अनमना मौसम
अनमना मौसम
"चार दिन का अनमना मौसम
एहसासों पर उदासी की परत मली थी,
स्याह रात के मद्धम बहते पहर के साथ एक हाथ रेंग रहा था उसके तन की भूगोल के कोने कोने को पर..
खंगाल रहा था वो वासना मुखर करते उन्माद हीन काया से हर पहरन का वसन चिरते ठंड़े गोश्त का लुत्फ़ उठा रहा था..
संदली गेसूओं में जंगलियत भरते खाल खिंच रहा था एक-एक बाल की
वो आँखें मूँदे घुटन का कटोरा बूँद-बूँद पी रही थी..
लबों पर ठहरी कड़वी शबनम वो ऐसे पी रहा था जैसे कोई बच्चा माँ के सीने से लिपटा पहला दूध पी रहा हो..
चाह कर भी ब्याहता प्रतिसाद में एक भी चुंबन दे न सकीं, पेढू में उठ रही पीड़ ने प्रणय की पराकाष्ठा पर नफ़रत का ज़हर घोल दिया था..
मन ही मन चंद लम्हें पलक झपकते ही गुज़र जाने की प्रार्थना में पड़ी पड़ी पगली सोच रही..
काश माहवारी का चार दिन का अनमना मौसम काट लेता, उम्र के सारे मौसम उसके नाम ही तो किए थे..
वो हक का मारा था और,
अबला के अहसास पर चुटकी सिंदूर भारी था..
कतरा-कतरा टूटते रात बह निकली
मौसम का एक दिन कट गया, भोर की बेला में आँखें खुलते ही आसमान को तकते खुद ब खुद हाथ जुड़ गए..
"है ईश्वर इस दिन की रात कभी न हो"