महानायक
महानायक


पराजय के क्षणों में ही नायकों का निर्माण होता है। अंत: सफलता का सही अर्थ महान असफलताओं की श्रृंखला है : महात्मा गांधी
आरोपों और महान विभूतियों का चोली-दामन का साथ रहा है। बस एक यही बात है कि राष्टपिता महात्मा गांधी भी आरोपों से अछूते नहीं रह सके। वरना इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि ब्रिटिश दासता से मुक्ति के संघर्ष में महानायक की भूमिका महात्मा गांधी ने ही निभाई थी। यह अलग बात है कि ब्रिटिश जंजीरों को तोड़ने के लिए फौलादी सीनों वाले क्रांतिकारियों का भी योगदान भी कम नहीं था। महात्मा गांधी ने विश्व को अहिंसा की शक्ति से रूबरू तो कराया ही, साथ ही फिरंगियों को भारत भूमि से भागने को विवश भी किया। माना उनको हिन्दुस्तान का बंटवारा मंजूर नहीं था, लेकिन तत्कालीन समय में वह भी परिस्थितियों के आगे झुक गए। आखिर वह भी हाड़-मांस के ही प्राणी थे, फिर वह अपनों से कैसे लड़ सकते थे। परायों को जवाब दिया जा सकता है, लेकिन अपनों का क्या किया जा सकता है। अपनों की खुशी के लिए ही उन्होंने दुखी मन से बंटवारा स्वीकार किया। गांधी जी अंग्रेजों की नीतियों को भली-भांति जानते थे, इसलिए उन्होंने कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया। गांधी जी के व्यक्तित्व के सभी गौण हो गए। यदाकदा बात उठ ही जाती है अंग्रेज क्रांतिकारियों के डर से भाग गए थे। यह सच हो सकता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। भारत में वीरों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन उनमें कभी एकता भी नहीं रही। भारतीयों की अपनी-अपनी ढपली, अपने-अपने राग पर विदेशियों की तलवारें भारी पड़ गई। भारतीयों में कभी भी एकता का गुण विकसित नहीं हो पाया। बस इसी बात का फायदा विदेशी लुटेरे उठाते रहे। सोमनाथ मंदिर को सत्रह बार लुटने और भारतीय संस्कृति को ध्वस्त होने से बचाने के लिए कितनों वीरों ने महमूद गजनी का मुकाबला किया और कितनों ने उसका साथ दिया। इस बात को कोई भी जान सकता है। कालांतर में फिरंगियों ने पूरे देश में पर कूटनीति, ताकत और भारतीयों की गद्दारियों के बल पर कब्जा जमा लिया। फिरंगियों के इस चक्रव्यूह को तोड़ने में महात्मा गांधी पूर्णरूप से सफल रहे। अफसोस सिर्फ इस बात का है कि काल की गति ऐसी बनी कि अहिंसा का पुजारी हिंसा का शिकार हो गया। विधाता को यही मंजूर था। गांधी जी सच कहा करते थे कि मुठ्ठी भर संकल्प वान लोग, जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।