मोहा
मोहा
याद है उस दिन तुमने कहा था
'मोहा' तुम संगदिल हो
मेरी आत्मा को तुमने गाली दी
एक तड़पता तूफ़ान गुज़र गया मुझे झकझोरते..!
मैं संगदिल कैसे हुई ?
मेरे तन का कण-कण तुम पर मरता था
मेरे चेहरे पर तुम्हारे नक़्श आज भी उभरे है, तुम्हारे प्रति मेरी लहलहाती चाहत चरम पर थी जब
तब तुम्हारी नज़रें किसी और खजाने पर टिकी थी,
एक बेहूदे संगीत पर संमोहित होते मेरे अस्तित्व को अनदेखा करते चल पड़े थे
मेरे सपने बिन पानी के मछली की तरह तड़पते बिलखते छलनी हो गए थे..!
मोहा मोहाँध थी तुम्हारी कटिली जवानी पर तब तुमने बंदीश का जाल बुन लिया था,
जिसे तोड़ कर तुम्हारे दिल की दहलीज़ पर कदम रखने की इज़ाज़त कहाँ थी मुझे..!
अब जब तुम ठुकराए गए उस वीरान दहलीज़ से तो सदाएं दे रहे हो मोहा की चाहत को सस्ती समझ कर..!
मोहा अब हवा है तुम्हारे लिए जिसके बिना तुम साँसे नहीं ले पा रहे
मेरी छुअन तुम्हारी ज़िंदगी है..! पर "अब मैं एक अकेलेपन की यात्रा पर हूँ" शून्य से शुरू की थी,
ओममममम मोहा का अंतिम पड़ाव है..!
बिल्व पत्र के साये में संदली छाँव तले चारपाई लगाई है,शिव का सानिध्य है..!
पोत लिया है मैंने अपना चेहरा चंदन की मिट्टी से अब मैं मोहा नहीं रही ईश का अंश हूँ..!
ओर सुनो मैं संगदिल नहीं आज भी मोहाँध ही हूँ बस तस्वीर बदल गई है तुम अब शिव में ढ़ल चुके हो।
और सुनो....
उस लम्हे को तुम कोसना मत जब तुमने मेरी चाहत ठुकराई थी,
मैं उस लम्हे की कर्ज़ दार हूँ जिसने मोहा को पूजा के मायने सिखाये।