दबी हुई गूँज
दबी हुई गूँज
“कृपया सभी यात्री कुर्सी पट्टी बाँध लें जहाज उड़ान भरने को तैयार है।”
यह सुनकर किशोर भी अपना सेफ्टी बेल्ट बाँध ने लगा ,पास में बैठे दूसरे सह यात्रियों के होठों पर हँसी तैर गई ।
किशोर थोड़ा सकुचाते हुए अपने पापा से कहा ; “पापा पाँच वर्ष की उम्र से उड़ान कर रहा हूँ फिर भी स्वदेश कौन सा है , मुझे आज तक पता नहीं चला है!”
बेटे की बातों का थोड़ा-बहुत मतलब समझते हुए भी अंजान बन कर कहा ; “बेटे आज हम स्वदेश ही तो जा रहे हैं।”
“नहीं पापा अपना घर और किराये के घर को जैसे हम परिभाषित करते हैं वैसे ही आप कहने को तो इंडिया
को अपना देश कहते हैं ,पर जाते हैं तो वापसी की टिकट लेकर ही ।”
किशोर बहुत संवेदनशील है इसका अहसास था उन्हें ,उन्होंने बस इतना ही कहा “हाँ बेटे रोटी की तलाश में निकले घर से , जहाँ चैन की रोटी मिली वहीं आशियाना बना लिये।”
“नहीं पापा आप गलत हैं , मेहनत की रोटी भी मलाई यूक्त हो बस इसी आस में स्वयं एवं पूरे परिवार को खानाबदोशों वाली जिंदगी आपने दे रखी है।”
फ्लाइट रनवे छोड़कर हवा से बातें करने लगा । तभी पिता ने कहा "शौक अपनाओ या सदमें झेलो बस आदत पाल लो यूँ दबे स्वर में अपना-पराया सोचना छोड़ दो वसुधैव कुटुम्बकम।"