लिफ्ट
लिफ्ट
जेठ कि उस सुनसान दोपहरी में मैं रामपुर जाने वाली खटारा सी बस में पसीने से तरबतर ऊंघता हुआ सा बैठा था, काफी भीड़ भी थी और गर्मी का असर लोगों के भीगे और पीठ से चिपके हुए कपड़ों में दिख रहा था. बस की खडखडाती हुई खिडकियों से गर्म झुलसाती हुई हवा बदन को और भी झुलसाए दे रही थी. कंडक्टर से थोड़ी देर पहले ही मैंने रामपुर के लिए पूछा था और उसने भी हाथ के इशारे से ही जतला दिया था कि आते ही बता दूंगा...पता नहीं उसे बताना याद भी रहेगा कि नहीं यही सोचता हुआ मैं बीच-बीच में उसकी तरफ देख लेता था, इस उम्मीद में कि हमारी नज़रें मिल जाय और उसे मेरी याद बनी रहे, और मैं कहीं सो भी जाऊं तो वो मुझे जगा दे.
फटाक ......................,!!!
तभी एक जोर की आवाज हुई और बस अजीब तरह से लहराने लगी. मैं आवाज से हडबडाकर उठा, सारे बस में विचित्र सी चीख-पुकार और कोलाहल मची हुई थी, किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. बस लहराते-डगमगाते हुए रुक गयी. सभी के साथ मैं भी जैसे-तैसे जल्दी-जल्दी बस से नीचे उतरा. पता चला कि अगला टायर फट गया था और ड्राइवर किसी तरह बस को सम्हालते हुए रोकने में सफल हुआ था. सभी मुसाफिर किसी अनहोनी के टल जाने को लेकर राहत कि सांस ले रहे थे परन्तु एक नयी दुश्चिंता सभी के चेहरे पर झलक रही थी कि अब कितनी देर लगेगी इसे ठीक होने में.
कंडक्टर ने इसी बीच मुसाफिरों के बीच में आकर घोषणा की कि स्टेपनी नहीं होने की वजह से गाडी के ठीक होने में काफी समय लगेगा, जिन लोगों को रुकना है वो रुके और जिन्हें जाना है उनका यहाँ तक का भाड़ा काटकर बाकी पैसे दे दिए जायेंगे. उसके इतना कहते ही लोगों ने उसे घेर लिया और जिनको वहां से अपने गंतव्य की दूरी का पता था या कोई सवारी मिलने कि उम्मीद थी वह अपना पैसा वापिस लेने में व्यस्त हो गए. कुछ ऐसे मुसाफिर, जो भारी साजो-सामान अथवा पूरे परिवार के साथ सफ़र कर रहे थे वे मन मसोसकर बस ठीक होने के इंतज़ार में सड़क के आस -पास कोई छायादार पेड़ कि तलाश करने लगे.
मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या करूँ. मुझे ये पता भी नहीं था कि रामपुर यहाँ से कितनी दूर है, मैं एक दवा कम्पनी में काम करता था और ऑफिस के काम से रामपुर जा रहा था.जहाँ मुझे दवाओं के खुदरा विक्रेताओं से रुपये-पैसे का हिसाब कर आज ही वापिस लौटना था. धीरे-धीरे अधिकांश यात्री कंडक्टर से पैसे का हिसाब कर या तो चले गए थे या कुछ आती-जाती इक्का दुक्का गाड़ियों से लिफ्ट मिलने का इंतज़ार कर रहे थे. मैंने रामपुर तक के बाकी पैसे कंडक्टर से वापिस पाने के मोह को दरकिनार करते हुए सड़क के उस पार चलना मुनासिब समझा ताकि मुझे भी कोई लिफ्ट हासिल हो सके.
काफी देर तक आती-जाती हुई गाड़ियों को हाथ दिखाने के बावजूद किसी ने भी अपनी गाड़ी नहीं रोकी. ऊपर से चिलचिलाती धुप में मैं पसीने से करीब-करीब भीग गया था. आखिरकार निराश होकर मैं वापिस किसी पेड़ कि छाया में वापिस जाने कि सोच ही रहा था कि दूर कहीं मुझे एक मोटरबाइक आती हुई दिखाई दी, नजदीक आने पर मैंने जोर-जोर से हाथ हिला कर लिफ्ट का इशारा करना शुरू कर दिया. उम्मीद के विपरीत वह मोटरबाइक मेरे पास आकर रुक गयी. एक पचास-साठ वर्ष के अधेड़ व्यक्ति थे, गर्मी से बचने के लिए पूरे चेहरे पर गमछा लपेटे हुए थे, मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे.
"रामपुर तक जाना है, बस खराब हो गयी है और कोई सवारी नहीं है" -- झिझकते हुए मैंने अनुनय किया.
उन्होंने पीछे बैठने का इशारा किया.मैं कृतज्ञता ज़ाहिर करते हुए बैठ गया और मोटरबाइक चल पड़ी.
"रामपुर किसके यहाँ जाना है?"
"मैं तो कम्पनी के काम से जा रहा हूँ और आज ही लौटना भी है रास्ते में बस खराब हो गयी इसीलिए मजबूरी में आपको कष्ट देना पड़ा"
"नहीं नहीं......इसमें कष्ट देने वाली कोई बात नहीं, मैं तो उधर जा ही रहा था लेकिन मेरा घर रामपुर से करीब एक किलोमीटर पहले ही है"
"कोई बात नहीं, मैं वहां से चला जाऊंगा किसी तरह"
"कैसी बात करते हैं? मैं आपको रामपुर तक भिजवा दूंगा आप तबतक मेरे घर चलिए वहाँ थोड़ी देर छाया में बैठकर पानी-वानी पी लीजियेगा, गर्मी बहुत है आज"
अब मैं उनसे क्या कहता? मन तो हुआ कि मना कर दूँ.लेकिन सही नहीं लगा ऐसा कहते हुए, अतः चुप ही रहा.
तकरीबन आधे घंटे के बाद वे मुख्य रास्ता छोड़कर एक कच्चे रास्ते का अनुसरण करने लगे, मुझे शंका हुई तो सोचा पूछता हूँ लेकिन इससे पहले ही थोड़ी दूर आगे जाकर उन्होंने बाइक रोक दी. सड़क के किनारे पुराना सा एक घर बना हुआ था और सरकंडों से उसके चारों ओर एक घेरा बना दिया गया था. मैं समझ गया कि यह उनका ही घर होगा. उन्होंने मुझे अन्दर आने का इशारा किया. मुझसे कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था अतः चुपचाप उनके पीछे हो लिया.
वह दो कमरों का एक बिना पलस्तर का मकान था जिसकी ईंटें जहाँ-तहां से उखड़ी हुई थी. मुख्य कक्ष में दो खाट बिछी हुई थी, एक पर पुराने मैले कपड़ों का ढेर बिखरा पड़ा हुआ था जिसे वो मेरी नज़रों से बचाने का भरसक प्रयास करते हुए से जान पड़े. दूसरी खाट पे एक चादर बिछी हुई थी जिसपर उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया. मेरा मन वहाँ से निकलने को व्याकुल हो उठा.
"सुनिए ना,......!! रहने दीजिये, मैं यहाँ से चला जाऊंगा, मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी" -- मैंने उनसे इजाज़त मांगी.
"अरे . ऐसे -कैसे? बैठिये तो सही.... शकुन्तला .... कहाँ हो? मेहमान आये हुए हैं .. ज़रा इधर सुनो तो"
मैं हारकर बैठ गया. उनके पुकारने पे एक अठारह-उन्नीस बरस की बालिका आई. वो शायद शकुन्तला थी.
शकुंतला अपने नाम के अनुरूप ही थी. मुझपर नज़र पड़ते ही एक अजनबी को देखकर वह किंकर्तव्यविमुढ़ हो कर जहाँ की तहां खडी रह गयी. तबतक उसके पिता दुसरे खाट से सारे कपडे हटा चुके थे. शकुंतला का परिचय देते हुए मुझसे बोले "यही मेरी एकमात्र औलाद, मेरा सहारा, मेरी बेटी है." फिर उसकी ओर मुखातिब होते हुए स्नेहिल स्वर में बोले" जा बेटा, मेहमान जी के लिए कुछ पानी-वानी का प्रबंध कर, थके हुए आये हैं,बहुत गरमी है.
शकुंतला पानी लेन चली गयी, उन्होंने मुझे खाट पे बैठने का आग्रह किया और स्वयं मेरे बगल में खड़े होकर अपने गमछे से मुझे हवा करने का प्रयास करते हुए कहने लगे " क्या कहूँ गरीब इंसान हूँ शकुन्तला ही मेरा एकमात्र सहारा है, 2 बरस पहले इसकी माँ स्वर्गवासी हो गयी, तब से बिना माँ की बेटी को घर पर अकेला छोड़ कर कहाँ जाऊं? क्या करूँ? बाज़ार में होम्योपैथी की एक दूकान चलाता हूँ उससे किसी तरह बाप-बेटी का गुजर बसर हो जाता है.आज भी दूकान के लिए दवाई लेकर ही लौट रहा था कि रास्ते में आप मिल गए.
शकुंतला तबतक पानी ले आई थी.
"किस कक्षा में पढ़ रही हो?' मैंने उसके हाथ से पानी लेते हुए उत्सुकतावश उससे पूछा.
" मेट्रिक प्रथम श्रेणी में पिछले बरस पास की थी मेरी बेटी, लेकिन उसके बाद माँ गुजर गयी और इसकी सारी पढ़ाई लिखाई उसके जाने के साथ ही चली गयी ---- जवाब शकुन्तला के बदले उन्होंने दिया
"आप के लिए जलपान का प्रबंध करता हूँ" -- उन्हें जैसे याद हो आया
"नहीं नहीं .. मुझे देर हो रही है, अब मुझे चलना चाहिए, आपने मेरी इतनी मदद की इसके लिए मैं कैसे आपका शुक्रिया करूँ, वैसे आपका नाम भी मैं नहीं पूछ पाया जल्दबाजी में"
" अरे ऐसी कोई बात नहीं है, लोग मुझे दीनबंधु के नाम से जानते हैं, और बेटी तू अभी तक यहीं है? जा न, जल्दी से कुछ जलपान लेती आ"
शकुंतला कुछ देर अपलक अपने पिता की ओर ताकती रही, फिर छोटे-छोटे क़दमों से अन्दर चली गयी.
मुझे ना चाहते हुए भी वहां बैठना पड़ रहा था, काफी वक़्त गुजर गया था और मेरा मन वहां से निकल जाने को व्याकुल हुआ जा रहा था.. परन्तु कैसे एक मददगार के सरल आग्रह को ठुकराते हुए निकल जाऊ? कुछ समझ नहीं आ रहा था.
"आप किस तरह का काम करते हैं"--उन्होंने जलपान आने तक बात को आगे बढाने की गरज से पुछा.
"मैं एक दवा कम्पनी में काम करता हूँ, समय-समय पर मुझे खुदरा व्यापारियों से हिसाब-किताब के सिलसिले में यहाँ-वहाँ आना जाना लगा रहता है."
तबतक शकुन्तला एक पुराने से रकाबी में एक लड्डू और एक निमकी लेकर आई. दोनों ही वस्तुएं काफी पुरानी लग रही थी, जैसे महीने भर से उसे किसी के इंतज़ार में कहीं छुपा कर रखा गया हो...बहुत ही सकुचाते हुए खाट के सिरहाने में रखकर वो चली गयी. मैंने लड्डू उठाकर खाने कि कोशिश की लेकिन उसमे से अजीब सी बासीपने की महक आ रही थी.. मुझसे खाया नहीं गया. मैंने निश्चय कर लिया कि अब यहाँ मैं एक पल भी नहीं रुकुंगा.वैसे भी काफी देर हो चुकी थी.
"अच्छा, अब इजाजत दीजिये, मैं चलता हूँ"
"जलपान तो कर लीजिये" -- उनके स्वर में अजीब सी दीनता आ गयी..
"माफ़ कीजिये, फिर कभी"..कहता हुआ मैं उठ खड़ा हुआ.
दीनबंधु मेरी बात सुनकर बिलकुल ही व्याकुल से दिखने लगे,---"थोडा सा तो ग्रहण करिए, हम गरीब की कुटिया से ऐसे बिना अन्न जल ग्रहण किये आप गए तो मन बहुत कचोटेगा"
उनके इस प्रकार के आग्रह पे मैं पुनः बैठ गया और ना चाहते हुए भी तश्तरी में से बसी लड्डू उठाकर मुंह में रख लिया. अजीब सा स्वाद हो गया था उसका -- मीठा भी..कसैला भी.मैंने किसी तरह पानी के साथ उसे गले के अन्दर धकेल दिया. तबतक हाथ धुलवाने के लिए शकुंतला एक लोटे में पानी लेकर सकुचाती हुई आकर खड़ी हो गयी. दीनबंधु जी दौड़ कर एक पुरानी तौलिया लेकर आ गए . मैं ने उनसे पुनः विदा मांगी, वह स्वयम मुझे रामपुर तक छोड़ने के लिए साथ विदा हुए. शकुंतला को मैंने अंतिम बार देखा.वह नज़रें झुकाए चुपचाप खडी थी. मै उसकी ओर बढ़ा अपने पर्स से कुछ रूपये निकालकर उसे देने चाहे. वह व्याकुल हिरनी सी बदहवास होकर अपने पिता की ओर देखने लगी. दीनबंधु जी ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए. "इसकी कोई जरुरत नहीं, आइये आपको रामपुर तक छोड़ दूँ".
दीनबंधु जी के साथ मोटरबाइक पर बैठते हुए मैंने आखिरी बार शकुंतला को देखा. उस अँधेरे सीलन भरे उजड़े हुए घर के हर कोने तक उसका प्रकाश फैला हुआ था.

