मेरी माँ का मोबाइल
मेरी माँ का मोबाइल
माँ का वजूद पूरी कायनात का नूर है, जब माँ होती है तब उसकी ओरा हमारे जीवन में रोशनी भरती है। माँ की कमी दुनिया की कोई चीज़ पूरी नहीं कर सकती। माँ की हयाती में उस बात की अहमियत हमें पता नहीं चलती जब माँ नहीं रहती तब उसकी कीमत मालूम होती है। माँ सिर्फ़ माँ नहीं एक ऐसी औरत है जो अपने भीतर कितने सारे किरदारों को संभाले जीती है। माँ एक पूरी पाठशाला होती है पर,
मेरी माँ अब इस दुनिया में नहीं है, मेरी माँ को गुज़रे आज चौदह दिन हो गए। एक सूनापन पसरा है हमारे घर में आज, उससे भी ज़्यादा मेरे भीतर अंधेरा छा गया है। अपनी माँ को पहली बार मैं मिस कर रही हूँ, आज मैंने माँ की अलमारी खोली सामने ही उनका मोबाइल पड़ा था, मैंने हाथ में लिया तो ऐसा महसूस हुआ मानों माँ के अस्तित्व को छू लिया हो। आज पहली बार मैंने अपनी मम्मी का फेसबुक एकाउंट ऑपन किया तो ऐसा लगा जैसे माँ का दिल खोल रही हूँ।
आज पहली बार मैंने अपनी माँ की हैसियत को जाना, आज पहली बार मुझे पता चला कि मेरी माँ एक हस्ती थी, आज पहली बार मुझे पता चला कि मेरी माँ कितनी बड़ी लेखिका थी, आज पहली बार मैंने जाना हम सबके रहते भी मेरी माँ भीतर से कितनी अकेली थी, आज पहली बार मैंने महसूस किया मेरी माँ के मन में गुस्सा और दर्द का कितना गुब्बार भरा था, आज पहली बार मैंने अपनी माँ का रुतबा देखा, आज पहली बार मैंने जाना की एक औरत सिर्फ़ माँ या पत्नी नहीं होती।
माँ एक इंसान भी होती है, एक लेखक भी होती है, एक दोस्त होती है, एक गायक होती है, एक बिज़नेस लेडी होती है, एक एडमिन होती है, एक शख़्सीयत होती है आज पहली बार मैं अपनी भूल पर पछता रही हूँ।
बताती हूँ क्यूँ,
हम आजकल की पीढ़ी के बच्चे कितने स्वार्थी और निम्न सोच वाले होते है, अपने माता-पिता की इच्छा, मनोभाव या जीने की चाह पर हमेशा एक प्रश्नार्थ लगाए खड़े हो जाते है। हम भूल जाते है की वह भी इंसान है, उनको भी अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है, अधिकार है। क्यूँ हम ये सोचते है की एक उम्र के बाद माँ-बाप को अपने शौक़ पर लगाम कसकर एक दायरे से बंध कर रहना चाहिए। क्यूँ उनके शौक़ हमें अच्छे नहीं, लगते या हम ऐसा महसूस करते है की मेरे मम्मी पापा के आधुनिक रहन-सहन को देखकर मेरे यार-दोस्त क्या कहेंगे। क्यूँ हम भूल जाते है की एक दिन बूढ़ा तो हमें भी होना है, तब क्या हम अपने शौक़ को मार देंगे। अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जीने पर हमें कोई टोकेगा तो क्या हमें अच्छा लगेगा? ऐसी बहुत सारी बातें है जिस पर हम आजकल की पीढ़ी के बच्चे एतराज जताते माँ-बाप को आहत कर लेते है। वैसे अब इन सारी सुफ़ियानी बातों का मेरे लिए तो कोई मतलब नहीं रह जाता जब चिड़िया चुग गई खेत।
पर मेरे जैसी सोच रखने वाले बच्चों को इस कहानी के ज़रिए संदेश देना चाहूँगी की माँ बाप को समझो, उनकी भावनाओं की कद्र करो, उनका हर कदम पर साथ दो। क्या गलत है अगर माँ-बाप आधुनिक सोच अपनाकर ज़िंदगी को हंसी खुशी जीना चाहते है, ये तो गर्व की बात है की हम प्रबुद्ध और खुली विचारसरणी रखने वाले माँ-बाप की संतान है।
बचपन से मुझे मेरी मम्मी को एक घरेलू और सीधी-सादी देखना ही पसंद था। सिम्पल से कपड़े साड़ी या ज़्यादा से ज़्यादा सलवार कमीज़ में ही मैं मम्मी को बरदाश्त कर सकती थी। मम्मी की बहुत सारी सहेलियां थी जो जीन्स-टाॅप, लेगिन्स-कुर्ती और सारे मार्डन कपड़े पहनती थी। जब कहीं पिकनिक में जाना होता तब मम्मी जिन्स या लेगिन्स पहनती तब मैं रो रोकर चेंज करवाती और जबरदस्ती साड़ी पहनवाती थी। मेरी माँ पढ़ी लिखी ग्रेजुएट थी, पर जब वो किसी के साथ इंग्लिश में बात करती तब मुझे ऐसा लगता की माँ भी न, इंग्लिश झाड़ने की क्या जरूरत है नोर्मल नहीं रह सकती। माँ का मार्डन होना मुझे अखरता। मेरे मन में माँ की छवि एक घरेड़ में खुद को ढालकर अपने बच्चे और परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रहे ऐसी ही थी। मैं थोड़ी बड़ी हुई, अब मोबाइल का ज़माना आया। सब मोबाइल का उपयोग करते थे तो पापा ने भी मम्मी को मोबाइल दिलवाया। मम्मी जहाँ तक सिर्फ़ काल पर बातें करने के लिए मोबाइल रखती थी तब तक मुझे उतना बुरा नहीं लगाता था। अब तो पापा ने मुझे भी मोबाइल दिलवाया, ऐसे में फेसबुक वाट्सएप का आविष्कार हुआ। आधी दुनिया फेसबुक का उपयोग करती थी। मैंने भी फेसबुक ज्वाइन किया था, हम बच्चें बड़े हो गए थे माँ भी अब फ्री थी। मम्मी का मोनोपोज़ समय चल रहा था तो थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी, तबीयत भी नरम-गरम रहने लगी और अवसाद से घिरी रहने लगी थी। पापा अपने काम में मशरूफ़ थे, वैसे भी पापा का ब़िज़नेस ऐसा था की ज़्यादा दिन घर से बाहर रहते थे, और हम अपनी ज़िंदगी में व्यस्त थे। ये सोचकर की इस उम्र में तो ये सब होता है तो मम्मी की तकलीफ़ हम इग्नोर करते थे।
एक दिन मम्मी ने कहा नेहा खाली बैठे बोर हो रही हूँ, डिप्रेशन फील होता है ऐसा कर मेरा भी फेसबुक अकाउंट बना दे देखूँ तो ज़रा ये फेसबुक किस बला का नाम है। मेरा खून खौल उठा हद है, अब मम्मी को इस उम्र में फेसबुक पर आकर क्या करना है। मैंने टालते हुए कहा मोम आप के बस का नहीं फेसबुक, वैसबुक आप क्या करोगे फेसबुक ज्वाइन करके घर परिवार संभालिए ना। थोड़ा भजन कीर्तन कीजिए, पूजा पाठ में मन लगाईये इस उम्र में यही सब शोभा देता है। मम्मी तब तो कुछ नहीं बोली पर मेरा मना करना उनको आहत कर गया, क्यूँ हम माँ के एकाकीपन को नहीं समझते? मुझे यही लगता था की फेसबुक, वाट्सएप हम जैसे युवाओं के ही काम की चीज़ है, मम्मी की उम्र के लोगों का इनसे क्या लेना देना। पर मम्मी ने अपनी सहेली वंदना आंटी के बेटे विशाल को बोलकर फेसबुक पर अपना एकाउंट खुलवा लिया और मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। मेरा दिमाग हिल गया नहीं बनाना मम्मी को फ्रेंड। मेरी फ्रेंड लिस्ट में मेरे हम उम्र दोस्त ही है वह सब क्या सोचेंगे? नहीं की मैंने मम्मी की फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट।
अब मम्मी भी मोबाइल में व्यस्त रहने लगी थी, और खुश भी। मम्मी अभी फेसबुक चलाना सीख रही थी तो कभी कोई प्रोब्लम होती तो सोल्व करने के लिए मुझे बोलती तब भी मैं पढ़ाई का बहाना बनाकर टाल देती, और बेचारी गैरों का सहारा लेकर मसला सुलझा लेती थी। जब भी मेरी माँ घर के कामों को निपटा कर मोबाइल लेकर बैठती थी मैं कोई न कोई बहाने से अपना कोई काम उनको सौंपकर उनके हाथ से मोबाइल छुड़वा लेती थी। कितनी सेलफ़िश थी मैं।
आज जैसे-जैसे मम्मी के मोबाइल की हर एक एप खोलती गई तो अपनी माँ पर मुझे गुरूर होता गया। मम्मी फेसबुक, वाट्सएप, इन्स्टा, ट्विटर सब यूज़ करती थी। उनके फैन्स फॉलोवर्स देखकर तो मेरी आँखें चौंधिया गई, मेरी माँ किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं थी। कुछ सेलिब्रिटी भी उनके दोस्त और फ़ोलोअर्स थे। पहले तो मम्मी की एक-एक तस्वीर को देखकर मैं हैरान थी। एक से बढ़कर एक मार्डन ड्रेस में मम्मी की अफ़लातून तस्वीरों में मेरी माँ किसी हीरोइन से कम नहीं लग रही थी। मैंने उनकी अलमारी खंगाल कर देखा एक ड्रावर में सारी मार्डन ड्रेस सहज कर रखी थी। कई बार मैंने महसूस किया की मम्मी अपना कमरा बंद करके पता नहीं क्या करती थी, शायद इन सारे ड्रेसप में अपनी सेल्फ़ी लेकर अपलोड करती थी। अपनी बेटी को पसंद नहीं ये सोचकर माँ छुप-छुपकर अपने शौक़ पूरे करती थी। उनकी एक-एक तस्वीर पर लोगों की तारीफ़ और कमेन्ट्स देखकर मैं हैरान थी। किसीने उनको माॅड़लिंग की सलाह दी थी, तो किसी ने सीधे ऑफ़र। उनकी फेसबुक वाॅल पर उनकी कविताएं, उनके लेख और उनकी कहानियां पढ़ कर मेरा दिमाग चकरा गया, क्या गज़ब लिखती थी मेरी माँ और मैं अपनी माँ के इतने करीब होकर भी उनके हर हुनर से अन्जान थी।
मैंने माँ की एक-एक रचनाएँ ध्यान से पढ़ी, किसी रचना में समाज के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया था, किसी में स्त्री विमर्श, किसी में शृंगार रस तो किसी में अपने बच्चों के लिए गुस्सा, तो किसी में ममता की ऐसी परिभाषा लिखी थी की अपना दिल निकालकर रख दिया था । देश के लगभग हर राज्यों की पत्रिकाओं में माँ का लेखन छपता था। कितने सारे प्रशस्ति पत्र से सम्मानित थी। ओह मैं कितनी गंदी सोच रखती थी अपनी माँ के लिए। कई बार रात को एक दो बजे पानी पीने या वाॅशरूम जाने के लिए उठती थी तब मम्मी को मोबाइल चलाते देखती थी, और मेरे दिमाग की नसें तंग हो जाती थी ये देखकर की इतनी रात गए माँ किसके साथ चैट कर रही होगी, क्या मम्मी का किसी के साथ चक्कर चल रहा होगा? उफ्फ़ कितनी गंदी हूँ मैं, इसका मतलब मम्मी देर रात तक अपने लेखन में बिज़ी रहती थी। कितने सारे ग्रुप की एड़मिन थी माँ और कितनी बखूबी चला रही थी ग्रुप्स। कितनी शालीन और सरल लोग दीवाने थे मेरी माँ के..जैसे ही मैंने वाट्सएप खोला तब आज पहली बार मुझे पता चला कि मेरी माँ कितना सुंदर गाती थी। चार पाँच ग्रुप में मेम्बर्स थी और एक दो ग्रुप खुद चलाती थी। लेडिज़-जेन्टस के ग्रुप में अंताक्षरी की महफ़िल सजती थी, माँ हर नये पुराने गानों की शौक़ीन थी और बहुत ही सुरीली आवाज़ में गाती थी, मेरी माँ लगभग हर बार विनर होती थी। तो किसी ग्रुप में लेखन प्रतियोगिता में अपना परचम लहरा रही थी। और तो और इन्स्टा ग्राम पर, किंडल पर और बहुत सारी साहित्यिक एप पर मेरी माँ खुद का लेखन बेचकर घर बैठे कमाई भी कर रही थी। एक सीधी-सादी दिखने वाली औरत के अंदर हुनरों की खान छुपी थी। मेरी माँ क्या थी और मैं क्या समझ रही थी।
आज मैं अपनी माँ के हर अनछुए, अनदेखे पहलुओं से वाकिफ़ हो रही थी। मैंने माँ का ट्विटर खोला तो मेरी माँ के लिए मेरे मुँह से वाह निकल गया। हर सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखते उनके ट्विट को लोगों ने इतनी सराहना दी थी की मैं खुद पर शर्मिंदा हो रही थी। उनके चार-पाँच साहित्यिक पेज खोलकर देखें, मेरी माँ के उत्कृष्ट लेखन का परिचय पाते मैं धन्य हो गई। और एक पेज पूरा का पूरा इंग्लिश जिस में मेरी माँ ने क्या आर्टिकल्स लिखे थे, उस पर बड़े-बड़े लेखकों की सराहना ने मुझे सकते में ड़ाल दिया मेरी माँ एक उच्च कोटि की लेखिका थी, एक प्रबुद्ध विदूषी और एक गरिमा से सराबोर शख़्सीयत थी। पर सच कहूँ उनके हर लेखन में एक पीड़ एक कमी एक वेदना और दर्द पाया। हर एक ब्लाग में अपने परिवार के प्रति नाराज़गी छपी थी, जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी मैं भी इंसान हूँ कोई मुझे भी तो समझो।
अचानक माँ की लिखी एक कविता पर मेरी नज़र ठहर गई उस कविता पर हज़ारों कमेन्टस देखकर कविता पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई। कविता का शीर्षक था "मेरी बेटी मेरी नज़रों में और मैं अपनी बेटी की नज़रों में" एक-एक पंक्तियों को मेरे प्रति अपनी ममता, मोह और चाहत को उड़ेलते माँ ने जो लिखा था वो शब्दों में बयाँ करना मुमकिन नहीं, एक ही लाइन लिखती हूँ जिसमें पूरी कविता का सार छुपा है
"जानती हूँ बेटी की तू एक औरत में अपनी माँ को ही महसूस करना चाहती है, पर कभी माँ के भीतर छुपी एक औरत को भी पहचानने की कोशिश कर"
मैंने कभी अपनी माँ की भावनाओं को नहीं समझा, अपने स्वभावानुसार एक ही पलड़े में तोलती रही। आज मैं खुद को दुनिया की सबसे कमज़ात औलाद महसूस कर रही थी। कितनी बौनी सोच थी मेरी, कितनी स्वार्थी थी मैं।
इतने सालों में अपनी माँ को न जान पाई, न समझ पाई। मोबाइल जैसे छोटे से मशीन ने मुझे मेरी आभासी माँ से मिलवाया जो एक महानता की मूरत थी। काश साक्षात के करीब हो पाती, काश माँ के जीते जी उनको समझ पाती। उनकी एक-एक खूबियों को अपनाती और माँ को सिर्फ़ माँ नहीं एक औरत, एक अरमान और अहसासों से लदी स्त्री और एक इंसान समझती जिसको खुद के लिए जीने का भी हक है ये समझ पाती।
क्या बिगड़ जाता अगर मेरी माँ अपनी मन मर्ज़ी की ज़िंदगी जीती, कौन सा आसमान टूट पड़ता अगर माँ सिर्फ़ साड़ी की जगह हर फैशन के कपड़े पहनती, क्यूँ नहीं बोल सकती माँ इंग्लिश, फेसबुक पर सिर्फ़ युवाओं का ही हक क्यूँ? क्यूँ माँ भी हर एप का हिस्सा नहीं बन सकती।
After all हम अपनी माँ की सहेली और राहबर क्यूँ नहीं बन सकते। जब हम बोलना नहीं सीखें होते तब भी बिना बोले हमारी हर बात समझने वाली माँ की एक भी बात हम क्यूँ नहीं समझ पाते। जब हम चलना नहीं सीखें थे तब एक-एक कदम अपनी उँगली पकड़ कर चलना सिखाने वाली माँ के हर कदम पर हम साथ क्यूँ नहीं दे सकते।
इस क्यूँ का जवाब सिर्फ़ इतना है, अपने माँ-बाप की हर भावनाओं को समझ कर उनका हर बात में साथ और सहकार देते पिछली ज़िंदगी को खुशहाल बनाने में अपना योगदान दो।
मेरी माँ की मौत ने मेरी ज़िंदगी बदल दी, उसके जाने के बाद मैंने माँ का मोबाइल खोला तब अपनी माँ को करीब से जान पाई, काश ज़िंदगी के वो लम्हे मुझे माँ की अहमियत समझा पाते जब वो ज़िंदा थी।
"कर लो उस छाँव की कद्र जो पग-पग परछाई बिछाती है, छूट जाती है जब उस हथेलियों की उष्मा तब ज़िंदगी की तपिश बहुत जलाती है" आज से मेरी माँ का मोबाइल मेरा सच्चा साथी है, क्यूँकि इस छोटे से मशीन में मेरी माँ की ज़िंदगी की छुपी गाथा है।
