मृगतृष्णा की मारी
मृगतृष्णा की मारी
आधी रात से अधिक बीत चुकी थी, चाँद झुकने लगा था, सितारों की ज्योति भी फीकी पड़ने लगी थी। दिवाकर ऊषा की सुनहरी किरणें बिखरने को मचल रहा था। ऐसे में धरा निःशब्द सबको निहार रही थी। उसके आँचल शुष्क हो गये थे। नीर का कहीं नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा था।
ताल-तलैया तो बीते जमाने में कभी उसकी सखियाँ हुआ करती थीं। अब तो सलिल उससे बहुत दूर जा चुका था।
महानगर की अट्टालिकाएँ अट्टहास कर उठीं, "क्या हुआ धरा तुम बड़ी उदास लग रही हो? क्या मेरी चकाचौंध से तुम्हें जलन हो रही है?"
"नहीं, नहीं ऐसा मत सोचो, मैं तो आश्रयदायनी हूँI मुझे ज़लन क्यूँ होगी? हाँ उदास जरुर हूँ, जैसे-जैसे विकास हो रहा है, सलिल हमसे बहुत दूर होता जा रहा है। जानते हो, पहले इसका कोई मोल नहीं था। फिर भी अनमोल था बस थोड़ी सी मेहनत से मिल जाता था अब तो सौ दो सौ पाँच सौ से बढ़कर पंन्द्रह सौ फीट तक दूर चला गया है।"
"विकास के नाम पर अगर यूँ ही धरा अट्टालिकाओं को एवं उसके सुपुत्रों को आश्रय देते रहेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होगा।"
धरा की ओर झुकते हुए शशांक की आवाज सुन सभी की आँखों में आँसू आ गये। आँसू दो बूँद ओस बनकर टपक गये।
धरा अतृप्त प्यासी टक-टकी लगाये बादलों के इंतजार में आँखें बंद कर लेटी रह गई।
काश बरसात को दया आ जाये। ओह, वह क्यों दया करेगा? सुख-दुख के सहभागी तो संतान होते हैं, वही हमें उपेक्षित कर रहे हैं तो दुसरे से क्या उम्मीद करुँ।
अम्बर की आँखें भी भींग गई, "धरा तुम तो जननी हो, हमें किस बात की सजा मिल रही है। विकास एवं खोज के नाम पर अनगिनत सेटेलाईट मंडराते हुए हमारे प्राकृतिक खगोलीय घटनाओं की दिशा बदल रहे हैं।"
"आह, विकास के नाम पर विनाश की बहती हवा को रोकना; काश प्रकृति के वश में होता। हमारी ही संतान की मृगतृष्णा हमारी आनेवाली नई पीढ़ी के बच्चों को प्रलय से क्या बचा पायेगी?"