नियति की रेखा
नियति की रेखा
🌺 नियति की रेखा 🌺
(एक पौराणिक आख्यान — प्रेम, प्रतिज्ञा और प्रलय का शाश्वत सम्वाद)
✍️ श्री हरि
1.8.2025
काशी के राजप्रासाद के भीतर, शरद की चाँदनी रात, जैसे स्वर्ग का कोई अंश धरती पर उतर आया हो। राजमहल के अंतःपुर का वह सुरभित पुष्पोद्यान, जहाँ मन्द-मन्द मलयानिल बह रहा था, और बेला, माधवी, चम्पा की लतरें स्वप्निल छाया सी फैली थीं। उसी बगिया की मृदु घास पर, एक स्वर्णासन सम शाल्वराज की गोद में काशीराज की ज्येष्ठ पुत्री राजकुमारी अंबा निश्चिंतता से लेटी थी — मानो प्रेम के विस्तीर्ण सागर में दोनों एक-दूसरे की बाँहों में अनंत खो जाना चाहते हों।
शाल्वराज की कोमल उँगलियाँ अंबा के केशों में उलझ रही थीं, और अंबा के अधरों पर एक मोहक मुस्कान तैर रही थी। वह स्नेहभरे स्वर में कह उठी —
“प्रिय, तात् ने हम तीनों बहनों — अंबा, अंबिका और अंबालिका — का स्वयंवर निश्चित किया है। तुम भी स्वयंवर में आना… मैं तुम्हें ही वरण करूँगी।और देखना, मैं जिस दिन तुम्हारे गले में वरमाला डालूँगी — उसी दिन तुम्हारे हृदय की महारानी बन जाऊंगी।"
शाल्वराज ने अंबा की हथेली को अपने अधरों से स्पर्श किया और नयन मूंदे हुए बोला —
“मेरे अहोभाग्य! तुमने मुझे अपने प्रेम के योग्य समझा, यही मेरे जीवन का परम सौभाग्य है। और अब मुझे पति रूप में भी स्वीकार कर रही हो — यह तो मेरे समस्त पूर्वजन्मों की तपस्या का फल है।”
उस रात चाँदनी भी लज्जा से ओस बनकर गिरने लगी थी — क्योंकि धरती पर प्रेम और प्रणय का यह दृश्य इन्द्रलोक की शोभा को भी लजाने वाला था। परंतु… नियति चुपचाप उस स्वप्न पर अपने हस्ताक्षर कर रही थी — जिनकी स्याही केवल विधाता के हाथों में होती है।
अगले ही दिवस — काशी का राजसभा-मंडप वैभव और भव्यता से सज्जित हुआ। स्वर्ण-शृंगारित तोरण, रत्नजटित छत्र, और पुष्पवर्षा करती दासियाँ — जैसे त्रैलोक्य की समस्त संपदा वहाँ सजी हो। देश-विदेश के राजा-राजकुमार अपने-अपने रथों में, गर्व और गौरव का सिंहनाद करते हुए उपस्थित थे। अंबा के हृदय में एक ही आकांक्षा थी — शाल्वराज की प्रतीक्षा। वह बार-बार पुष्पवाटिका के झरोखे से मंडप को निहारती, उसकी दृष्टि बस अपने स्वप्ननायक को खोज रही थी। आखिर उसकी चपल निगाहों ने शाल्वराज को राजाओं के मध्य बैठे देख लिया । शाल्वराज उन नृपों के मध्य ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे तारामंडल में चंद्रमा ।
और तब…हवा ठहर गई। शब्द मौन हो गए। नगाड़े खामोश हो उठे। एक अकेला रथ — शांत, स्तब्ध और भयंकर तेज से युक्त सभा में प्रवेश करता है। रथ पर खड़ा है एक गंगाजल-सा निर्मल, परंतु वज्र की भांति अचल पुरुष — देवव्रत भीष्म।
भीष्म ने सभा के मध्य जाकर सिंहनाद किया —
“मैं हस्तिनापुर सम्राट विचित्रवीर्य का प्रतिनिधि बनकर आया हूँ। इन तीनों कन्याओं — अंबा, अंबिका और अंबालिका — का वरण मैं हस्तिनापुर के लिए कर रहा हूँ।यदि कोई रोक सके, तो रोक ले!”
सभा में सन्नाटा छा गया। किसी में साहस नहीं था उस प्रतिज्ञावान पुरुष को रोकने का। और तभी… अंबा की दृष्टि अपने प्रिय शाल्वराज पर ठहर जाती है। उसे विश्वास था कि शाल्वराज भीष्म का सामना अवश्य करेंगे । वह वहाँ उपस्थित था — परंतु मौन।उसकी आँखों में द्वंद्व था, हृदय में भय।वह जानता था, भीष्म से टकराना महाविनाश को आमंत्रण देना है। शाल्वराज की निगाहें झुक गई थीं ।
अंबा की आँखें प्रश्न बनकर उसे घूरती हैं —"क्या यह वही पुरुष है जिसके बाहुपाश में मैं स्वयं को सुरक्षित समझती थी? जो मेरा रक्षक होना चाहता था — क्या यह वही कापुरुष है?"
उस एक दृष्टि में अंबा ने अपने समस्त प्रेम का अंत कर दिया।नयन क्रोध और तिरस्कार से दहक उठे —और बिना कुछ कहे, वह भीष्म के रथ पर सवार हो गई, अपनी बहनों के संग।
लेकिन नियति अभी भी खेल में थी।भीष्म का रथ चला ही था कि अचानक…शाल्वराज का पौरुष जाग उठा । वह अंबा की आंखों में जलती तिरस्कार की लपटों का सामना नहीं कर सका था । उसकी आँखों में वीरता की ज्वाला फूट पड़ी।वह अपने क्षत्रिय धर्म की पुकार सुन कर रुक नहीं सका।
उसने सिंहनाद किया —
“भीष्म! तुमने मेरा स्वाभिमान छीना है, अब मैं रणभूमि में तुम्हें चुनौती देता हूँ!”
भीष्म रुकते हैं। रथ मोड़ा जाता है। युद्ध प्रारंभ होता है।शाल्वराज अद्वितीय पराक्रम दिखाता है — अंबा, जो उसे क्षणभर पहले कायर समझ रही थी, अब उसकी वीरता पर मुग्ध हो जाती है।उसकी आँखों से बहता तिरस्कार अब नेत्रों में श्रद्धा बनकर उतरता है।
किन्तु…नियति को प्रेम नहीं, पराजय लिखनी थी।
भीष्म ने शाल्वराज को परास्त कर दिया।रक्तरंजित शाल्व, अंबा की ओर देखता है —और अंबा, उस पराजित प्रेमी की ओर, जिसकी आँखों में प्रेम अब भी अमर था।
भीष्म तीनों कन्याओं को हस्तिनापुर ले जाते हैं।अंबिका और अंबालिका विचित्रवीर्य की रानियाँ बनती हैं।परंतु अंबा —वह बार-बार कहती है —
“मैं तो मन से शाल्वराज की पत्नी हूँ। मुझे किसी और को समर्पण स्वीकार नहीं।”
हस्तिनापुर में उसकी बात मान कर वह शाल्वराज के पास लौटा दी जाती है,किन्तु शाल्व कहता है —
“तुम अब किसी और की अमानत हो। मैं तुम्हें पत्नी नहीं बना सकता।”
वह अंबा जिसने शाल्वराज से प्रेम किया था , वही उसे ठुकरा देता है ।अब समाज में वह एक परित्यक्ता है।नियति ने उसके साथ कैसा खिलवाड़ किया था । वह न तो शाल्वराज की हो सकी और न ही हस्तिनापुर की महारानी बन सकी । अब वह केवल क्रोध, प्रतिशोध और नियति की चुनौती बन कर रह गई थी ।
वह हिमालय की गुफाओं में तप करती है।शिव से वर मांगती है —
“मुझे अगला जन्म दो, ताकि मैं भीष्म को मृत्यु दे सकूँ।”
वह अग्नि में प्रवेश करती है —और अगला जन्म लेती है — शिखंडिनी बनकर। जो बाद में लिंग बदल कर शिखंडी बन जाती है ।
महाभारत के युद्ध में वही शिखंडी, अर्जुन के रथ पर सामने आता है —और भीष्म, अपनी प्रतिज्ञा के कारण, शिखंडी पर शस्त्र नहीं उठाता —यही क्षण बनता है भीष्म की मृत्यु का कारण।
यह नियति है — जो प्रेम को पीड़ा में बदल देती है,— कायर को क्षणिक वीर बनाती है,— और त्यागी हुई स्त्री को काल बनाकर लौटा देती है।
जिस प्रेम की शुरुआत अंबा के अधरों पर मुस्कान बनकर हुई थी,उसका अंत रणभूमि में "शर शैय्या" के रूप में हुआ।
नियति — न जाने किसकी लेखनी से लिखी जाती है,पर जब वह चलती है… तो सम्राटों के सिंहासन डोल जाते हैं,और एक त्यक्त स्त्री… इतिहास की विधाता बन जाती है।
