साइनबोर्ड
साइनबोर्ड
रात अभी ज्यादा तो नहीं हुई थी लेकिन फिर भी आसमान में चाँद के नहीं रहने से अँधेरा कुछ ज्यादा ही लग रहा है। इस समय कृष्ण पक्ष चल रहा है।मधुसूदन चौड़े रास्ते से आँखें मिचमिचाकर उन संकरी तंग गलियों का मुहाना तलाशता है जो न मालूम कितने अजीबोगरीब मोड़ लेने के बाद उसे उसके घर तक पहुंचाएगी।
"आज फिर से मुनिया की माँ मुझसे बात नहीं करेगी, ये संगीसाथी भी न।बेमतलब की बहस में उलझा कर रख देते हैं" मधुसूदन मन ही मन मुनिया की माँ की सूरत को याद कर व्याकुल हो गया। गली अभी तक नहीं मिली थी। घर बदलने का यही सबसे बड़ा झंझट है, हफ़्तों गुजर जाते हैं रास्ते और गलियों को याद करने में। उसे अचानक ख्याल आया कि मुख्य सड़क से जो गली उसके घर तक जाती थी उसने उस जगह को याद रखने के लिहाज से ठीक उसी जगह एक बड़ी सी इमारत के ऊपर लगी हुई साइनबोर्ड को अपने मन में बसा लिया था। यह ख्याल आते ही मधुसूदन के चेहरे पे हलकी सी राहत आयी। उसने ऊँची-ऊँची इमारतों की और देखा। बहुत सारे रंग बिरंगे चमकते साइनबोर्ड नज़र आ रहे थे।
"लेकिन उस बोर्ड में तो एक औरत के गले में चमकता हुआ हार था"। मधुसूदन फिर व्याकुल हो गया। पहली नज़र में ही उसे वो हार बहुत पसंद आया था। मुनिया की माँ को वह वैसा ही हार देता तो वो कितनी खुश होती।कोई बात नहीं। उसका भी वक़्त आएगा। लेकिन अभी तो वो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था।
वहीँ सड़क के ठीक किनारे एक बड़ी सी आधुनिक परचून की दूकान का दरबान बहुत देर से उसे वहां खड़ा देख उसी की ओर घूरे जा रहा था। उस पर नज़र पड़ते ही मधुसूदन सिटपिटाकर थोड़ा आगे बढ़ आया। "ना मालूम इनलोगों को किसी को कहीं खड़ा रहना भी गवारा नहीं होता, सभीसड़क पे चलने वाले इन्हें चोरचहाड ही नज़र आते हैं'। परन्तु मन के इस भुनभुनाहट में मधुसूदन एक नयी दुश्चिंता से घिर गया। "मुनिया की माँ ने आज उसे खासकर मुनिया के जन्मदिन पर उसे कुछ मिठाई लाने के पैसे दिए थे। हाय!! वह अपनी प्राण से प्यारी बेटी का जन्मदिन कैसे भूल गया?" उसे लगा जैसे उसका कलेजा छलनी हो गया हो। बेख्याली में उसने मुनिया की माँ के दिए हुए तीन सौ पचास रुपये में से दो सौ अस्सी रूपये दोस्तों के संग पुरानी बंद पड़ी धागा मिल के खंडहरनुमा बारहदारी में सुबह से जमी हुई महफ़िल में खर्च कर डाले थे। सरूप ने समोसे के पैसे दिए थे, राघव ने चाय के, लूटन बीयर की दो बोतलें लाया था, वह क्या पान सिगरेट के पैसे भी न देता ? लेकिन मुनिया !! कितनी आशा से उसकी बाट जोहती होगी !
मधुसूदन को अब अपने आप पर बेतरह गुस्सा आ रहा था, आगे सड़क के किनारे कतारबद्ध हो बहुत सारे रिक्शे लगे हुए थे। स्ट्रीट लाइट की रौशनी में वहां बहुत सारे रिक्शेवाले फटी हुई, मैल के अनगिनत परतों की वजह से चीकट हुई बनियान और जैसेतैसे लपेटी हुई तहमद लपेटे हुए आपस में किसी बात पर हो हो करके हंस रहे थे। मधुसूदन दो रिक्शों के बीच थोड़ी सी खाली जगह के पास खड़े होकर जेब से सारे बचे हुए पैसे निकाल कर गिनने लगा। कुल सत्तर रूपये अभी बचे हुए हैं। इतने में कौन सी अच्छी मिठाई आएगी ? वह मन ही मन उन मिठाइयों को याद करने की कोशिश करने लगा जो सस्ती भी होती हैं और खाने में स्वादिष्ट भी। उसकी कल्पना में रसगुल्ला गुलाबजामुन गजक जलेबी रसमलाई लड्डू और पेड़े दिखाई पड़ने लगे। अपनी अब तक की ज़िंदगी में मदुसूदन का मिठाई से करीबकरीब बस इतना ही परिचय था। इन सबको याद करतेकरते उसकी जीभ पनिया गयी। रसगुल्ले गुलाबजामुन और रसमलाई को उसने मन ही मन उसके भाव का ख़याल आते ही दरकिनार कर दिया। लड्डू उसे बिलकुल सही प्रतीत हुआ। दाम में भी हलके और वजन, स्वाद में भारी। अब वो लड्डू की दूकान अभी कहाँ से ढूंढे? " थोड़ा और आगे चलते हैं, घर जाने वाली गली भी तो शायद आगे ही होगी मधुसूदन थोड़ा और आगे बढ़ा। मिठाई की दूकान तो उसे बहुत सारी नज़र आ रही थी लेकिन वह जानता था की बड़ी दुकानों में सस्ते मिठाइयों के भी दाम बहुत ज्यादा होते हैं। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था फिर भी वह अपनी धुन में आगे बढ़ता ही जा रहा था। मुनिया को वह लड्डू ले जाकर उसे अचंभित कर देगा, कितना प्रसन्न हो उठेगी वह।उसक शरीर तन गया, एक अजीब सी जिम्मेदारी के भाव से वह भर उठा " बेटी को बाबूजी का उपहार।।
अगले चौराहे पे उसे एक मनोवांछित दूकान मिल ही गयी। एक बुढ़िया म्युनिसिपलिटी के गटर के ऊपर कुछ सस्ते से मिठाई का खोमचा लगाए अनमनस्क भाव से बैठी हुई थी।
चीनी के लड्डू, बताशे और कुछ पुरानी पड़ जलेबियों के साथसाथ कुछ बेसन के लड्डू भी उसके खोमचे में थे।कुछ देर मोलभाव करने के बाद सौदा पट गया। साठ रुपये के आधा किलो लड्डू कागज में लपेटकर बुढ़िया ने मधुसूदन को बढ़ाया।
"पॉलिथीन में दो, काली वाली पॉलिथीन में" मधुसूदन मुनिया को अचानक हतप्रभ कर देना चाहता था।लेकिन बुढ़िया के पास पन्नी थी ही नहीं। इसीलिए मन मारकर उसे कागज में ही लड्डू लेने पड़े।
अब वह जल्दी से जल्दी घर पहुंच जाना चाह रहा था। लेकिन गलियां थी कि आज उससे बदला लेने पे उतारू थी। मिल ही नहीं रही थी। पूछे भी तो किससे पूछे। उसने सामने आते हुए राहगीर से टाइम पूछा। दस बजकर पच्चीस मिनट हो गए थे। मधुसूदन का सारा उत्साह जैसे झाग बनकर बैठ गया। उसे तो लगा था कि अभी मुश्किल से सात ही बजे होंगे, मुनिया तो नौ बजे तक सो भी जाती है। और मुनिया की माँ? आगे आने वाले विचारों को उसने सप्रयास झटक कर दूर कर दिया। उसे एकाग्र होकर अपने घर की ओर जाने वाली गली खोजना है। उसने फिर ऊँचीऊँची अट्टालिकाओं की ओर इस उम्मीद में निगाहें घुमाई कि कहीं उसका इक्षित साईनबोर्ड उसे दिख जाय लेकिन वह फिर कहीं नज़र नहीं आया।गुस्सा और बेबसी से उसकी आँखें भर आयीं। इतना मुर्ख कईं है वह? भला कोई अपना घर का रास्ता भी ऐसे भूल जाता है? मुनिया की माँ सही कहती है की वो किसी काम का नहीं। अंतहीन गलियों के अंदर बदबूदार नाले के किनारे झोपड़पट्टी के अंदर चारपाई पर गंदे चीथड़ों पर सोई हुई मासूम मुनिया का चेहरा उसकी आँखों में तैर गया। मधुसूदन जैसे आंधी में उखड़े हुए पेड़ की तरह ढह गया और जहाँ था वहीँ बेसुध सा बैठ गया। सड़क पर अब आवाजाही कम हो गयी थी, सिर्फ बड़ीबड़ी मोटरगाड़ियां ही फर्राटे से गुजर रही थीं। पैदल चलने वाले इक्केदुक्के ही नज़र आ रहे थे। मधुसूदन भावहीन सा सड़क के चारों ओर बड़ेबड़े साइनबोर्ड को पथराई सी आँखों से देख रहा था। लड्डू कबके उसके हाथों से छूट कर नीचे सड़क पर बिखर गए थे, जिन्हें पाने को आवारा कुत्तों में छीनाझपटी हो रही थी।