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sukesh mishra

Classics

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sukesh mishra

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कोलियरी की यादें (भाग 1)

कोलियरी की यादें (भाग 1)

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मैंने जब से होश संभाला तब से मेरी दुनिया कोल माइंस के इर्द-गिर्द ही पनपती रही. मेरे पिता भारत के एक नामी स्टील कम्पनी के झारखण्ड में अवस्थित कोलियरी डिवीज़न में वर्कर थे. वहाँ की दुनिया आम दुनिया से बिलकुल ही अलग थी.कोलियरी के रिहायशी इलाकों के आगे बड़े-बड़े ओपन कास्ट खदान हुआ करते थे,जिनमे से दिन-रात कच्चा कोयला निकाला जाता था,जिन्हें दैत्याकार गाड़ियों में भरकर वाशरी भेजा जाता था.वहां भयानक मशीनों के मकडजाल से गुजारकर उन्हें साफ़ किया जाता था और ट्राली या कन्वेयर बेल्ट  के द्वारा साफ़ कोल डस्ट रेलवे यार्ड में भेजा जाता था, वहां से मालगाड़ी में भर-भरकर इसे जमशेदपुर स्टील प्लांट के धमनभट्ठी में भेजा जाता था. इन सारी कारगुजारियों की  वजह से कोलियरी में चारों तरफ काले धूल के गुबार छाये रहते थे और सभी के नाक-कान और मुह अन्दर तक कोल डस्ट से सराबोर रहते.हर तरफ पुराने ख़राब अजीबोगरीब ट्रक और मशीनों के कबाड़ यहाँ-वहां बिखरे पड़े होते थे जिनमे से मोबिल और ग्रीस की महक वातावरण में फैली होती थी.

उन सबके बीच में रिहायशी टाउनशिप बने होते थे, जिनमे ऑफिसर और वर्कर कॉलोनी जान बूझकर  अलग-अलग बनाये गए थे और दोनों में ज़मीन असमान का फ़र्क रहता था .. मकान की बनावट से लेकर सुविधाओं के  लिहाज़ से कोई भी पहली नज़र में फ़र्क बता सकता था.

वर्कर के कवार्टर अमूमन लम्बी श्रृंखलाओं में बने होते थे और उन्हें ए,बी,सी डी जैसे नाम दे दिए जाते थे,उन क्वार्टरों में एक छोटा कमरा,वैसा ही छोटा रसोई घर और एक बाथरूम होता था. रसोई घर में कोयले का चूल्हा जलता था जिसके लिए कम्पनी समय-समय पर ऐसे प्रत्येक कवार्टर श्रृंखलाओं के पास एक डम्पर कोयला गिरा देती थी. वर्कर के बीवी बच्चे उन कोयले के ढेर से जल्दी से जरुरत के हिसाब से अपना हिस्सा लूटकर उसका पोड़ा जलाते थे, यानी की उस कोयले को एक बार जलाकर बुझाया जाता था तब वो चूल्हे में जलने लायक होता था. वर्कर के प्रत्येक क्वार्टर में लोग ठुंसे पड़े होते थे. ज्यादातर घरों में कामगारों के बीवी बच्चे ,माँ बाप और एक दो दूर के रिश्तेदार रहते ही थे. बिजली अक्सर नहीं ही रहती थी और गर्मियों में पानी की समस्या आम थी. घरों के पिछवाड़े में जले हुए कोयले और राख के ढेर लगे होते थे जिनके बीच में हम खेला करते थे. कोलियरी में वैसे तो सारा प्रशासन कम्पनी का ही होता था परन्तु उँगलियों पर गिने जाने लायक कुछ निहायत जरुरी सरकारी विभागों की उपस्थिति कम्पनी  किसी तरह बर्दाश्त करती थी जैसे डाक,पुलिस और सरकारी स्कूल. वैसे ये सब विभाग भी कम्पनी प्रशासन के रहमो-करम पर ही चलते थे,  

वर्कर कॉलोनियों के  बिलकुल उलट ऑफिसरों के रिहायशी इलाके  बिलकुल ही नफ़ासत से बनाये गए रहते थे.चौड़ी साफ़-सुथरी चमचमाती सड़क,ओहदे के हिसाब से बड़े-बड़े बंग्लो और उनके आगे बड़े ही करीने से सजाए गए भव्य बगान . दो कोठियों के बीच में बागीचे और उनमे लगे हुए फव्वारे और बेंच,गेस्ट हाउस, क्लब,खेल के मैदान और ना जाने क्या क्या. वर्कर या उनके घर के सदस्यों की इन इलाकों में आने जाने पर पाबंदियां लगी होती थी और कम्पनी के गार्ड दिन-रात उन इलाकों में पहरा देते रहते थे.ऑफिसर के बच्चों की पढाई के लिए किंडर गार्टन और होली क्रॉस स्कूल थे.

वर्कर कॉलोनियों  के बीच में शॉपिंग सेंटर बने होते थे जहाँ से सभी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों का सामान खरीदा करते थे. वहां शेड में सब्जी-फल मीट-मछली, अंडे इत्यादि की दुकाने एक तरफ और राशन,कपडे,बर्तन,किताब और खिलोनों की दुकाने दूसरी तरफ थी.सब कुछ यंत्रवत था. कामगार दिन में फैक्ट्रियों,कोयला खदानों में काम करते और शाम ढले वहां इकट्ठे होकर घर के सामान की खरीददारी करने के साथ पास के खोमचों में चाय की चुस्की के साथ गप-शप करते थे और पुनः अपने-अपने दडबेनुमा घरों में समा जाते थे.

वर्करों को तनख्वाह बिलकुल समय पर मिल जाती थी. पहली तारिख को. मेरे पिता कई बार जब तनख्वाह लाने जाते तो मुझे भी साथ ले आते थे. एक काउंटर पर कम्पनी का क्लर्क सबके लिए पहले से तय लिफाफे में उसका पैसा रखकर देता जाता था.लिफाफे के ऊपर पूरे  महीने के काम,ओवरटाइम,छुट्टियों की वेतन कटौती और  ना जाने कितनी बातों का हिसाब रहता था. कुछ तो मुझे आज तक समझ  में नहीं आई ..जैसे फ़र्लो वेतन.

पहली तारीख तनख्वाह की वजह से उत्सवी दिन बन जाता था. पैसे मिलने के साथ ही कुछ लोग मीट-मछली की दुकानों की तरफ दौड़ लगाते,कुछ मिठाइयों,कपडे-लत्ते,खिलौनों की दुकानों पर टूट पड़ते.बहुत सारे तो कोलियरी के बाहर जंगलों में सरकंडों से बने अस्थायी शराब और जुए के अड्डों का रुख करते और शाम तक लुट-पिट कर घर आते. उनकी घरवालियाँ फिर कलेश करती और रो-रो कर सारे मोहल्ले को उनकी करतूतों से सबको अवगत करवाती और फिर पूरे महीने पड़ोसनों से उधार मांग-मांग कर घर चलातीं.यही हाल उन लोगों के घर का भी होता जो महाजनों से ब्याज पर पैसा उधार लिए रहते थे और तनख्वाह मिलने के साथ ही महाजन के गुंडे उन पैसों में से ब्याज की वसूली करके बाकी रकम छोड़ देते थे.

तनख्वाह मिलने के दिन का सुरूर जल्दी ही उतरना शुरू हो जाता था और महीने के तीसरे हफ्ते आते-आते सबकी हालत पतली हो गयी रहती थी.घरों से पैसों को लेकर होने वाली चिकचिक दीवारों को पार कर बाहर तक फ़ैल जाती थी और कितने ही घरों में नौबत गाली-गलौज और मारपीट तक आ जाती थी.जो लोग महीने के पहले हफ्ते में बुशर्ट पेंट और जूतों के बिना बाहर नहीं निकलते थे वे आखिरी सप्ताह में नंगे बदन लुंगी या गमछी लपेटे हुए घरों के बाहर कोयले के चूल्हे पे बिना दूध की लाल चाय उबालते हुए मिल जाते थे.

ऑफिसर कॉलोनी बिलकुल शांत रहती थी,सड़कें सूनी-सूनी और खामोश हुआ करती. उनकी चुप्पियों को साहब की पोर्च से निकलने वाली गाड़ियाँ कुछ देर के लिए तोड़तीं और फिर से सन्नाटा  छा जाता. साहब ऑफिस चले जाते और उनकी मेमें या तो क्लब निकल लेती या किसी के यहाँ किट्टी पार्टियों में व्यस्त रहतीं. उनके बच्चों को देखने के लिए आया और घर के काम के लिए नौकर रहा करते जिनके आवासन के लिए कम्पनी ने प्रत्येक बंगलों के ना दिखने वाले कोनों  में एक कमरे का आउटहाउस बना रखा था.उसी एक कमरे में पूरा नौकर परिवार रहा करता जो  कि अधिकतर स्थानीय जनजातीय परिवारों से आते थे.

अलबत्ता वर्करों के मुहल्लों में खूब चहल-पहल रहा करती थी. मोहल्ले में औरतें अलग अलग गुटों में बंटकर सारे दिन गप्प्बाजियाँ किया करतीं. कौन अपने सास को दुःख देती है, किसका अपने पति से झगडा हुआ,किस लड़के का बगल के घर की लड़की से चक्कर चला हुआ है, कौन सी लड़की चेहरे से मासूम लेकिन अन्दर से दिलफेंक है . किसका पति किसी और की पत्नी के साथ प्रेमालाप करते पकडाया या किसकी पत्नी किसी और के पति को घर में बुला ली.....ये सब बातचीत के प्रिय विषय हुआ करते.



 

  

 

  


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