श्रम का मोल
श्रम का मोल
“पापा दशहरे की छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं आपने वादा किया था कि शहरी जीवन एवं ग्रामीण जीवन का दर्शन करवा कर श्रम का मोल समझाऊँगा।”
“हाँ बेटा तुमने अच्छी याद दिलाई चलो आज कर्म का पाठ पढ़ने गाँव की ओर।
“आज तो वीकेंड है आज कैसे कामगार दिखाई देंगे ?”
खुद चलकर देख लेना सप्ताहांत में भी श्रम ! शहर से तीस किलोमीटर अंदर गाँव की सड़कों पर पहुँचते ही कृषक औजार बनाते लोहारों की बस्ती नज़र आई। जिस तल्लीनता से वहाँ काम हो रहा था आगंतुक पर बस एक नज़र डाल कर पुनः अपना काम करने लग, पास ही में महिलायें बैठकर कपड़ों पर कसीदाकारी कर रहीं थीं, बूढ़े बच्चे जवान सभी व्यस्त थे। विभू को बड़ी हैरानी हुई, दूर में बच्चों की मंडली नज़र आई सोचा चलकर उनसे बात करता हूँ, “हैलो आप लोग खेल रहे हो ! यह कौन सा खेल है ? कृपया मुझे बताओ।”
“हा हा हा बच्चे हम खेल खेल में अपनी सड़कें साफ कर रहे हैं। दीपावली एवं छठ के लिए नदी तालाब एवं सड़कों की सफाई बच्चों के जिम्मे है। तुम बताओ तुम यहां किसलिए आये हो ? विभू अपने ही हमउम्र बच्चों की लगन देखकर अचंभित था फिर भी उसने कहा “हम श्रम का मोल समझने आये हैं।”
“अच्छा ! तो वह देखो तेरी गाड़ी पंक्चर हो गई है पापा परेशान हैं जाओ जाकर उनकी मदद करो स्टेपनी बदलने में।” पर कैसे ?
"हा हा हा...सीखने की कोशिश तो करो वह देखो बच्चे अपनी दिनचर्या से निवृत्त होकर कैसे मस्ती कर रहे हैं। धूप हवा पानी की ताकत से लड़कर ही असली श्रमजीवी बन सकते हो।"