अजनबी
अजनबी
किसी ने किवाड़ की सांकल को जोर से खड़काया। पहले तो लगा कि हवा के चलने की वजह से सांकल गिर गयी होगी लेकिन पुनः जब जोर से खड़खड़ाने की आवाज हुई तो उठ कर देख लेना मुझे आवश्यक जान पड़ा, जाकर देखा तो दो युवक खड़े थे।एक तकरीबन बाइस या तेईस बरस का रहा होगा और दूसरा तीस से ऊपर का जान पड़ रहा था।शक्ल-सूरत दोनों की साधारण सी ही थी अलबत्ता आँखों में प्रौढ़ता जरूर समय से ज्यादा नज़र आ रही थी.
'कहिये, किनसे मिलना है आपको ?' मैंने प्रश्नवाचक निगाह से पूछा।
'आप ही श्रीनिवास जी हैं', प्रत्युत्तर में उनमे से ज्यादा प्रौढ़ युवक ने मुझसे प्रतिप्रश्न किया।
'जी हाँ, हूँ तो मैं ही, लेकिन आपलोग कौन हैं और मुझसे क्या काम है ?' मैंने अब सशंकित होकर उनसे पूछा।
'देखिये श्रीनिवास जी, अचानक यूँ इस तरह आपको बिना इत्तला दिए आपके घर पर आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ, लेकिन आपसे मिलना कुछ आवश्यक सा हो गया है इसीलिए आना पड़ा......' नवयुवक ने सफाई देते हुए कहना जारी रखा, ' मेरा नाम दुष्यंत है और ये मेरे बड़े भाई के सामान मेरे मित्र अनिमेष हैं।हम दोनों सदगति नाम की एक समाजसेवी संस्था में कार्य करते हैं जो उन लावारिस लोगों के अंतिम संस्कार का प्रबंध करती है जो इस समाज के ठुकराए गए लोग हैं....बेसहारा हैं.
'वो सब तो ठीक है, लेकिन आपकी इन सब बातों का मुझसे क्या प्रयोजन ?' मैंने जरा उकताहट भरे लहज़े में कहा.
' ऐसा है कि बात जरा लम्बी है, अच्छा नहीं होगा कि हम कहीं बैठ कर बातें कर सकें ?' अनिमेष ने अनुनय भरे स्वर में कहा।उसकी आंखों में विनय की ऐसी शीतलता थी कि मुख से न कहना चाहते हुए भी मेरा सर सहमति में हिल गया और मैंने उन्हें अंदर आने का रास्ता दे दिया। दो कमरों का मेरा वह छोटा सा अपना मकान था जिसमे एक बड़ा था जिसका इस्तेमाल मैं बैठक कक्ष के रूप था और छोटे कमरे को रसोई के तौर पर इस्तेमाल करता था. उन दोनों को लेकर मैं अपने बैठक में आ गया और उन्हें कमरे में पड़ी दो कुर्सियों पर बैठने का आग्रह किया। उन्होंने कमरे का सरसरी तौर पर मुआयना किया और थोड़ा सकुचाते हुए से कुर्सियों पर विराजमान हो गए।मैं खुद चारपाई पर बैठ गया और उत्सुकतावश उनके बोलने का इंतज़ार करने लगा.
गर्मी बहुत ज्यादा पड़ रही थी और बिजली भी नहीं थी अतः कुछ देर तो वे दोनों अपना रुमाल निकाल कर पसीना पोंछते रहे और उसे ही पंखे की तरह नचा कर चेहरे पर हवा करने की कोशिश करते रहे।फिर थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर अनिमेष ने कहना शुरू किया।
'श्रीनिवास जी, हमारी संस्था, जैसा कि मैंने आपको बताया कि समाज के बेसहारा लोगों के अंतिम संस्कार का यथासंभव प्रयत्न करती है और पिछले तीन बरस से यह कार्य करती आ रही है, तो अपने इस कार्य को जारी रखने के लिए हमारी संस्था को पैसों की आवश्यकता भी होती है और श्रमदान की भी, श्रमदान तो खैर बहुत से लोग समय आने पर कर भी देते हैं लेकिन रुपये-पैसे का प्रबंध बड़ी कठिनता से ही हो पाता है'
' ओ हो .. तो यह कहिये न कि आप लोग चंदा मांगने आये हैं' मेरी आवाज में कडुवाहट घुल गयी.
अनिमेष ने दुष्यंत की ओर हड़बड़ा कर देखा। दुष्यंत ने बात के सूत्र को अपने हाथों में लेते हुए व्याकुलता भरे स्वर में बोला, 'नहीं नहीं श्रीनिवास जी, हम आपसे कोई चंदा या रूपये-पैसे की आकांक्षा से नहीं आये हैं, आप हमारी पूरी बात तो सुन लीजिये'..
'ठीक है, कहिये' मैंने भी सोचा चलो अब तो सुन ही लेता हूँ की ये दोनों महाशय क्या कहना चाह रहे हैं.
दुष्यंत ने कहना शुरू किया, 'आज से तीन दिन पूर्व हम चंदा के सिलसिले में धनजोरी गाँव गए थे'
'धनजोरी ?' अचानक से जैसे मुझे महसूस हुआ कि बात उतनी सीधी नहीं है जितना मैं समझ रहा था.
'आप जानते हैं उस गाँव को ?' दुष्यंत ने मुझसे सवाल किया।
'न न नहीं तो'
'ठीक है, दुष्यंत ने पुनः कहना शुरू किया, तो जब हम उस गांव में अपनी संस्था के लिए चंदा लेने के उद्द्येश्य को लेकर पहुंचे तो हमें पता लगा कि उस रोज गांव में किसी की मृत्यु हो गयी है' इतना कहकर दुष्यंत मेरी ओर देखता हुआ चुप हो गया.
'किसकी ?' मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा.
'हमने पता किया,वो कोई बहुत वृद्ध औरत थी..बेसहारा थी, गांव की गलियों में भटकती फिरती थी, भीख मांग कर पेट भरती थी'.
'क कैसे मरी वो' ? मेरे स्वर में अब उत्तेजना झलकने लगी थी।अनिमेष जो अब तक हम दोनों के वार्तालाप के दौरान शांत था, बोला,' आप परेशान क्यों हो रहे हैं ?' हमें आपसे कुछ भी नहीं चाहिए, बस कुछ बातों की तस्दीक करनी है'.
'लेकिन मेरा इन सबसे कोई लेना देना नहीं' मैं जब यह बोल रहा था तो मैंने महसूस किया कि मेरे कंठ में जैसे कहीं कुछ अटक रहा हो.
'हमने पता लगाया तो मालूम पड़ा कि उस वृद्धा का नाम चम्पावती था, आगे-पीछे कोई नहीं। गाँव वालों से उसके सम्बन्ध में बस इतनी ही जानकारी मिली कि उसकी गोद में उसके एकमात्र दुधमुहे बालक को छोड़कर उसका पति भरी जवानी में ही स्वर्गवासी हो गया था, बेचारी ने बड़े ही कष्टों से अपने बालक को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया। इसके लिए उसने न केवल अपनी पुश्तैनी जमीन बेच दी बल्कि दूसरे के घरों में जाकर बर्तन-कपडे भी धोये। उसकी बड़ी ही अरमान थी कि एक दिन उसका राजा बेटा बड़ा आदमी बनेगा और उसके जीवन के सारे कष्टों का प्रतिफल भगवान् उसे सूद समेत वापस कर देंगे---कुछ पल को दुष्यंत रुका और पुनः बोलना शुरू किया-- 'कहते हैं कि एक दिन उसका बेटा लापता हो गया, सबने बहुत कोशिश की लेकिन उसका कोई पता न चल सका.....इस शोक में वह वृद्धा विक्षिप्त हो गयीऔर उस दिन वह अपने पुत्र के वियोग में अंततः इस दुनिया को छोड़ कर चली गयी।हमारी संस्था के सहयोग से हमने वहीँ उनका अंतिम संस्कार किया। अंतिम क्रिया के दौरान हमने उनके बाएं हाथ पर एक नाम गुदा हुआ देखा ..जानते हैं वह कौन सा नाम था ?
'श्री' मेरे भर्राये कंठ से स्वतः ही वह नाम उच्चारित हो गया.
'बस हमें यही कहना था......अच्छा विदा। वे दोनों हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए....मेरे आँखों से निकलता हुआ पानी पसीने के साथ मिलकर होठों के कोर को छू रहा था और नमकीन सा स्वाद मेरे अंदर घुलता चला जा रहा था।वे दोनों अजनबी जा चुके थे।