निशि डाक- 6
निशि डाक- 6
अगले दिन सुबह निशीथ की नींद बहुत देर से खुली। रात को तीन बजे के बाद वह सोया था और जब उसकी आँखें खुली तब तक दोपहर हो चुकी थी! इसके बाद वह काॅलेज नहीं जा पाया! जाकर भी क्या करता? साम्मान्निक ( Honours) की उसकी सारी कक्षाएँ सुबह को ही होती थी।
जब से वह निष्ठा से मिला है, जाने क्या जादू किया है उस लड़की ने, कि उसके बाद से उसके दिलोदिमाग पर केवल वही छाई हुई है।
अलसाकर निशीथ बिस्तर पर से उठा और दैनिक कामकाज़ में जुट गया, लेकिन तब भी उसे केवल निष्ठा ही याद आती रही। रह- रहकर एक ही खयाल उसके मन में बार-बार कौंध जाया करती थी---
" फिर कब मिलूँगा, उस लड़की से?"
"पता भी नहीं बताया उसने अपना! वरना,अभी भाग कर पहुँच जाता उसके घर! सिर्फ एक नज़र दूर से देखकर चला आता!"
जैसे- जैसे दिन बढ़ता जा रहा था उसकी बेचैनियाँ भी बढ़ती जाती थी! वह बेसब्री से रात होने का इंतज़ार करने लगा! निष्ठा ने कल फिर आने का वादा तो नहीं किया था, पर निशीथ का दिल कहता था कि वह जरूर आएगी!
परंतु निशीथ का अनुमान गलत साबित हुआ ! निष्ठा उस रात को नहीं आई!
शाम से ही कई बार बरामदे में जाकर निशीथ देख कर आया था। पर निष्ठा नहीं थी वहाँ! कई बार बाहर- भीतर करने पर भी जब उसके दर्शन न मिले तो आखिर हार कर निशीथ अपने बिस्तर पर गिर पड़ा था। बाहर का दरवाज़ा बंद करने की सुध भी उसे न रही।
परंतु आज बिस्तर पर लेटने के बाद भी उसे बिलकुल नींद न आई। तरह- तरह के ख्यालात आने लगे। वह निष्ठा के मिलने न आ पाने के कारणों पर विचारने लगा--
" क्या वजह हो सकती है इसका,,,शायद, उसकी माता- पिता ने मना कर दिया होगा?!"
अगले ही पल उसके विचारों ने पलटा खाया और उसका आशंकित मन सोचने लगा--
" कहीं वह बीमार तो नहीं पड़ गई? कल देर रात तक बाहर रहने के कारण उसे जुखाम तो नहीं हो गया? ओह निष्ठा!!ऽ"
अब निशीथ ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि उसकी निष्ठा को वे सही सलामत रखें।
पल भर का मिलना और महज़ एक रोज़ की पुरानी मुलाकात में निष्ठा को वह अपना मान चुका था!!
जवानी के दिनों की उन्मादना ऐसी ही होती है, शायद! पल भर में कोई अपना बन जाया करता है! फिर निशीथ के लिए यह तो पहला ही प्यार था! और प्रथम प्यार में थोड़ी उत्तेजना न हो,, तड़प न हो या फिर किसी के अच्छे- बुरे का खयाल न हो,,,, यह कैसे संभव हो सकता है?!
रात्रि जागरण के बाद अगले दिन सुबह वह अपनी कक्षाओं में जब गया तो उसकी आँखें लाल थी! कुछ तो रोने के कारण और कुछ रात भर न सो पाने कारण! ऐसा लगता था कि जैसे कोई नशेरी मयखाने से सीधे चला आ रहा हो!!
उसे देखते ही उसके सहपाठी होंठ दबाकर हँसने लगे। लड़कों के बीच शीघ्र ही निशीथ को लेकर कानाफुसियाँ आरंभ हो गई।
इसके बाद पहली ही कक्षा के बीचोंबोच निशीथ डेस्क पर सर रख कर सो गया! उसकी खर्राटों की आवाज़ बार- बार जब डाॅ॰ राय के पढ़ाने में बाधा डालने लगी तो मजबूरन प्रोफेसर साहब ने उसे कक्षा से बाहर निकाल दिया।
कक्षा समाप्त होते ही उसका दोस्त ग्रैबरियल भागा हुआ उसके पास आया और पूछा,
" अरे,, निशीथ!! यह क्या हाल बना रखी है अपनी? तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी?"
निशीथ उसे देखने लगा पर कुछ जवाब नहीं दे पाया! उसने एक बड़ी सी जंभाई ली। और दीवार पर सिर टिका दिया!
ग्रैबरियल ने परिस्थिति खराब समझकर निशीथ को टैक्सी में उसके घर पर छोड़ आया!
घर आते ही निशीथ बिस्तर पर पसर गया और गहरी नींद में सो गया।
ग्रैबरियल ने उसकी हाथ की नाड़ी पकड़कर देखी!
" बुखार तो नहीं है, इसे, फिर क्या हुआ?। चलो सो रहा है तो अभी सोने देते हैं। शाम को, कक्षाओं के बाद दुबारा आकर पूछ जाऊँगा!"
शाम तक निशीथ बिलकुल फिट हो गया था। दो- तीन घंटा सोने के बाद वह वापस अपने स्वाभाविक मिज़ाज़ में आ गया था! उसने ग्रैबरियल को अपने हाथों से चाय बनाकर पिलाई।
इसके बाद वह उससे इधर- उधर की बातें करता रहा।
अब निशीथ चाह रहा था कि गैबरियल जल्दी वहाँ से चला जाए! ताकि वह निष्ठा के बारे में सोच सके!
जल्दी खाने- पीने से निपटकर आज निशीथ किताब लेकर बरामदे की आराम कुर्सी पर ही लेटे- लेटे पढ़ता रहा! उसे उम्मीद तो नहीं थी, पर लगा कि अगर उसकी किस्मत अच्छी हो तो,,,,कहीं निष्ठा इधर से गुज़रती हुई नज़र भी आ जाए तो,,,, !!अब वह निष्ठा को एक नज़र देखने के लिए बावला हो रहा था!
पता नहीं कब पढ़ते- पढ़ते उसकी आँखें आज भी लग गई थी। अपनी छाती पर खुली हुई किताब रख कर वह सो गया था। गर्मियों के दिन थे ,,बीच- बीच में ठंडी- ठंडी हवाएँ चल रही थी, जिससे उसे अनायास ही नींद आ गई थी।
परंतु बाहर मच्छर भी बहुत थे। साथ ही कुछ कीड़े- मकोड़े भी। एक कीड़े के दंशन से उसकी नींद टूट गई। उसने आँखे खोली तो पाया कि दुबारा उस दिन की तरह लोडशेडिंग हो रक्खी थी!
बत्ती जाने का अंदेशा तो पहले से ही था, इसलिए निशीथ ने अपनी आराम कुर्सी के पास टार्च लाकर रख दी थी। अब उसे जलाकर वह कमरे में जाने को हुआ तो किसी उजली हुई चीज़ पर टार्च की रौशनी पड़ी और वह चौंक गया।
ध्यान से देखा तो बरामदे के कोने पर निष्ठा खड़ी उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी!
आज वह एक उजली साड़ी पहनकर आई थी और पहले से भी ज्यादा खूबसूरत और कामुक (सेक्सी )लग रही थी!
निशीथ कमरे मे जाने को हुआ तो था परंतु निष्ठा को देख उसके कदम वहीं पर ठिठक गए!
फिर वह दौड़कर निष्ठा के पास गया और बलपूर्वक उसे अपनी बाहों में भींच लिया और बोला---
" कहाँ थी तुम? कल क्यों नहीं आई मेरे पास? मैं रात भर तुम्हारा इंतज़ार करता रहा!"
निष्ठा ने धीरे से उसे अपने से अलग किया। फिर वह फुसफुसाने के स्वर में बोली--
" अरे ,,मुझे कैसे पता होगा कि तुम मेरा इंतज़ार कर रहे थे! वैसे क्यों कर रहे थे मेरा इंतज़ार?"
" निष्ठा इस तरह मुझे सताया मत करो! तुमसे रोज़ मिलना चाहता हूँ, तुम नहीं आती हो तो मुझे रात को नींद भी नहीं आती है!
" पर क्यों भला? बोलो निशीथ?!"
" तुम्हें चाहने लगा हूँ, निष्ठा!! बहुत प्यार करता हूँ तुमसे! बोलो तुम रोज़ आयोगी मुझसे मिलने? वादा करो!" यह कहता हुआ निशीथ ने लपक कर निष्ठा का हाथ पकड़ लिया!
"पर निशीथ, अगर मेरे घरवाले मुझे यहाँ आने न दे तो?"
इतना सुनते ही निशीथ निष्ठा के पैरों के पास जमीन पर एक याचक की भाँति हाथ जोड़कर बैठ गया! और उसे मनाने की कोशिश करने लगा!
जिस निशीथ ने आज तक कभी किसी के आगे सर न झुकाई थी वही आज एक रमणी के प्रेम में इतना पागल हो गया था कि उसके कदमों पर बैठकर गिरगिराने में भी उसे कोई लज्जा न आई!
प्रेम है ही ऐसा वस्तु,, अच्छे- अच्छों को बदलकर रख देता है!
--- क्रमशः--