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sukesh mishra

Abstract Tragedy Fantasy

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sukesh mishra

Abstract Tragedy Fantasy

सितारे लौट आओ ना

सितारे लौट आओ ना

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कमबख्त मौत ......!!

सारी उम्र एक छलावे कि तरह जिंदगी के आगे-पीछे मंडराती फिरती है, और जब आती है तो कितने-कितने नखरे दिखाती है.

मेरी सारी चालबाजियां, सारी तरकीबें, सारी भक्ति, सभी प्रार्थनाएं, सारी चैतन्यता, सारे सम्मान, सभी अपमान, सारी लालसा, जिजीविषा, दौड़-भाग, कोलाहल, चिर-परिचित से लेकर अजनबी चेहरे, सभी जाने-पहचाने रास्ते ........सब तिरोहित हो रहे हैं. सभी ग्रन्थ, सब दर्शन बेमानी हो चुके हैं आवाजों के नए स्वरुप सुनाई पड़ रहे हैं जिनको किसी भी खांचे में नहीं रखा जा सकता, जो किसी वाद्य यन्त्र से निकली हुई तरंगों से परे है.

बचपन, खिलौने, अम्मा की गोद, स्कूल की चाहरदीवारी से लगा हुआ वो पेड़ .......बड़ा सा पेड़ ...किस चीज़ का?? ठीक से समझ नहीं पा रहा...कौन सा अजीब फल वाला पेड़....और उसके नीचे लसलसी सी चिपचिपी ज़मीन. मेरे हाथ अनायास ज़मीन पर फ़ैली हुई उस लसलसी सी चीज़ से सराबोर हो जाती है....!

"अरे .इसके तो फिर ब्लीडिंग शुरू हो गयी है....डॉक्टर...डॉक्टर...पेशेंट को दुबारा ब्लीडिंग होने लगी है...!! कानों में दूर से जैसे सुरीली आवाज बांसुरी की तरह अपने स्वर बिखेर रही है.

ओ हो, तो ये चिपचिपी चीज़ मेरा ही खून है जो पसरकर फ़ैल गयी है....वाह !! अपना खून !!!

भागते क़दमों की आवाज आ रही है, कुछ लोग आये हैं, कोई मेरी आँख की पपनीयों को उठा कर उस पर रोशनी फेंक रहा है, ......! तेज़, झामाकेदार रोशनी !!

"उम्मीद बहुत कम है" -- किसी की ठहरी हुई आवाज.

मरते वक़्त अन्दर क्या चल रहा होता होगा? मैं हमेशा सोचता रहता था, और आज आ ही गयी है तो हकीकत और फ़साने दोनों मिलकर एक हो गए हैं.आँखों में तेज़ रोशनी का असर अभी तक है, अब ये सोना चाहती हैं ...चुपचाप !! 

" तरसती आँख बरसों से ,इसे अब नींद लेने दो !

कि इतनी उम्र के भी बाद इसको चैन ना आया !!"

एक अँधेरी गली, आगे बढ़ता हुआ मैं, रास्ते का कोई ओर-छोर नहीं ..मुझे डर लग रहा है, अजीब किस्म की सरसराती हुई डर..जो मेरे दायें गले से होते हुए मेरे सारे बदन में उतरती जा रही है.. मैं हाथ से उस डर के सारे उलझे हुए गोलों को एक झटके में उखाड़ फेंकना चाहता हूँ जो धीरे -धीरे मेरे पेट में बैठती जा रही है. लेकिन मेरे हाथ में उसका सिरा आ ही नहीं रहा है.....!!

लो.....रास्ते का अंत आ गया है, वो बूढा आदमी रास्ते के अंत पर उकडूं बैठा हुआ है, ये कौन है ?? डर की रस्सियाँ फिर से मेरे गले के बगल से मेरे अन्दर जाने लगी हैं.

 बाबा ?? .... ये तो बाबा हैं .. ये यहाँ क्यों हैं?

"बाबा, आप ? आप मेरे साथ चलते थे तो मुझे कभी डर नहीं लगा, फिर आप चले गए एक दिन, आसमान में चमकने लगे" मेरी आवाज फंस फंस कर कंठ से निकल रही है.-- "अम्मा कहती थी कि आप हम सभी को ऊपर आसमान से हमेशा देखते रहते हैं,और हमें डरने कि कभी जरुरत नहीं है, क्यूंकि आप हमेशा हम सब के साथ हैं "

 बाबा नज़र उठा कर मेरी तरफ देखते हैं, वो नज़र ... उसमे कुछ भी नहीं है .. बेलिबास नज़र. ना प्रेम, ना नफरत ना उद्वेग ना आवेग ..कुछ भी नहीं ...बेलिबास."

" बाबा, आप तो सितारे बन गए थे ना, सबसे ज्यादा चमकने वाले सितारे..अँधेरी रात में मुझे डर लगता था तो मैं आपको देखा करता था और मेरा डर छू -मंतर हो जाता था. और आज आप रास्ता रोककर क्यूँ बैठे हो? बाबा हटो ना, जाने दो ना बाबा, मुझे डर लगता है यहाँ".

बाबा उठ खड़े होते हैं, अचानक बाबा की नज़रें बालिबास होने लगती हैं, उन नज़रों में करुणा,दया, प्रेम, वात्सल्य, सब उतर आता है....बाबा का शरीर चमकने लगा है, वो प्रकाश पुंज में बदल रहे हैं, उनका हाथ मेरी ओर बढ़ता है..मैं उनकी ओर अपना हाथ बढाता हूँ और मुझे एक क्षण में अपने जीवन की सभी घटनाएं तैरती हुई सी दिखाई पड़ती हैं, अब मैं भी उनके साथ प्रकाश पुंज में बदलता जा रहा हूँ. हम दोनों जैसे हवा से भी हलके हो चुके हैं. रास्ता खुल गया है, और मैं बाबा के साथ आगे कि यात्रा पे निकल पड़ता हूँ, 

मेरे कानों में कहीं दूर से एक क्षीण अस्फुट स्वर सुनाई पड़ता है, "पेशेंट इज़ नो मोर......!!" 


  



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