पड़ोस वाला प्यार..
पड़ोस वाला प्यार..
सुबह सुबह पूजा करने के बाद जब मैं सूर्य को जल चढ़ाने के लिए बालकनी में आयी तो रोज की तरह पड़ोस वाली बालकनी में वह पौधों को पानी डाल रहे थे। सूर्य को जल चढ़ाने के बाद मेरी निगाह उनसे मिली और रोज की तरह हमने मुस्कान से एक-दूसरे का अभिवादन किया। मेरे बेटे ने यह फ्लैट लेते समय मेरी सहूलियत का बहुत ध्यान रखा था। पिछली बार जो फ्लैट था उसकी बालकनी पश्चिम में थी तो मुझे सूर्य को जल चढ़ाने के लिए नीचे पार्क में या ऊपर छत पर जाना पड़ता था और मेरा बागवानी करने का शौक भी पूरा नहीं हो पाता था। सूर्य को जल तो मैं बचपन से चढ़ाती हूँ। दादी कहा करती थी कि सूर्य को जल चढ़ाने से सूर्य सा तेजस्वी पति मिलता है। बात तो सही थी, पति तो मेरे भी तेजस्वी, धीर गंभीर, अच्छे ओहदे पर थे। गरीब घर की मुझको कभी कोई कमी ना हुई। एकदम रानी की तरह रखा था। वह एक अच्छे व्यक्तित्व, अच्छे बेटे, अच्छे पिता हैं, पति भी अच्छे ही होंगे पर हमारी पसंद जरा भी ना मिलती थी। मैं बागवानी की, कविताएँ लिखने की शौकीन तो वह पुस्तकों, पिक्चर व गाना सुनने के शौकीन। शायद ही उन्हें यह मालूम भी हो कि मैं कविताएँ भी लिखती हूँ। शुरू में एक दो बार उन्हें सुनाने की कोशिश की तो उन्होंने मजाक करते हुए कहा, "कहाँ तुम इन सब में पड़ रही हो यह तुम्हारे बस का नहीं"। खैर इन बातों का अब क्या महत्व, हम दो ध्रुवों या ट्रेन की समानांतर पटरियों की तरह साथ साथ चलते रहे शायद बच्चों परिवार व समाज से जुड़े होने के कारण।
मैं जल चढ़ाकर अंदर आई, बेटा बहू अभी सो रहे थे। ठीक भी है उनकी दिनचर्या है। आठ बजे उठेंगे और तैयार होकर ऑफिस के लिए भागेंगे। यह (मेरे पति ) उठ गए हैं और टीवी चला कर गाना या समाचार कुछ सुन रहे हैं। बच्चों को और मुझे पूजा में व्यवधान ना हो इसीलिए वह हेडफोन लगाकर रखते हैं। मैं ने चाय बनाई हम दोनों के लिए नींबू वाली। सुबह की पहली चाय तो मैं उनके साथ ही बैठकर पीती हूँ। मेरा बड़ा मन करता है, पहले तो नौकरी की आपाधापी में सास ससुर के शील संकोच के कारण जो नहीं हो पाया वह प्यार, वह समय आज तो यह मेरे साथ बिताए। हम साथ में चाय पिए, हम सुख दुखः की बातें करें , वह मुझसे अपनी बातें करें , मेरी पूछें। जब मैं मेरे बेटा बहू को, आजकल के बच्चों को आपस में लड़ते झगड़ते प्यार भरे इशारे करते देखती हूँ तो मन में एक किलस उठती है काश यह भी करते। ऐसा भी नहीं है कि हमारी उम्र के लोग आपस में प्रेम प्रदर्शित नहीं करते। यह तो यही है, जो पता नहीं क्यों इतने चुपचाप रहते हैं। कई बार मैंने पहल भी की पर इन्होंने कोई प्रत्युत्तर ही नहीं दिया। कितना बुरा लगता है, कितना अपमानित सा महसूस होता है। हमारे बीच सुबह इनका एक वाक्य चाय अच्छी बनी है इकलौता संवाद होता है। कौन कहता है प्यार सिर्फ महसूस करने की चीज है। यहाँ तो मुझे ना यह प्रदर्शित करते हैं ना मैं महसूस कर पाती हूँ।
खैर रोज की तरह मैं चाय के बर्तन समेट कर उठी। गैस पर दूसरी दूध वाली चाय मैं पहले ही चढ़ा कर आई थी। बिस्किट और नमकीन के साथ इनको दिया और मेरी चाय लेकर मैं बालकनी में चली आई। हाँ बैठूँगी तो बालकनी में भी अकेले ही पर यहाँ लगता है मेरे पेड़ पौधे मुझसे बातें करते हैं। मेरे पहुँचते ही ना जाने कहाँ से एक छोटी पीली चिड़िया वहीं आकर बैठ जाती है। उसके लिए अनाज व पानी वही रखा है, उसे मालूम है। वह चाय के साथ मुझे अपनी कंपनी (साथ) देती है। कभी-कभी तो लगता है वह ना जाने अपनी आवाज में मुझसे क्या क्या बता जाती है। उसका सिर झटकना, आँखें घुमाना सब मानो कहते हैं वह मुझसे दुनिया भर की खबरें साझा करती है। वहीं कुछ ततलियाँ भी फूलों पर मंडराती हैं। सब आश्चर्य करते हैं पंद्रहवें माले पर तितलियाँ कहाँ से और कैसे उड़ कर आती होंगी। मुझे भी नहीं मालूम यह कहाँ से आती है, कहाँ जाती है। बस सुबह चाय के समय वह वहाँ होती हैं। कभी-कभी तो आकर मेरे ऊपर भी बैठ जाती हैं। शायद लैवेंडर पाउडर की खुशबू के कारण। जो भी हो मुझे लग रहा था, इन सब के साथ पिछले कई दिनों से और भी कोई मुझे अपनी कंपनी (साथ) दे रहा था। मेरी बालकनी के पास वाली बालकनी में एक शायद मेरी ही उम्र के एक बुजुर्ग मुझे देखते, मेरे क्रियाकलापों को देखते और मुस्कुराते। अनजान से मैं क्या बात करती तो मैं वहाँ से हट जाती। जो कि उनकी बालकनी मेरी बालकनी के पास थी पर वह मेरे पड़ोसी नहीं थे। हमारी सोसाइटी भी कुछ अजीब तरह से बनी है। मेरे बाएँ हाथ वाली बालकनी h- 2 wing की है और हम h1 विंग में रहते हैं। यहाँ महानगरों में जहाँ लोग अपने पड़ोसी को नहीं पहचानते, वहाँ दूसरी इमारत में कौन रहता है? यह जानना कौन चाहेगा ? होगा कोई . .
अब यह रोज का क्रम था, जिस समय मैं बालकनी में जाती, वह भी मुझे वहीं मिलते। अब तो उन्होंने चाय भी मेरे साथ बैठकर पीनी शुरू कर दी थी। हम एक दूसरे को चाय का प्याला दिखा कर चियर्स किया करते। मैं अक्सर सोचती इनकी पत्नी नहीं दिखती. . . शायद नहीं होगी. . तभी बालकनी में दिखती नहीं है। उनके परिवार का कोई भी सदस्य बालकनी में नहीं दिखता। फिर खुद ही हँसती, मेरे पति भी तो बालकनी में कभी नहीं आते हैं। चाय पीकर मैं अंदर चली जाती, नाश्ता खाने में बहू का हाथ बटाने। सर्दियों में तो वैसे भी धूप में बैठना अच्छा लगता है। तो मैं जब भी खाली होती तो बालकनी में बैठकर नीचे पार्क के लोगों को देखती, स्वेटर बुनती, नहीं तो अपनी भावनाओं को डायरी में लिखती। मुझे अपनी कविताओं को सस्वर गाना अच्छा लगता था। कोई सुनने वाला तो था नहीं ,सच पूछो तो कोई जानता भी नहीं था कि मैं लिखती भी हूँ। वैसे फर्क भी क्या पड़ता है, मैं तो अपनी खुशी के लिए लिखती थी। मैं तो अपनी कविताएं अपने पेड़ पौधों को सुनाती। मुझे सच में नहीं मालूम था कि मेरी यह आवाज उस बालकनी तक भी पहुँचती है। इसीलिए एक दिन जब एक कविता लिखने के बाद मैं उसे मगन होकर गा रही थी, उसके खत्म होने पर मुझे तालियों की आवाज सुनाई दी। मैं खुश हो गई, क्या आज उन्होंने (मेरे पति) मेरी कविता को सुन लिया और उन्हें अच्छी लगी ? अंदर झांक कर देखा तो वह वैसे ही हेडफोन लगाए टीवी देख रहे थे। मैंने इधर उधर देखा तो पाया वही सज्जन बड़े उत्साह से तालियाँ बजा रहे थे और हाथ के इशारे से बोले अच्छा गाती हैं आप। क्या यह आपने लिखा है ? अब अपनी तारीफ किसे बुरी लगती है। उस दिन से हमारी बातें शुरू हो गई। उनको भी लिखने का शौक था। वह मुझे सुनाते, मैं उन्हें
अब मेरा ज्यादा समय बालकनी में बीतने लगा। वैसे भी हमारी सोसाइटी ऐसी बनी थी कि दो इमारतों के बीच से पूर्व में उगता सूरज और पश्चिम में ढलता सूरज दोनों का ही दृश्य साफ दिखता था। हमारी सोसाइटी शहर से थोड़ा बाहर थी और अभी आसपास ज्यादा इमारतें नहीं बनी थी इसलिए दूर दूर तक फैले खेत ढलता सूरज अच्छा लगता था। अब मैंने शाम की चाय भी बालकनी में उनके साथ पीनी शुरू कर दी थी। हालांकि थोड़ी ठंड हो जाती थी पर मुझे बातें करने के लिए एक साथी मिल गया था। हम किताबों की, बागवानी की, पौधों की ,लेखकों की बातें करते। मेरे अंदर की महिला फिर से जवान हो रही थी। उस दिन मेरा जन्मदिन था मैं अपने बेटे बहू द्वारा दी गई नई साड़ी पहनकर खुलें बालों में जब सूर्य को जल चढ़ा रही थी, मेरी नजर उन पर पड़ी। वह अपलक मुझे निहार रहे थे। मेरे अंदर की महिला अचानक सोलह वर्षीय कन्या बनकर लजा उठी। उन्होंने बोला, "क्या बात है, आज आप बहुत खूबसूरत लग रही हैं। कुछ खास बात है लगता है"। फिर पता चलने पर उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से जन्मदिन की शुभकामनाएं दी। मजाक करते हुए बोले, "चलिए आज आपको पार्टी मेरी ओर से"। मैंने कहा, "आप ही आ जाइए मेरे घर पर"। पर इस तरह से फ्लर्ट की बातें जो शादी से पहले या शादी के बाद भी मेरे साथ किसी ने नहीं की थी सुनकर कितना रोमांच हो रहा था। मेरे अंदर की तरूणी शर्मा रही थी। मुस्कुरा रहीं थी , खुश होकर नाच रहीं थी।
अब तो मेरा मन घर में बिल्कुल नहीं लगता था। पैर बालकनी में खींचे चले जाते। मन करता बस बालकनी में ही रहूँ। उनसे बातें करती रहूँ। मैं छिपाने की बहुत कोशिश करती। यह जताती कि मैं बस यूँ ही बालकनी में आ गई हूँ। पर मेरा मन जानता था कि मैं दौड़ी दौड़ी चली जाती थी। कभी उनको नहीं देखती तो मन उदास हो जाता। कुछ अलग ही भाव मैं महसूस कर रही थी। क्या यह प्यार था ? धत् बुढ़ापे में प्यार ? मैं शादीशुदा हूँ. . .एक चार वर्षीय पोते की दादी हूँ। पर कुछ तो था कि दिल दिमाग शरीर कुछ भी बस में नहीं था। बच्चे ऑफिस में और पति टीवी के सामने रहते तो यह बात किसी ने गौर नहीं की। पर हर शनिवार रविवार जब बच्चे घर पर होते तो बहुत बेचैनी होती कि कब मौका मिले कब बालकनी में जाऊँ और उनसे बातें करूँ।
मेरे दिन बड़ी खूबसूरती से यूँ ही गुजर रहें थे। एक दिन रात को मेरे बेटे के पास एक फोन आया वह और बहू बाहर जाते हुए बोले, "माँ सागर के पिता जी शांत हो गए हैं। हम जाकर आते हैं आप भी चलोगी"?
"मैं . . . ? मैं तो उनके पिताजी को जानती भी नहीं। नहीं....। तुम लोग निश्चिंत होकर जाओ मैं घर पर रहूँगी। मुन्ना का भी ध्यान रखूँगी"।
दूसरे दिन शनिवार था। पति की तबीयत भी थोड़ी खराब थी तो बालकनी में जाने में मुझे थोड़ी देर हो गई। वहाँ कोई नहीं था। मुझे लगा शायद मुझे आने में देर हो गई इसलिए वह पानी डाल कर चले गए होंगे। रविवार को घूमने जाने का प्रोग्राम बन गया तो हम सब सुबह जल्दी ही निकल गए। मैं दो दिन से उनसे बात नहीं कर पाई थी। अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। पर किसी को बता भी नहीं सकती थी। और बताती भी तो क्या . . ? एक पराए पुरुष के लिए मेरे मन में कुछ भावनाएं हैं। मैं शायद उनसे प्यार करने लगी हूँ। मेरा दिल बेचैन हो रहा है, क्योंकि मैंने उन्हें दो दिन से नहीं देखा है। सोमवार को जब मैं सूर्य को जल चढ़ाने गई तो देखा बालकनी आज भी खाली थी। पौधे थोड़े-थोड़े मुरझा रहें थे। लगता है कहीं बाहर गए होंगे, इसीलिए नहीं दिख रहे हैं। उसी दिन चाय पीने के बाद जब मैं अपने पेड़ों को पानी डालते डालते कुछ सोच कर कि आएंगे तो क्या कहेंगे कि तुम मेरे पौधों को भी नहीं संभाल सकी। मैं पाइप के बीच में ऊँगली फसा कर उनके पौधों में भी पानी डालने लगी। तभी मेरा बेटा आया, "माँ यह क्या कर रही हो"? मुझे लगा मेरी चोरी पकड़ी गई है। मैंने बनते हुए कहा , "देख ना कैसे लोग हैं। पेड़ लगा देते हैं पर देखभाल नहीं करते। सोचा मैं ही पानी डाल दूँ"।
बेटा मेरे पौधों के प्रति प्रेम को जानता था। वह बोला, "माँ इन पौधों की देखभाल सागर के पापा करते थे। अब वह है ही नहीं तो तुम कब तक इन पौधों को पानी डालकर जिंदा रख पाओगी" ?
तो. . तो क्या वह सागर के पापा थे ? हे भगवान तू इतना निष्ठुर क्यों है? जीवन में पहली बार तो तुमने मुझे प्रेम का स्वाद चखाया था और अभी मैं मन भर कर तृप्त भी ना हो पायी थी कि तूने वह प्याला ही तोड़ दिया। मैं दुखी मन से बेटे को बोली, "कोई नहीं जब तक मैं हूँ कोशिश करूंगी उनके लगे पौधे ना मरे " और मन में बोली ना ही मेरे मन में उनका प्यार।

