को झुठला रहा था। क्या उसे सुंदरिया पर दया आ रही थी। अथवा क्या वह रहस्य उससे भी अधिक रहस्यमई था जितना कि कोई अनुमान लगा सकता है।
(६)
फागुन के महीने में दो सखियाँ हँसी ठिठोली कर रही थीं। वैसे इन दोनों के मध्य एक रिश्ता भी था। इनमें से एक दूसरी की भाभी थी। पर दोनों ने कभी भी खुद को भाभी ननद के रिश्ते में नहीं बांधा था।
शाम होने को आयी। हुरहारे युवक होली के गीत गाते हुए निकले। टोली का पक्का इरादा था। आज तो जमुना भाभी के साथ होली खेलनी है। अभी तक यह संभव नहीं हो पा रहा था। भाभी की सखी उनकी ननद राजवती हमेशा उसकी रक्षा में लट्ठ लिये तैयार रहती थी। वैसे राजवती की एक बात सही थी। ये हुरियारे पूरे दिन क्या करते हैं। शाम को ही इन्हें भाभी के साथ होली खेलनी है। होली खेलिये। पर समय देखकर।
वास्तव में हुरियारे युवकों की मंशा भी यही थी। रंग लगाने का असली मजा तो तभी है जबकि रंग लगा व्यक्ति फिर से नहाये। वे खुद तो दिन भर नहाते नहीं थे। पर स्त्रियों के लिये यह कैसे संभव है। आखिर घर की व्यवस्था उन्हीं के तो हाथों में होती है।
आज फिर से राजवती की उनसे झड़प हो गयी। आखिर रंगों की होली लट्ठ मार होली में बदल गयी। राजवती की लाठी कन्हैया को लग गयी। वह लंगड़ा कर गिरा तो अपना संयम खो गया। पास पड़े पत्थर पर उसका सर लगा और सर से खून की एक धारा निकली।
राजवती का गुस्सा काफूर हो गया। तुरंत घर से मलहम लेकर आयी। कन्हैया के सर पर दवा से ज्यादा कुछ और असर हो रहा था। एक युवक और युवती नजदीक आ रहे थे। और दोनों के मानस पर कुछ अलग ही अनुभव हो रहा था।
कन्हैया शहर में पढा लिखा, परंपराओं में सही और गलत तलाशता युवक धीरे धीरे राजवती के मानस में छाने लगा। होली आते आते दोनों एक दूसरे के मित्र बन गये। गांव की व्यवस्था से आगे बढने लगे। संभवतः दोनों प्रेम की पवित्र डोर से भी बंध गये।
कितनी ही प्रेम कहानियों की तरह यह कहानी भी कब पूर्ण हुई। दो प्रेमियों का मिलन कब हुआ। यदि हुआ तो आज रात भी रज्जो किस की याद में अपनी नींद भुला रही है। जीवन में सब कुछ पाकर भी वह खुद को किस तरह खाली हाथ महसूस कर रही है।
" शहर से लड़का कुछ जादू टोना सीख आया है। उसी टोटके से लड़की को वश में कर रहा है। अपनी औकात भूल रहा है। पर हम ऐसा नहीं होने देंगें। लड़की के लिये ऐसा वर ढूंढेंगे कि खुशियों में लड़की इस जादू टोने के इश्क को ही भूल जायेगी।"
मां ने कहा। और रज्जो ने सच मान लिया। वैसे वह प्रतिवाद ही कब करती थी। उस दिन उसे कन्हैया पर गुस्सा आया। शहर में पढ़कर गांव की भोली भाली युवतियों पर अपनी विद्या का प्रयोग करता है। चल तेरी विद्या तुझे मुबारक। अब हम तेरी याद भी नहीं करेंगे।
बस भाभी थी जो इसे टोटका नहीं मानती थीं। इसे प्रेम मानती थीं। मानती थीं कि प्रेम को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
रज्जो आज तक कन्हैया को भुला नहीं पायी। हालांकि हमेशा उसकी याद को एक टोटका समझने का भ्रम बना लिया है। वैसे यह भ्रम भी अच्छा ही रहा। तभी तो वह एक सुखद पारिवारिक जीवन जी पायी। तभी तो वह अपने ससुराल में सभी की चहेती बन पायी। पर आज भी वह कभी कभी विचार करती है कि शायद वह प्रेम ही था। जो आज भी उसके मानस को विदीर्ण कर रहा है। आज भी उसके कानों में कन्हैया का वह विश्वास भरा व्यक्तव्य सुनायी देता है।
" रज्जो। यह कोई टोटका नहीं है। यह प्रेम ही है। जीवन के आखरी लम्हे तक तुम्हीं से प्रेम करूंगा। सचमुच यह प्रेम कभी मरता नहीं है। एक दिन तुम खुद ही मुझसे कहोगी कि वास्तव में यह प्रेम ही था।"
अभी भी रज्जो कन्हैया के प्रेम को नकार रही थी। मन में जबरन भरी धारणा को छोड़ नहीं रही थी। फिर भी प्रेम की एक छाया खुद के पास महसूस कर रही थी। सुजान और सुंदरिया के प्रेम के रूप में। अफसोस कि एक और प्रेम कहानी अपूर्ण रहने जा रही थी। अपूर्ण होने से पूर्व रज्जो के मानस को झकझोर रही थी। अपने अस्तित्व के लिये जद्दोजहद कर रही थी। एक अपूर्ण प्रेम कहानी की नायिका से बढ़कर ऐसा कौन है जिससे एक प्रेम कहानी अपनी पूर्णता की गुहार लगा सकती है।
पूरी रात रज्जो इस नवीन प्रेम कहानी के अनुरोध को सुन अनसुना करती रही। पूरी रात इस प्रेम को भी एक छलावा समझती रही। पर छलावा था ही कहाॅ। सुजान एक देहाती सीधा साधा युवक और सुंदरिया भी तो उसका ही चयन थी। पुत्र वियोग में उसने सुंदरिया पर जितने अत्याचार किये, क्या वे सुंदरिया पर किये थे। नहीं। सुंदरिया को वह खुद से प्रथक कब मान पायी। आज भी उसे सुंदरिया अपनी ही परछाई लग रही थी। वही युवती राजवती लग रही थी जो अपने प्रेम को समझ नहीं पायी।
सूरज की किरणें धरती पर आयीं। आज रज्जो कुछ बदली हुई लगी। सबसे पहले उसने सुंदरिया को गले लगाया। फिर आंसुओं की बारिश कर दी। सुंदरिया से कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं। जब वह सुंदरिया को खुद का ही स्वरूप मानती है तो खुद के विषय में किसी से क्या पूछना।
गांव में एक बार फिर से उसी क्रांतिकारी रज्जो की वापसी हुई। एक स्त्री की क्रांति के समक्ष समाज कब तक टिक पाता है। होली का दिन आ पहुंचा। गांव की होली जो एक विशाल रूप ले चुकी थी, में अग्नि प्रज्वलित होने के तुरंत बाद सुजान और सुंदरिया भी परिणय सूत्र में बंध गये। अपूर्ण प्रेम कहानी कब अपूर्ण रहती है। अपूर्ण प्रेम कहानियों को पूर्णता प्रदान कर पूर्ण होती है।
छिटपुट विरोध के बाद गांव में फिर से वही होली खेली जा रही थी। गांव के युवक एक बार फिर से सुंदरिया भाभी को रंग लगा रहे थे। और रज्जो। वह गांव में कहाॅ। वह तो भागी जा रही थी, उसी दगरे की तरफ जिसके एक तरफ मढ़ैया में वह ढोंगी बाबा रहता था।
(७)
जिस दिन बाबा को गांव बालों ने सुजान को भड़काने के लिये पीटा था, उसी दिन से बाबा दर्द के कारण तड़प रहा था। वैसे उसे जंगली औषधियों का ज्ञान था। फिर भी उसका ज्ञान सार्थक नहीं हो पाया। बुढ़ापे के अतिरिक्त चोटिल शरीर भी उसके उद्देश्य को असफल बना रहा था। दिन पर दिन गुजरते गये। दवा तो दूर अपितु भोजन के भी अभाव में अब उसके प्राण ही विदा होने को तैयार थे। फिर भी न जाने कौन सी इच्छा शक्ति उसे जिंदा रखे हुए थी।
होली के एक दिन पूर्व से ही उसे तेज बुखार आ गया। बुखार में अक्सर मनुष्य चेतनाशून्य हो जाता है। कभी कभी वह ऐसी ऐसी बातें भी बड़बड़ाता है जिसका वास्तविक जीवन में कोई अर्थ नहीं होता। ऐसे ऐसे दृश्य देखने लगता है जिन्हें मैडिकल विज्ञान मात्र रोगी के अवचेतन मन की कल्पना कहता है।
बाबा की भी रात से कुछ ऐसी ही स्थिति थी। वह देख रहा था एक आलोकिक विमान। स्वर्ण वर्ण विमान पर स्वर्ण वर्ण के चार हंस जुते हुए। उसका तेज ऐसा कि आंखें चौंधिया जायें। वह दिव्य विमान अंतरिक्ष से उतरा और दो देवदूत हाथ जोड़कर विमान से उतर उसी मढैया की तरफ आते हुए।
" अभी रुकिये। कुछ प्रतीक्षा करनी है। अभी नहीं चल सकता।"
बाबा खुद व खुद बड़बड़ाना रहा था। देवदूत भी हाथ जोड़ उसकी सहमति की प्रतीक्षा कर रहे थे।
बाबा फिर अधीर हो रहा था। संभावित अंतिम समय में भी आस रखे था कि उसकी प्रेमिका रज्जो उसके प्रेम को समझ ले। समझ ले कि उसने उसे सच्चा प्रेम ही किया था। जब भी उसने किसी प्रेम कहानी को पूर्णता दिलायी तब उसे यही तो अनुभव हुआ कि उसका प्रेम ही पूर्णता को प्राप्त हुआ।
रात गुजर गयी। भगवान भाष्कर नभ मंडल पर आ गये। दोपहर का समय आ गया। पर बाबा का इंतजार पूर्ण न हुआ। दूसरी तरफ देवदूतों का प्रतीक्षा काल भी बढ़ता गया।
अचानक दूर से रज्जो आती दिखाई दी। बाबा चाहकर भी उठ न पाया। कभी रज्जो को एक नजर देखने के लिये बावरे की तरफ भागने बाला कन्हैया अपनी दीनता पर रोने लगा।
" कन्हैया। तुम सच ही कहते थे। सत्य तो यही है कि हमारा प्रेम सत्य था। जीवन के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी आज भी तुम मेरी यादों में दस्तक देते हों। आज एक अधूरी प्रेम कहानी को पूर्णता तक पहुंचाकर मुझे भी लग रहा है कि मानों हमारा प्रेम ही पूर्ण हुआ है।"
इसके आगे रज्जो कुछ बोल न सकी। रज्जो और कन्हैया दोनों के आंखों से आंसुओं की बाढ आ गयी। और फिर.... । कन्हैया एकदम शांत हो गया। आजीवन प्रेम का पुजारी अनंत यात्रा पर निकल गया।
कुछ दिनों बाद उसी मढ़ैया के स्थान पर ढोंगी बाबा की समाधि थी। बहुत वर्षों तक रज्जो उस समाधि की नित्य पूजा करती रही। न जाने यह विश्वास किस तरह प्रचलित हो गया कि ढोंगी बाबा की आराधना से अधूरी प्रेम गाथाएं भी पूर्ण हो जाती हैं। फिर अक्सर कोई न कोई प्रेम का साधक उस बाबा से अपने प्रेम की सफलता का वरदान मांगता दिखाई दे जाता। हर वर्ष फागुन के महीने में एक मेला लगने लगा। जिसकी प्रेम कहानी खुद अपूर्ण रही, उसके आशीर्वाद से कितनों की प्रेम कहानियाँ पूर्ण हुईं, उनकी गणना किसी के वश में नहीं है।
समाप्त
विशेष - यह एक पूर्ण काल्पनिक कहानी है। यदि किसी व्यक्ति, या स्थान से इसका कोई संबंध मिलता है तो उसे महज एक संयोग समझना चाहिये।

