प्रथम परिचय (पहला भाग)
प्रथम परिचय (पहला भाग)
शहर के उस छोटे से किराये के कमरे में ताज़ी हवा के आने का कोई रास्ता नहीं था. अँधेरी संकरी और तंग गलियों के घुमावदार रास्तों में अनजान लोगों को तो पता भी नहीं चल पाता कि इसके अन्दर अच्छी खासी इंसानी बस्तियां आबाद हैं और मुर्गी के दडबों सरीखी महकती भिनभिनाती अनेक जिंदगियां इनमे पैदा होती हैं और इन्हीं में समाप्त हो जाती हैं. उन्हीं एक दुसरे पर अटी पड़ी उलझी हुई और बेतरतीब बेढंग कमरों में एक कमरा आकाश का भी था. जो कि आँखों में जिंदगी के रूमानी सपने लिए हुए शहर में नया-नया आया हुआ पढ़ा-लिखा नौजवान लड़का था लेकिन जब डिग्रियां काम नहीं आयीं और हकीकत के दो चार झटकों में ही सपने हवा हो गए तब उसे पेट पालने के लिए एक जूस के ठेले पर नौकरी करनी पड़ी थी और सर छुपाने के लिए इस कमरे की भी व्यवस्था करनी पड़ी थी.
वहां की जिंदगी एक दोज़ख की जिन्दगी थी .... नरक की ज़िंदगी थी...संकरी गली के अन्दर हमेशा बंद नाले कि खुली ढक्कन से बजबजाती हुई गंदगी ऊपर आकर फ़ैल जाने को बेकरार रहा करती थी, और जरा सी बारिश होने पर अपने पूरे फैलाव में पसर जाती थी.उन तंग अँधेरी चिपचिपी गलियों के अनगिनत घुमाव के बाद आकाश जब अपने कमरे में प्रवेश करता तो एक तीखी खट्टी और बासी गंध उसकी साँसों से होते हुए उसकी रग रग में पैवस्त हो जाती थी और एक बेचैनी भरी छटपटाहट उसके समूचे अस्तित्व को घेर लेती थी.दिन में भी पूरे कमरे में अँधेरा छाया रहता था, रौशनी के आने का कोई मार्ग नहीं था. उस अँधेरी कोठरी में पहुँचते ही वह अपनी चारपाई पर बस जैसे-तैसे सो जाना चाहता था, मगर शायद नींद भी उस घर का रास्ता भूल चुकी थी.
जूस का ठेला रात के 8 बजे बंद हो जाता था, परन्तु फिर भी वह सड़कों पर भटकता रहता था या फिर पार्क कि बेंचों पर निरुदद्येश्य बैठा रहता था ताकि उसे अपनी कोठरी में कम से कम वक़्त गुजारना पड़े. देर रात वापिस आते समय मंगल ढाबा पर सस्ती रोटी दाल खा कर ही वह अपनी गली का रुख करता था ताकि कोठरी का इस्तेमाल सिर्फ कमर सीधी करने के लिए किया जा सके .
उस दिन जुलाई का महीना था, गर्मी और उमस अपने चरम पर थी, ठेला बंद होने के बाद वह रोजमर्रा कि तरह अनजान से रास्तों पर भटकते-भटकते काफी दूर निकल आया था ..... इतना दूर कि उसके पैर चलने से इनकार करने लगे थे, थक हार कर उसने आस-पास नज़रें घुमाई तो उसे ख्याल आया कि वह बेखयाली में एक अनजान से संभ्रांत मुहल्ले में निकल आया था जहाँ सड़क के दोनों ओर बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हुई थी कोठियों के विशालकाय गेट कुछ बंद थे कुछ के आगे दरबान खड़े थे तो कुछ में कुत्तों से सावधान का बोर्ड लगा हुआ था.सामने कि कोठी की दीवार के अन्दर सलीके से सजाई हुई बगिया दुधिया रौशनी में नहाई हुई थी और रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित उस बगिया में एक युवती आरामकुर्सी पर अधलेटी सी कोई पुस्तक पढ़ रही थी, आकाश को वह सम्पूर्ण दृश्य एक परीलोक का सा आभास करा रहा था, वह ठिठक कर टकटकी सी लगाए पुस्तक पढ़ रही उस युवती को देखता रह गया.
युवती को जैसे आभास सा हुआ कि कोई उसे निहार रहा है, उसकी नज़रें उठी, कोठी के लोहे के नक्कासीदार गेट के बाहर उसे बाईस-तेईस बरस का युवक नज़र आया जो उसे एकटक निहारे जा रहा था , उसके वस्त्र साधारण थे परन्तु चेहरे की भाव-भंगिमा चोरों अथवा छिछोरों वाली बिलकुल भी नहीं थी.उसके देखने के बावजूद युवक को एकटक निहारता हुआ पा कर उसने पुस्तक बंद किया और उठ कर गेट के पास आई, अचानक उसे गेट के सामने देख आकाश कि तंद्रा जैसे भंग हुई और वह अव्यवस्थित सा हो उठा.
"किससे मिलना है आपको?" -------- आकाश को कोई भी जवाब समझ में न आया.
"न न नहीं ...म म मैं तो बस यूँ ही"
"क्या यूँ ही" -- यूँ ही किसी के घर के बाहर खड़े होकर अनजान लड़की को निहारते हैं?"
"क्षमा करियेगा मिस,, मैं बस यूँ ही खड़ा हो गया था, दरअसल मुझे जोरों कि प्यास लगी थी, आपको देखा तो सोचा पानी मांग लूँ लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी" -- आकाश ने वर्तमान परिस्थिति का भान होते ही अपने आप को संयत करने कि भरसक चेष्टा करता हुआ बात को सम्हालने के उद्द्येश्य से बोला.
"अन्दर आइये " -- युवती विशाल दरवाजे के मध्य में आने-जाने के लिए बने छोटे दरवाजे को खोलती हुई बोली.
"नहीं मिस, मैं जाता हूँ" -- आकाश अचकचाकर बोला, युवती कि ऐसी प्रतिक्रिया की उसे कतई उम्मीद नहीं थी. कहाँ तो वो सोच रहा था कि अब न तब उसे गालियाँ देते हुए यहाँ से भाग जाने को बोला जायेगा और कहाँ तो.........
"क्यूँ?? प्यास बुझ भी गयी?? घबराइये मत .. और हाँ....मेरा नाम नीलिमा है....अन्दर आइये" --- युवती उसके मनोभाव को समझते हुए उसे आश्वस्त करने के इरादे से बोली. आकाश से फिर कुछ बोला नहीं गया और वह यंत्रवत नीलिमा के पीछे-पीछे बगीचे के किनारे बने हुए राहदारी से होते हुए बरामदे पे आ कर ठिठक गया. नीलिमा कोठी के भव्य ड्राइंग रूम में उसे आने का इशारा कर रही थी. सकुचाता हुआ वह उस मनोहारी कक्ष में दाखिल हुआ.
"आप बैठिये, मैं आपके लिए पानी लेकर आती हूँ" -- उसे सोफे पर बैठने का इशार करती हुई नीलिमा अन्दर चली गयी.
ड्राइंग रूम क्या था आकाश के लिए स्वर्ग सरीखा था, श्वेत पर्दों से ढंकी विशाल खिड़कियाँ, मखमल सरीखा कालीन, हर कोने से वैभव और नफासत झलकती हुई..
"पानी लीजिये" -- आकाश ने निगाहें उठा कर देखी. नीलिमा के साथ एक चालीस-पैंतालिस बरस की एक प्रौढ़ा ट्रे में पानी का जग एवं ग्लास टेबल पे रख रही थी.
"तुम पानी रख कर जाओ कमला और चाय बना लाओ" कहती हुई नीलिमा सामने के आरामकुर्सी पर बैठ गयी.
"आपने तो अपना परिचय दिया ही नहीं, क्या नाम है आपका?" -- नीलिमा ने मुस्कुराते हुए पूछा
"जी, आकाश"
उसका नाम सुनते ही नीलिमा खिलखिलाकर हंस पड़ी...आकाश और भी सकुचा गया.
नीलिमा उसे सकुचाता देख कर चुप हो गयी फिर धीरे से बोली, " मिस्टर आकाश, आपका नाम बहुत अच्छा है"
"आपका भी" आकाश ने सकुचाते हुए कहा.
तो यह उन दोनों का प्रथम परिचय था.
(क्रमशः)
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