sukesh mishra

Others

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एक शहंशाह से मुलाक़ात

एक शहंशाह से मुलाक़ात

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लाल क़िले की ऊँची चहारदीवारी के सामानांतर सड़क पे चलते-चलते अचानक मैं ठिठक गया।

 जून की प्रचंड गर्मी धरती की सारी वस्तुओं को झुलसा देने को आतुर थी। दोपहर ढल रही थी फिर भी गर्मी की तपिश बहुत ज्यादा थी. पैदल चलने वाले राहगीर न के बराबर नज़र आ रहे थे. चौड़ी चिकनी सड़क पर केवल गाड़ियां ही सरपट दौड़ रही थी. कहीं कहीं पानी शिकंजी बेचने वाले छतरी लगाए अनमने भाव से बैठे दिख रहे थे। थोड़ी ही दूर आगे एक शख्स पुराने राजाओं जैसी पोशाक पहने राह किनारे पेड़ की छाँव में लगी हुई बेंच पे बैठा था, और अपनी धुन में बड़बड़ाये चला जा रहा था. पहले तो मुझे लगा की कोई पागल इंसान होगा जो अजीबोगरीब कपडे पहन के बैठा बड़बड़ा रहा है, लेकिन उसके कपडे बहुत कीमती लग रहे थे. गर्मी से बेहाल तो मैं भी था, उत्सुकतावश सोचा कि उसके बगल में बैठ कर थोड़ा सुस्ता भी लूंगा और कुछ बातें भी हो जाय शायद उस अजीब इंसान से, सो मैं भी उसके बगल में जाकर बैठ गया।

उसका अपने आप से बड़बड़ाना रुक गया, और उसने मेरी तरफ देखा। उसका लम्बोतरा चेहरा गर्मी और पसीने की वजह से तमतमाया हुआ सा लग रहा था। मूछें सफाचट थी लेकिन दाढ़ी करीने से बढाई हुई थी। गर्मियों के उस मौसम में भी उसने पुरे राजसी वस्त्र को धारण किया हुआ था। उसकी आँखें मानों तलवार की धार जैसी पैनी और बेरहम लग रही थी। ऐसी आँख जिससे मिलाने का ताव मैं नहीं ला सका और मुझे नज़रें नीची करनी पड़ी. 

"आज गर्मी बहुत है" -- मैंने बातों का सिलसिला शुरू करने के इरादे से उससे कहा। 

वह कुछ बोला नहीं ....... सिर्फ मुझे घूरता रहा.

"किसी नाटक कम्पनी से हो? या टीवी सीरियल की शूटिंग से आ रहे हो?" -- मैंने फिर उससे पूछा। 

वह फिर भी कुछ न बोला और मेरी ओर खा जाने वाली नज़रों से देखता रहा। 

"दिल्ली से ही हो, या कहीं बाहर से?" - मैंने फिर उससे पूछा। 

"तुम्हें तमीज नहीं कि शहंशाहे हिन्द से कैसे पेश आया जाता हैं ? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे बगलगीर होकर बैठने की?" -- उसने धीरे लेकिन बेहद भारी और खुरदुरी आवाज में मुझसे कहा। ऐसा लगा जैसे कोई शेर धीरे-धीरे गुर्रा रहा हो. उसकी आवाज इतनी सर्द और बर्फीली थी कि मेरे रीढ़ की हड्डी में सिहरन सी दौड़ गयी. 

"कौन शहंशाहे हिन्द" -- मैंने भयमिश्रित आश्चर्य से पूछा। 

"मैं आलमगीर औरंगजेब हूँ"

मेरी हंसी छूट गयी। "ओ महाराज औरंगजेब, अपने नाटक की दुनिया से अब बाहर निकल जाओ, शहंशाह गर्मियों में सड़क किनारे टूटी हुई बेंचों पे बैठा नहीं करते".

"उस शख्स के चेहरे पर मेरी बातों से विषाद की रेखाएं उभर आयीं, " यही तो अफ़सोस है, यह लाल किले की चहारदीवारी देख रहे हो न, कभी मेरा उसके अंदर दरबार लगा करता था, और मुझसे बेअदबी से बात करने की हिम्मत सारे हिन्दुस्तान में किसी की नहीं थी. वह समय होता तो तुम्हारा अभी तक सर कलम हो चुका होता, या तुम हाथी के पैरों तले कुचलवा दिए गए होते". -- कहते हुए उसकी आँखों में एक अजीब सी वहशियाना अमानुषिक चमक दौड़ गयी। 

 मुझे अब उससे डर सा होने लगा था। पता नहीं कैसा पागल था कि अपने आप को शहंशाह औरंगजेब समझ रहा था। ऐसे पागल का क्या भरोसा? मुझे यहाँ से चले जाने में ही अपनी भलाई नज़र आयी। 

"अच्छा महाराज जी, आप खोये रहिये अपनी दुनिया में, मुझे इज़ाज़त दीजिये, मैं अब चलता हूँ " मैंने खड़े होकर उसे पुराने दरबारियों के अंदाज में अभिवादन करते हुए कहा। 

उसके कठोर और खुरदुरे चेहरे पे मुस्कान की एक स्मित रेखा कौंध गयी। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। उसके हाथों की पकड़ लोहे के शिकंजे जैसी थी। मेरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गयी। 

"डरो मत बरखुरदार, मुझे प्यास लगी है, थोड़ा पानी पिला दो." -- उसकी आँखों में याचना थी। 

"सामने रेहड़ी से लेकर क्यों नहीं पी लेते?"

"मेरे पास देने को आज के समय की मुद्राएं नहीं है, वरना आज तक शहंशाहे हिन्द को किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ा" -- वह नज़रें झुकाये रो देने वाले स्वर में बोला। 

"ओ महाराज जी, मुझे अब सब समझ आ रहा है, यहाँ बैठ के पैसे मांगने के लिए इतनी स्वांग करने की क्या जरुरत थी? सीधे-सीधे नहीं कह सकते थे?

"खामोश ............. !! उसने लगभग दहाड़ते हुए आग्नेय नेत्रों से मेरी ओर देखा। कितनी ही देर तक वो मुझे देखता रहा ........ लेकिन उसकी आँखों में क्रोध कम और याचना ज्यादा दिख रही थी. 

"चलो, तुम्हें पानी पिलाता हूँ" मैंने संयत स्वर में उससे कहा.

"पानी यहाँ मंगवा दो" 

" ओ बादशाह जी, ये अब आपकी रियासत नहीं, पानी पीनी हो तो उठ के चलिए, गुलामों के दौर गुजर गए। वो यहाँ आ के आपको पानी नहीं देने वाला"

वह कुछ न बोला,चुपचाप लड़खड़ाते क़दमों से उठा और मेरे साथ-साथ चलने लगा. 

"एक बात बताइये राजा जी................" 

"राजा नहीं, जहाँपनाह हूँ मैं"

"ठीक है, ठीक है ..... वही .........., ये बताइए की आपने कभी किसी को पानी पिलाया?"

चलते-चलते वह सोच में पड़ गया, फिर अनमने भाव से बोला,"शायद नहीं, क्यूंकि मैं जहाँपनाह था" 

पानी वाले से मैंने उसे पानी पिलाने को कहा, और उसने जी भर कर पानी पिया। पानी पी कर उसके चेहरे पर प्रफुल्लता दिखाई देने लगी।

आसमान में अब बादल छाने लगे थे। शीतल हवा चलने लगी थी और मौसम अचानक सुहावना हो चला था। अब हम दोनों सड़क के किनारे-किनारे बातें करते हुए चलने लगे। 

"तो जहाँपनाह आप तो काफी क्रूर शासक माने जाते थे "  

"तुम्हारे अभी के शासक दरियादिल हैं?"

"दरियादिल हो या न हो, उन्हें क्रूर भी नहीं कहा जा सकता, तुमने तो अपने भाई को इन्हीं में से किसी सड़क पर पागल हथिनी पर बैठा कर बेईज्ज़त किया और मरवा डाला, भतीजे की आँखें निकलवा ली, पिता को कारागृह में सडा कर मरवा डाला, ऐसे तो नहीं हैं हमारे आज के राजा, क्यूंकि आज की शहंशाह जनता ही होती है कोई बादशाह नहीं"

"देखो तुम्हारे वक़्त के तराजू पर हमारे वक़्त को तौल कर लिया गया कोई भी निर्णय सही नहीं हो सकता" 

" लेकिन अन्याय, क्रूरता और अत्याचार को किसी भी वक़्त किसी भी बहाने से सही नहीं ठहराया जा सकता, तुम परपीड़क थे, सनकी थे और गुनाहगार भी थे। उसको अपने समय की जरुरत का नाम देकर सही साबित नहीं कर सकते तुम "

"कौन कहंता है मैं सही साबित कर रहा हूँ, मुझे कुछ भी साबित करने की जरुरत नहीं है, मैंने बहुत सारे अच्छे काम भी किये हैं लेकिन वक़्त के सीने पर इंसानों के बुरे कर्म दर्ज रह जाते हैं अच्छे कर्म जल्दी मिट जाते हैं" 

"इन सब बातों से तुम अपने मन को दिलासा दे सकते हो दुनिया को नहीं, लोगों के अच्च्छे बुरे सारे कर्म वक़्त की रेत पे दर्ज रहते हैं जहाँपनाह। कुछ भी नहीं मिटता। 

"शायद तुम ठीक कहते हो". उसने एक ठंडी ठंडी आह सी भरी.

"तीन सौ बरस बाद अब तुम यहाँ आये ही क्यूँ?

"म मुझे एक बार अपनी दिल्ली को देखना था"

"क्या लगा देखकर" 

"मेरे शासन में दिल्ली में इतनी रौनक नहीं थी, सब मेरे खौफ से डरे सहमे नज़र आते थे, मुझ अकेले से सारे हिन्दुस्तान के लोग खौफ खाते थे"

"तुम बादशाहों को लोगों की नज़रों में अपने लिए खौफ देखना क्यूँ पसंद होता है जहाँपनाह? अपने लिए लोगों के दिलों में प्रेम देखने की ख्वाहिश नहीं हुई कभी?

"खौफ देखने का अपना ही एक नशा होता है" उसने अजीब से भाव से कहा.

"और तुम किस्से डरते थे?" 

"मैं? मैं किसी से नहीं डरता था"

"क्यूँ झूठ बोल रहे हो? तुम डरते थे, अपने आप से डरते थे, तुंम निहायत ही डरपोक इंसान थे, खुद को हद से ज्यादा सुरक्षा देनें के लिए डरपोक इंसान सारी दुनियां पे कब्ज़ा करना चाहता है,सारी दुनिया को गुलाम बना देना चाहता है ताकि उसके अन्दर के डर को राहत मिल सके, उसे यह एहसास हो सके कि उसे नुक्सान पहुँचाने वाला अब इस दुनिया में कोई नहीं, क्यूंकि अविश्वास ही डरपोक इंसान का वजूद होता है और तुम भी उन सबसे अलग नहीं थे"

वह विचलित सा नज़र आने लगा, थोड़ी देर के लिए वह एकटक मेरी ओर देखता रहा, फिर बोला, "तुमको मुझसे डर नहीं लगा?"

"नहीं" मैंने भी उसकी आँखों में झांकते हुए कहा, "क्यूंकि तुम भूत हो और मैं वर्तमान, और अच्छा या बुरा करने का अधिकार ईश्वर ने सिर्फ वर्तमान को दिया है, भूत सिर्फ अपने कर्मों को याद कर खुश हो सकता है या रो सकता है, उसे बदलने की ताक़त नहीं रखता।

उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, " तुम अच्छे इंसान लगते हो मुझे। तुम मेरे समय में चलो, फिर तुम मेरे बारे में सही राय कायम करना।

मेरे होश गुम हो गए. "मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ कहीं,......नहीं जाना,...नहीं जाना .....नहीं ई ई ई ई ई ई .............

. मेरे कलाइयों पे उसके लोहे जैसे हाथों की पकड़ मजबूत होती जा रही थी और मैं उसके चंगुल से छूटने को फडफडा रहा था .......... कि तभी अचानक मेरी नींद खुल गयी. मैंने देखा माँ मेरी कलाई जोर से पकडे हुए थी और बोल रही थी तुझे कहाँ नहीं जाना? क्या हो गया है तुझे?

ओह !! तो ये एक सपना था !!!


   


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