पछतावा
पछतावा


एक छोटा सा गांव है हरिपुर... जैसे की गाँव में होता है किसी के घर में कुछ भी हो सबको पता चल ही जाता है... आज गाँव में चर्चा का विषय महेन्द्र जी का परिवार है... महेन्द्र एक राशन की दुकान चलाते हैं... उनका बड़ा परिवार है... तीन लड़कियाँ और दो लड़के, बड़ी बेटी ससुराल में सुखी है और बड़े लड़के की तीन महीने पहले ही शादी हुई थी और चर्चा का मुख्य विषय उनकी बहू है, हालांकि बहू सास पर प्रताड़ना, दहेज लोभी और कंजूसी के साथ बेटे राकेश पर नामर्दी के इल्जाम लगा कर मायके जा चुकी है।
महेन्द्र जी अपने कमरे में रामचरित मानस का पाठ कर रहे हैं... बाकी सारे मिल कर बहू ऋतु की चर्चा में लगे हैं। सब बढ़ चढ़ के ऋतु को कोसने में लगे हुए हैं, राकेश चुप चाप उठकर अपने कमरे में चला जाता है... वहाँ हर एक चीज उसके होने का एहसास दिला रही है। वह मन ही मन पछता रहा है... क्यों वह उस समय कुछ भी नहीं कह पाया और अब भी चुप चाप ऋतु की बुराइयाँ सुन रहा है... असलियत में वह बुझदिल है, शुरू से उसे अपनी कमजोरी का पता था, उस दुर्घटना में मानसिक रूप से बीमार होने के बाद उसे शादी करने का ,किसी की जिन्दगी बरबाद करने का क्या हक था?
माँ अपने आगे किसी की चलने भी कहाँ देती हैं, शादी करा के ही मानी, पहली रात ऋतु को ये सब मालूम हुआ... माँ ने बीमारी की बात भी उसके परिवार से छुपायी थी... सबकुछ जानकर भी वह चुप रही... अगले दिन से ही माँ ने ऋतु के ऊपर घर की सारी जिम्मेदारी डाल दी थी और वो बेचारी बिना कोई भी सवाल किए जुत गई कोल्हू के बैल की तरह, सुबह के तीन बजे से ही वह उठ कर काम में लग जाती... घर सफाई और सारे कपड़े बरतन की सफाई, सबको चाय-नाश्ता से लेकर रात को दूध का गिलास तक पकड़ाती और जब भी ऋतु के खाने की बारी आती है तो कभी सब्जी खत्म हो जाती है तो कभी दाल खत्म हो जाती है... फिर भी सब्र कर के रह जाती और इतने पर भी माँ को चैन नहीं था... हमेशा ताने देती मेहमानों के सामने भी ऋतु को जलील करती, सब कुछ मेरी आँखों के सामने होता रहा लेकिन मैं चुप रहा।
अब भी वो चुप चाप सबकुछ सह के अपना फर्ज निभाने में ही रहती... अगर परसों माँ उसे बाँझ नहीं कहती, वो फोन पर बात कर रही थी... तब माँ ने ऋतु को बाँझ कहा... ऋतु के मम्मी-पापा अगले दिन ही आ गए... माँ उन्हें भी बुरा-भला कहने लगी और तब ऋतु की सारी सहनशीलता जवाब दे गई... पहली बार उसने भी जम कर सुना डाला और चली गई... पर हाय रे मेरी बुज़दिली... तब भी चुप चाप ऋतु को जाते हुए देखता ही रहा... अब सारी उम्र इसी पछतावे के साथ मुझे जीना है... क्योंकि मेरे बुलाने पर वह वापस आ जाएगी... लेकिन जब मैं उसे कोई सुख ही नहीं दे सकता तो उसे ला के कोई फायदा नहीं है।
(कुछ लोग सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाते और बाद में पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचता है...)