पीली बस
पीली बस
वो मेरे साथ उछलती-कूदती हुई चल रही थी।बार-बार गिरने-गिरने को हो जाती लेकिन मैंने उसका हाथ ज़ोर से पकड़ा हुआ था।
'पापा'
'हूं'
'वो पीली वाली बस कितनी सुंदर है? मुझे भी उस स्कूल में पढ़ना है, पता है? उसमे न, बहुत सुंदर लाल रंग की गद्दी वाली सीट है' -- चलते-चलते वो पीले रंग के स्कूल बस के सपनों में खो सी गई थी।
'हूं'
'क्या हूं?... पापा......मुझे भी वहीं पढ़ना है'
'अच्छा ठीक है, उसी स्कूल में तेरा एडमिशन करवा दूंगा'
'कब?'
अब मैं इसका क्या जवाब दूं?
'कब करवा देंगे?बताइए ना' -- वह मुझसे ठोस आश्वासन चाहती थी। अपनी बात में वजन लाने के लिए उसने कहना जारी रखा -- 'पता है पापा? वहां की मिस बहुत अच्छी हैं, कभी डांटती भी नहीं, और बहुत अच्छी-अच्छी किताबें भी देती हैं........'
'तुझे कैसे पता? तू तो उस स्कूल में गई ही नही,... फिर?' -- मेरे इस अचानक पूछे गए सवाल का उसे तुरत कोई उत्तर नही सूझा, कुछ देर के लिए वो चुप सी हो गई, लेकिन फिर विषय को अपने पक्ष में करने के उद्द्येश्य से मुझे पुचकारती हुई सी बोली -- 'पापा,आपकी गुड़िया बेटी डॉक्टर बनेगी, उसके लिए वहां पढ़ना जरूरी है ना'. फिर मुंह बिसूरकर बोली, -- 'मेरे स्कूल में तो मिस समझाती भी नही'.
गुड़िया मेरी सात वर्षीय बेटी है। पिछले बरस मैने उसका दाखिला सरकारी विद्यालय में करवाया है,लेकिन मैं जानता हूं कि उसका सपना उस स्कूल में पढ़ने का है, जिसकी बस रोज मेरे घर के सामने से बच्चों को ले जाती है।
'ठीक है, तू बदमाशी नही करेगी तो तेरा दाखिला उस स्कूल में करवा दूंगा' -- मैने उसे टालने की गरज से कहा।
'ठीक है पापा, मैं अब शाम को चॉकलेट लाने को भी नही कहूंगी...फिर कुछ रुककर बोली, 'और अभी हम गोलगप्पे भी नहीं खायेंगे' -- त्याग का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वो बोली, यद्यपि आंखों से वह लगातार राह के किनारे ठेले,खोमचेवालों द्वारा बेची जा रही वस्तुओं का रसास्वादन कर रही थी।
'हम?'
'मैं'
उसने बुझे मन से कहा। लेकिन फिर तुरत चहककर बोली, 'पापा आज आप गोलगप्पे खा कर देखिए ना, बस एक, बहुत अच्छी होती है, खट्टी,चटपटी...' उसने अपनी आंखे ज़ोर से मींच ली...मानो खट्टी चटपटी गोलगप्पे का स्वाद वो महसूस कर रही हो।
'ठीक है, आज गोलगप्पे मैं खाऊंगा, तू सिर्फ देखना' -- मैंने उसे चिढ़ाने की गरज से कहा।
वो मायूस हो गई, कुछ न बोली, उसके गुलाबी गाल लटक गए और वो जान बूझकर इतना धीरे-धीरे चलने लगी कि मुझे उसे अपने साथ ले जाने के लिए खींचना पड़ रहा था।
'नाराज हो गई?' -- मैने उसे छेड़ा।
'जाइए न, खाइए अकेले-अकेले, मैं तो आपकी बेटी हूं ही नहीं।
'फिर किसकी हो?'
'मम्मी की'
'अच्छा चलो, हम दोनो खायेंगे'
'थैंक यू पापा, मेरे अच्छे पापा....कहते हुए वो खुशी से मुझसे लिपट गई।
'अच्छा अच्छा, चल, ज्यादा लाड़ ना लड़ा'
'पापा, हम पुदीने वाली पानी के साथ गोलगप्पे खायेंगे' -- कहती हुई वह लगभग खींचते हुए मुझे पास के ठेले पर ले गई।
'जानते हैं पापा? वो पीली बस सबको दो मिनट में स्कूल पहुंचा देती है,' - वह फिर घूम-फिरकर अपने मूल विषय पर आ चुकी थी।
'ठीक'
'और पापा, मैं तो खिड़की किनारे वाली सीट पे बैठूंगी, उसमे से गोलचक्कर की मूर्ति का सर सामने से दिखता है, नीचे से मुझे कभी नहीं दिखा,मुझे खिड़की किनारे बैठने देंगे ना?'
'हां, बैठने देंगे, अब चल'
'लेकिन पापा, वो मूर्ति किसकी है?'
मैं हजारों बार शहर के बीच में पड़ने वाले गोलचक्कर से होकर गुजरा हूं, लेकिन कभी ध्यान ही नही दिया कि वह विशाल सी काली आकृति वाली मूर्ति किसकी है।
'बताइए ना पापा' -- उसे उत्सुकता हो आई थी।
'बताऊंगा,पहले घर चल'
'आपको नहीं पता' उसने निश्चयात्मक स्वर में कहा।
भगवान का शुक्र था कि तबतक घर आ गया, और वो मेरा हाथ छुड़ा कर दौड़ते हुए घर के अंदर चली गई।
मैं अंदर आया तो पत्नी व्याकुलता से इंतजार कर रही थी, बोली - 'कहां इतनी देर लगा दी? तुम भी अजीब हो, स्कूल से लाने भर का काम करने में भी घंटों लगा देते हो'
'अरे,अपनी लाडली को समझाओ न ये बात', मैंने गुड़िया की ओर इशारा करके कहा,जो आते ही अपने पुराने प्लास्टिक के तोते के साथ खेलने बैठ गई थी। 'रास्ते भर पटर-पटर बोलती रहती है, इस स्कूल में नही पढ़ना, उस स्कूल में पढ़ना है', कहां से लाऊं मैं इतने पैसे? एक तो पहले ही कम तनख्वाह थी, महामारी में वो भी आधी हो गई है, जिस स्कूल में तेरी लाडली पढ़ना चाहती है, उसके बस की का चार्ज भी हम नही दे सकते, लेकिन इसे अपने पापा की परेशानी से क्या मतलब? बस केवल ये और इसकी जिद', झल्लाहट में मैं बोलता ही चला गया। गुड़िया चुपचाप अपने प्लास्टिक के तोते के साथ खेलती रही, वो खेल में इतनी मगन थी कि शायद उसका ध्यान मेरी बातों की ओर गया भी नही।
'अच्छा,छोड़ो भी, चलो हाथ-मुंह धो लो, चलो मैं खाना लगाती हूं'
खाना खाकर मैं ऑफिस चला गया।
शाम को आते-आते देर हो गई, बैठा ही था कि मेरे आने की आहट पाकर गुड़िया धीरे से आकर मेरी गोद में बैठ गई और मेरा सिर सहलाने लगी, फिर धीरे से बोली, 'एक बात बोलूं पापा? को पीली बस बहुत गंदी है, बिलकुल पॉटी की तरह, मैं तो उसमे कभी स्कूल न जाऊं, मुझे नहीं पढ़ना उस स्कूल में'.
'और हां, मुझे पता है, गोलचक्कर की मूर्ति शिवाजी महाराज की है'।