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sukesh mishra

Abstract Classics Others

4  

sukesh mishra

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नई जिंदगी

नई जिंदगी

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मुझे सिजोफ्रेनिया है.मेरी हालत गंभीर होती जा रही है.कभी-कभी मैं बहुत उग्र हो जाता हूँ, बदन फड़फड़ाने लगता है. मन करता है कि किसी का गला दबा दूँ या अपना ही सर फोड़ लूँ.बाहर की दुनिया मुझे अनजानी सी लगती है.....डरावनी सी। कल भाभी कह रही थी की इसे अब पागलखाना भेजने में देरी मत कीजिए वरना यह कभी भी कोई कांड कर बैठेगा।भैया भी करीब-करीब राजी हैं। सिर्फ मां को यह मंजूर नहीं। बोली, "अगर आज इसके पिताजी जिंदा होते तो तुम सब को ऐसा कहने की हिम्मत न होती"।

परंतु अब कुछ नहीं हो सकता। परिवार में मां के अलावा बाकी सब एकमत हो गए हैं कि मुझे अब पागलखाना भेज ही देना चाहिए।समाज में भी अब और बदनामी सही नही जाती।

बचपन से ही में बहुत ही एकांतप्रिय रहा हूं।किसी के भी साथ घुलना-मिलना या खेलना मुझे कभी पसंद नहीं आया। मुझे सब पर या तो क्रोध आता या डर होता। में खुद को कभी किसी लायक मानता ही नहीं था। धीरे-धीरे मेरे मन में यह बात घर करने लगी कि मैं दुनियां में सबसे कमजोर इंसान हूं, सामान्य जिंदगी जीने के लिए इस संसार की जितनी भी कसौटियां है, मैं उनमें से किसी पर भी खरा नहीं उतरता।आत्महत्या का खयाल भी मन में बार-बार आता, कोशिश भी कई बार की, लेकिन किसी न किसी तरह बचता रहा।

मेरे अंदर निराशा,अकेलापन, डर, अपमान की कुंठा जैसे मनोभाव भरते चले गए और धीरे-धीरे मैं एक उद्धाम आवेग से भर उठा। अब मेरे लिए सारी दुनियां मेरी दुश्मन थी। अब मेरे मन में सबके लिए नफरत और सिर्फ नफरत बची रह गई थी।ऐसे में परिवार के लिए मैं अब सिर्फ एक नासूर बन कर रह गया था।

इस रात मां जब मुझे खाना देने आई,तो मुझे वो भी सबके जैसी ही लगी। तिपाई पे खाना रखकर मां ने डरते-डरते मेरे कंधे पे हाथ रखा और खाने को बोली। मैंने चिल्ला कर खाना फेक दिया और वहशियों की तरह चिल्लाने लगा। मां डर कर रोती हुई भाग गई। मैं चिल्लाता रहा।सबने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।

मैं चिल्लाता रहा.....चिल्लाता रहा और अंत में थककर निढाल हो गया।

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो देखा मेरे हाथ-पांव स्ट्रेचर पर बंधे थे और मुझे एंबुलेंस में चढ़ाया जा रहा था। सबको लग रहा था कि मैं अब किसी के सम्हाले नहीं सम्हलूंगा, लेकिन मैं आश्चर्यजनक रूप से शांत हो गया था....संज्ञाशून्य की तरह। मेरी जिंदगी का.....अगर इसे जिंदगी जैसा कुछ माना जाय तो...उसका एक अध्याय आज समाप्त हो रहा था।

अस्पताल का माहौल ही मेरे लिए अब मेरी जिंदगी का अगला अध्याय था।जिस अस्पताल में मुझे ले जाया गया वो एक सरकारी अस्पताल था,जो कि पागलों के लिए ही समर्पित था।वहां अधिकांशतया ऐसे ही मानसिक मरीज भर्ती किए जाते थे जो परिवार और समाज के लिए नाकाबिलेबर्दाश्त हो गए होते थे।

सबसे पहले मुझे बंधे हुए हालत में ही काफी देर तक अस्पताल के वार्ड के गलियारे में छोड़ दिया गया, पता नहीं कितनी देर मैं चुपचाप छत की ओर सूनी नजरों से घूरता रहा। फिर कुछ लोग आए और स्ट्रेचर लुढ़का कर अंदर ले गए।

अंदर एक विशाल कक्ष था जिसमे एक बड़े टेबल के पीछे एक बुजुर्ग बैठे थे,शायद डॉक्टर थे।को कुछ लिख रहे थे और मुझे साथ लेकर अंदर आने वाले कर्मचारी अदब से वहां खड़े थे।

थोड़ी देर में वह बुजुर्ग कुर्सी से उठकर मेरे पास आए और सीधे मेरी आंखों में देखा। मैंने कोशिश की कि उन्हें खा जाने वाली नजरों से देखूं, परंतु उनकी आंखों में इतना अपनापन और वात्सल्यता थी कि मैं उन्हें इस तरह देख ही नहीं पाया।

'तुम तो बिलकुल ठीक हो' मेरे सर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने जैसे बहुत गहराई से कहा। फिर उन्होंने मेरे लिए कुछ टेस्ट लिखे और मुझे ले जाने को कहा। मैं उनसे दूर जाते हुए भी उन्हें ही देख रहा था।वो अब भी मुझे देखते हुए मुस्कुरा रहे थे। उस मुस्कुराहट में पता नही कैसा अपनापन...कैसा विश्वास था कि मेरी आंखों से अश्रुधारा ज्वालामुखी की तरह उबल-उबल कर बाहर आने लगी। मैं पहले सिसक-सिसक कर फिर जोर-जोर से रोने लगा। मुझे ले जा रहे अस्पताल के कर्मचारियों पे इन सबका कोई असर होता नही जान पड़ा। एक पागल से वे उम्मीद भी तो ऐसे ही व्यवहार का करते होंगे।

उस रात मुझे जनरल वार्ड में एक बिस्तर दे दिया गया,मेरे हाथ-पैर खोल दिए गए।वहां लेकिन कड़ी निगरानी थी। दो-तीन दिन के बाद मैं वहां के माहौल का अभ्यस्त होने लगा।दवाइयों की वजह से मुझे काफी भूख लगती और बहुत अच्छी नींद आती। बीच -बीच में वह डॉक्टर भी मुझे देखने आते रहते।

छह महीने के अंदर ही मैं काफी हद तक ठीक हो चुका था। एक दिन मां मुझसे मिलने आई।उन्हें लग रहा था कि मैं वहां बेड़ियों में जकड़ा हुआ होऊंगा,बार-बार मुझे बिजली के झटके दिए जा रहे होंगे,लेकिन वहां ऐसा कुछ न था।मां मेरा ऐसा सुधरा हुआ रूप देखकर हतप्रभ रह गई। मैं अब सामान्य इंसान की तरह व्यवहार कर रहा था। तभी वही बुजुर्ग डॉक्टर भी वहां आए। मां ने उनके पैर पकड़ लिए। 

आज मैं एक स्वस्थ जिंदगी जी रहा हूं। सभी पागल लाइलाज नहीं होते।समय पर इलाज कर उन्हें स्वस्थ किया जा सकता है।


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