पेयनु
पेयनु
"पानी तो पहले मैं भरूंगा" , पैयनू ज़ोर लगाते हुए बोला।"क्यों पहले क्यों ? जब पहले मै आया ,उसके बाद सीता ,तब आए तुम , तो पानी पहले क्यों भरोगे ?"
" क्योंकि मैने बाल्टी पहले लगाई" , धक्का लगाते , दांत भींचते बोला पैयनु। "देखो यह ठीक नहीं" , सुरेश को गुस्सा आने लगा। अपना पीतल का बर्तन उसने धक्का देकर लगाने की कोशिश की । पर एक तो बर्तन का मुंह छोटा ,दूसरे पैयनूं उम्र में काफी बड़ा और मजबूत। "देख छोकरे मुझे चक्की भी चलानी है , मुझे भर लेने दे , आधी तो हो भी गई, अभी तक भर भी जाती , तूने धक्का देकर छलका दी।" दोनों की धक्का मुक्की से नल बार बार बंद हो जा रहा था, उठाने वाला नल था,जो छोड़ते ही नीचे आता और बंद हो जाता।" भैया भरने दो इनको , इतनी देर में दो बर्तन भर जाते", सीता बोली। "तू चुप रह , हम लोग क्या बेवकूफ है? चार बजे से लाइन में लगे हैं और यह अभी आया और भरने लगा।" "बेवकूफ तो तू है ही" , धकियाते हुए बोला पेयनू ।
टन्न सुरेश ने अपना बटुआ (पीतल का छोटे मुंह का बर्तन ) पूरी ताकत से बाल्टी पर दे मारा । "बेवकूफ बोलता है , हरामी।" सुरेश का चेहरा लाल हो गया । बाल्टी के साथ पेयनू भी धड़ाम , चबूतरे पर गिरा। सुरेश अपना बटुआ भरने लगा । पेयनू की हिम्मत नहीं हुई लड़ने की । बड़बड़ाता हुआ उठा , "बदतमीज बच्चे , बड़े/छोटे का तो लिहाज़ ही नहीं।" सुरेश जीत की खुशी में फटाफट पानी उठा कर गायब। पेयनु चक्की में काम करता। दिन रात चक्की की आवाज़ से दिमाग हिल गया था। गाना सुन नहीं सकते , चक्की की आवाज़ में कुछ सुनाई ही नहीं देता। फिर चक्की भी मसाला पीसने वाली थी, छोटी । मक्का का आटा दो बार पीसना पड़ता। गेंहू भी गिरते गिरते रुक जाता । लकड़ी की डंडी लेकर लगातार गेंहू गिराना पड़ता। अगर ज़्यादा गेंहू गिर जाए तो चक्की घुर्र घूर्र कर बन्द हो जाती। फिर मोटर से जुड़ी बेल्ट को हाथ से चलाना पड़ता। इस समय गेंहू का गिरना और मोटर का चलना दोनों एक साथ ज़रूरी होते । पेयनु को ऐसे समय एक और आदमी की जरूरत पड़ती । बच्चे ही पास में मिलते । हम लोग इसके बदले उसके कांटे पर बैठ अपना अपना वज़न करते। झक मार कर उसको हम लोगो की बात माननी पड़ती।
कभी कभी जब पेयनु मूड में होता , तो तराज़ू में झूला देता था , लोहे की तीन में से दो सांकल कस के पकड़ लेते और वो अपने पैर से बाट रखे पलडे को नीचे दबा देता।वो सफ़ेद भूत बना रहता चक्की में । सुरेश का झूला अब बंद हो गया। पेयनु ने उस से बात करना बंद कर दिया था।किसी भी शादी ब्याह में पेयनु ज़रूर जाता , खाने का शौक जो था । पंगत में बैठकर कभी नहीं खाया उसने । खाना बनाने वालों के साथ ही खाता , वन्हा कोई रोक टोक नहीं होती, ना कोई देखता कि कितना खाया। मीठा उसको बहुत पसंद था।
देवा पंडित की लड़की की शादी में विदाई के बाद पेयनु खाने बैठा , सभी खाना बनाने वाले एक एक कर खा कर उठ गए।पर पेयनु डटा हुआ था। हलुआ काफी सारा बच गया था, बाबूराम ने मुझे और सुरेन्द्र को किनारे बुला कर समझाया , "देखो तुम दोनों इसको बातों में लगाए रखना , मै इसकी पत्तल में चुपचाप हलवा रखता रहूंगा, देखते हैं कितना खा सकता है।"
एक बात बताओ पेयनु ,"तुम अपने घर कब गए थे ?" "घर जा कर क्या करना? मां/बाप है नहीं , भाई मुझे भाई मानते नहीं ।" बाबूराम ने धीरे से हलवा उसकी प्लेट में रख दिया। बातें करते करते जब आधा घंटा हो गया तो पेयनु बोला अरे! यह हलवा ख़तम ही नहीं हो रहा। अब हम लोग ज़ोर से हंस पड़े। पर मन उदास हो गया कोई अपना नहीं , हम लोग ही उसके अपने हैं। इसका ध्यान रखूंगा। मन में सोचा था। पर नहीं ध्यान रख पाए हम लोग , दो साल बाद ही बुखार से वो चला गया , वापिस न आने के लिए। किसके घर पता नहीं?