मुल्क और मज़हब

मुल्क और मज़हब

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ब्रिगेडियर( सेवानिवृत्त) शौर्य नारायण चौधुरी ढाका के नारायणगंज स्थित अपने पुश्तैनी मकान के सामने खड़े हैं। जिस दिन रात के अंधेरे में अपनी माँ और बहन के साथ जान हथेली पर लेकर इस हवेली से हिंदुस्तान भागे थे, तब वे महज तीन साल के थे और उनकी छोटी बहन सिर्फ छः महीने की। दादा दर्प नारायण चौधुरी की ही तरह उनके पिता स्व॰ राज नारायण चौधुरी भी एक पक्के देशभक्त और क्रांतिकारी थे। उन्होंने अंग्रेजों की गोलियां खाई थी। दादाजी मास्टार दा सूर्य सेन के सहयोगी थे और 'चट्टग्राम अस्त्रागार लूंठन' कांड में शामिल थे। और पकड़े जाने पर अपने देश के लिए हंसते-हंसते फाँसी पर चढ़ गए थे। उनकी माँ और परिवार की दूसरी महिलाएं भी स्वदेशी आंदोलन में परोक्ष रूप से शामिल हुई थीं। उन्होंने क्रांतिकारियों को अपने गहने सौंपना , विदेशी वस्त्रों को जलाने आदि कर्मकांडों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।


जब देश आज़ाद हुआ और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बंट गया तब चौधुरी परिवार अपने ही मुल्क में पराए हो गए थे। पिताजी अपना वतन और हवेली छोड़कर जाने को तैयार न हुए थे। इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी। दंगे के समय उनके पड़ोसी मुसलमानों ने जमींदार चौधुरी को उनके परिवार के आँखो के सामने ही काट डाला था। वे शायद उनकी हवेली पर कब्ज़ा जमाना चाहते थे।


माँ दोनों छोटे-छोटे बच्चों को लेकर अपनी जान और इज़्जत पर खेलकर किसी तरह हिंदुस्तान पहुंच पाई थी। फिर उनके जीवन में शुरू हुआ था शरणार्थी -शिविर रूपी नरकवास का अध्याय! वहाँ से निकलने के बाद उनके परिवार को जीवित रहने के लिए भयंकर संघर्ष करना पड़ा था। माँ ने फिर भी कभी हिम्मत नहीं हारी। जमींदार घराने की बहू ने घर-घर जाकर लोगों के जूठे बर्तन माँजने जैसे छोटे-मोटे काम करके दोनों बच्चों की परवरिश की और उन्हें देश सेवा के उपयुक्त बनाया। देशभक्ति तो उनके रगों में दौड़ती थी। उनकी बहन कलक्टर बनी तो शौर्य नारायण फ़ौजी अफ़सर बन गए।

पर शौर्य नारायण आजीवन मुसलमानों को दिल से माफ़ नहीं कर पाए। फौज में रहते समय भी उनके रवैये का कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। वे अपने मुसलमान साथियों को सदा नफरत की निगाहों से देखते थे। पाकिस्तान के साथ जब भी जंग जीतकर आते थे उस दिन उनके घर में जश्न मनाया जाता।


परंतु दो साल पहले की एक घटना से उनकी इसी धर्म-भावना को गहरी चोट पहुंची थी। उनके पच्चीस वर्षीय बेटे की दोनों किडनियाँ जब बेकार हो गई थी तो फौज के ही उनके एक जुनियर अफ़सर असलम ने राहुल को अपना किडनी डोनेट किया । इसके लिए असलम को असमय फौज से सेवानिवृत्त होना पड़ा। पर अपने दोस्त की जिन्दगी के आगे असलम को अपनी नौकरी तुच्छ जान पड़ी ! आखिर बचपन के दोस्त जो ठहरा !


शौर्य नारायण ने कभी यह कल्पना भी नहीं की थी कि वे मुसलमानों के मुल्क में फिर से कदम रखेंगे। लेकिन असलम के अनुरोध को वे टाल न सकें। यहाँ पहुँचकर असलम के परिवार वालों का अपनापन और मेहमान नवाज़ी देखकर वर्षो से संजोई उनकी नफरत कुछ कम होती मालूम हुई । सियासी झगड़ों से हुआ बंटवारा और उससे पनपी दो मज़हबों के बीच की नफरत मानवीय गुण एवं त्याग के आगे आखिर धूमिल पड़ने लगा!


शौर्य नारायाण बरसों बाद अपनी पुरखों को ज़मीन पर पहुँचकर उसे साष्टांग दंडवत करता है और उसकी धूल को माथे पर लगाता है। देशमातृका के प्रति ऋण शायद आज उसे यहाँ तक खींच लाया था।

उधर असलम को अपने दोस्त के परिवार के साथ हुए इस अन्याय का बड़ा अफसोस था। वह कुछ भी करके अपने अंकल को खुश देखना चाहता था।


दोस्तों ,आज आज़ादी का मतलब हमारे लिए सिर्फ हर साल 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को तिरंगा फहराने और चंद देशभक्ति गीत गाने तक सीमित रह गया है। हम अपने फेसबुक प्रोफाइल में तिरंगा लगाकर अपने आपको बड़ा देशभक्त मान लेते हैं। लेकिन अक्सर यह भूल जाते हैं कि हमारे पूर्व पीढ़ी ने इस आज़ादी को पाने के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी। मानवता की हत्या दोनों ही मज़हबों के हाथों हुई थीं और दोनों ही मज़हबों ने कहीं न कहीं अपनी परिवार की परवाह किए बिना पड़ोसी के जान-माल की रक्षा भी की थी। साहित्य और इतिहास दोनों में ही इसके उदाहरण भरे परे हैं। अंग्रेजों के फूट का ऐसा गहरा असर हम पर पड़ा है कि हम आज आज़ादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी दूसरे मज़हब वालों को शक की निगाहों से देखते हैं। मेरी यह रचना उन तमाम लोगों को समर्पित है जो किसी न किसी रूप में इन दो मज़हबों के बीच की खाई को कम करने के लिए नित्य प्रयासरत है।



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