मृत्यु भोज
मृत्यु भोज
साथियों हम पहले से सुनते आ रहे हैं कि मृत्यु भोज एक अभिशाप है। जो समाज की एक कुरीति है। उसको दूर करने के लिए सरकार ने भी अनेक प्रयास किए हैं। परंतु कुछ समाज के ठेकेदार इस प्रथा को बंद नहीं होने देते हैं और वह समाज को अंधकार की ओर घसीट रहे है ।मैं आपके सामने एक ऐसी ही कहानी बयां कर रहा हूँ जिसको पढ़ कर आपकी रूह कांप जाएगी।
रामजीवन जो कि एक गरीब व्यक्ति है। वह अपने घर का खर्चा मुश्किल से चलाता है । रामजीवन के दो लड़की और एक छोटा लड़का बलवान है जो अभी 10 वर्ष का है। रामजीवन लंबी बीमारी से ग्रसित था वह अपनी दवाई का खर्चा ही मुश्किल से चलाता था। एक दिन उसकी बीमारी ने उसकी जिंदगी को लील लिया, अब घर में कोई सहारा नहीं था।
रामजीवन की पत्नी लीलावती भी मजदूरी जाती थी और घर का काम का चलाती थी। यह दुख लीलावती के लिए पहाड़ टूटने के समान था अब दो लड़कियों की शादी करनी थी घर में जमा पूंजी के नाम पर कुछ भी नहीं था।
जो लड़का था वह बहुत ही छोटा था अभी उसको कुछ भी समझ नहीं आई थी।
रामजीवन की मृत्यु के तीसरे दिन की बैठक में पंच पटेल इकट्ठे हुए। सभी ने रामजीवन के मौसर( मृत्यु भोज) के बारे में चर्चा करनी शुरू कर दी एक-दो ने तो नाराजगी दिखाई परंतु जो समाज के ठेकेदार थे वह उन्हें अनिवार्य मान रहे थे।
रामजीवन के बच्चे को बुलाया उससे पूछा गया कि आप आपके पिताजी के मौसम के बारे में क्या विचार है।
बच्चा जो कि इन सब चीजों से अनजान था उसने कहा आप जो करोगे वह ठीक है। पंचायत के सदस्यों ने कहा लगभग ₹50000 का खर्चा आएगा।
जिस बच्चे ने कभी ₹50 नहीं देखे हो वह 50000 की बात कैसे करता वह निरुत्तर था। वह अपनी मां के पास गया सारी बात बताई। उसकी मां ने हां भर दी अब तो मौसर होना ही था शाम के समय लीलावती अपने बेटे को साथ लेकर साहूकार के पास गई। साहूकार से मौसर के बारे में सारी बात बताई और साहूकार से ₹50000 देने की गुहार लगाई।
साहूकार ने इतने रुपए देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसके पास एक छोटा सा घर और एक छोटा सा खेत था। जिसकी दोनों की कीमत भी ₹50000 नहीं थी।
साहूकार ने मौसर के लिए कुछ रुपए देने की हां भर दी। पंच पटेलों द्वारा मौसर का आयोजन करवा दिया गया। रामजीवन की 12वीं पर पकवान बनाए गए आसपास की बिरादरी बुलाई गई और मृत्यु भोज का आयोजन बड़े रंग चाव से किया गया।
जिस पर हम 12 दिनों से आंसू बहा रहे थे आज उसके मौसर पर पकवानों का आनंद ले रहे थे।
यह ड्रेस उनकी दोनों बेटियां देख रही थी और चिंतित हो रही थी कि अब हम साहूकार के रुपए वापस कैसे देंगे?
बिरादरी को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कुछ पंच पटेल ऐसे थे जो मौसर नहीं खाते थे जिन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी परंतु किसी की जिंदगी दांव पर लगाकर यह केवल दिखावा कर रहे थे। जिसके घर में पहले मौसर बनवा दिया गया हो और उसके बाद खाने से इंकार करें ऐसा कौन से नियम था।
बलवान को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था वह तो जो लोग कह रहे थे उसके अनुसार किए जा रहा था।
शाम को पगड़ी की रस्म का आयोजन किया गया और रामजीवन की मृत्यु का कार्यक्रम धूमधाम से किया गया सभी बिरादरी में वाह-वाह हो गई।
धीरे-धीरे समय बीतता गया लीलावती अब बिना सहारे के मजदूरी करती और दोनों बच्चियों को साथ ले जाती थी।
बलवान छोटा था इसलिए उसको स्कूल भेजती थी हर मां की इच्छा होती है कि उसका बेटा पढ़ लिख कर एक अच्छा नागरिक बने। परंतु पढ़ना बलवान की किस्मत में नहीं था क्योंकि समाज के ठेकेदारों ने पहले ही उसके सपने तोड़ दिए।
साहूकार के पैसे उलटे नहीं हुए तो उसने बलवान को अपने घर पर बंधुआ मजदूर रख लिया और बलवान साहूकार के घर पर ही काम करने लगा।
पिता की मृत्यु की जो रस्म अदा की गई वह उसके बारे में अनजान था परंतु इस मौसम में उसकी जिंदगी को बंधुआ बना दिया।
अब परिवार की परिस्थितियां विपरीत होने लगी दोनों बहन शादी योग्य हो गई थी ।जैसे तैसे कर बलवान ने दोनों बहनों की शादी कर दी परंतु जो उन्होंने अपनी आंखों में सपने संजोए थे वह पहले ही टूट गए थे अब तो वह केवल जी रहा था एक बंधुआ मजदूर बनकर क्योंकि उसे समाज में रहकर समाज के रस्मों को पूरा करना था।
इस कुप्रथा ने बलवान के जीवन को नरक के समान बना दिया वह केवल सोच सकता था परंतु वह अपनी मर्जी से कर नहीं सकता था।