मेरी पहली नौकरी
मेरी पहली नौकरी
भारत देश जहाँ बड़े - बड़े शहर महानगर बसे हुए है, ये शहर कभी सोते नहीं है, कभी रुकते नहीं है, इनका दिन जितना बिजी और शोरगुल भरा होता है, उतनी ही चमकीली रातें भी होती है,शहर तो रात में भी लगता है,कि रुकने का नाम नहीं लेता। शायद इसीलिए उतनी ही यहाँ पोलुशन और पापुलेशन है, यहाँ के लोगो को किसी की नहीं पड़ी।
बड़ी बड़ी फ़ैक्टरियाँ दिन रात अपनी आवाज़ से शहर को जगाये रखती है, और मोटर कार बाइक शहरों को कभी रुकने नहीं देती। ये शहर न तो रुकते है, ना ही थकते है।
इसके विपरीत हमारे गाँव शांति को खुद में समेटे हुए है, लोगो में एक दूसरे से जुड़ाव देखने को मिलता है, यहाँ सबके पास वक़्त है कि एक दूसरे से मिल ले!
पर सिर्फ शांति प्यार मेल मिलाप से जिन्दगियाँ चलती तो इन शहरो की बड़ी बड़ी फैक्टरियों को कौन पूछता।
सच तो यही है कि गाँव कितनी भी शांति दे, पर पेट की भूख तो उस शांति को निगल ही जाती है, और उसी शोरगुल वाली दुनिया में जाकर दो जून की रोटी मिलती है।
इसलिए ही हमारे गाँव के जीतन,मनटुआ,बिरिच्छ्या,धोबिया,रंजितवा और भी गाँव के बहुत लोग पेट की आग को शांत करने के लिए शांति के मंदिर ( अपने गाँव रामपुर ) को छोड़कर चले ही गए, उस ना रूकती ना थमती शहर दिल्ली में।
और आज हम भी शहर जाने की तैयारी में है, हमारे घर की हालत बहुत ख़राब थी, दो जून की रोटी नसीब ना थी, कहाँ से होती ना काम था मेरे पास ना ज़मीन ना कोई जायदाद। तो आखरी फैसला यही किया कि हम भी दिल्ली शहर चले जायेंगे। वही मैं और मेरी जोरू बिजुरिया कुछ काम कर लेंगे।
हमारा दोस्त जतिन भी वही दिल्ली के एक बड़ी फैक्ट्री में गार्ड की नौकरी करता था। उसी ने हमसे कहा कि आ जाओ तुम यहाँ हम नौकरी लगवा देंगे।
तब से मन में था कि दिल्ली ही जाकर कुछ काम करे, बिजुरिया भी खूब ज़िद की।
हमने किसी तरह १००० रुपये जमा किये कि वहां जाने का किराया तो चाहिए ही था।
बस क्या था,जतिनवा का फोन आया कि आ जाओ बच्चों और भौजाई के साथ,तुम्हारी नौकरी की बात कर ली है, ३५०० रुपये महीना मिलेगा,और एक छोटा सा रूम भी कंपनी ही देगी। बस क्या था, अँधा क्या चाहता है, दो आँखें ही न।
मेरे लिए भी ये बहुत था, सो अगले दिन दोपहर 3 बजे की ट्रैन से दिल्ली के लिए निकल गए। मैंने तो अकेले कई बार ट्रैन में सफर किया था,
पर जोरू और बच्चों को लेकर पहली बार दिल्ली जा रहा था, जनरल बोगी में इतनी भीड़ थी कि पैर भी रखना मुश्किल था,सामन की बोरिया, सूटकेस बैग्स बर्तन की बोरियो के साथ इसमें इंसान भी ठूसे हुए थे, अगर किसी को लघु शंका लगी हो तो आप समझ लो की 15 मिनट में आप अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचेंगे, वो भी कई लोगो को चोट पहुंचाकर इतनी बुरी हालत थी दिल्ली जाने वाली ट्रैन की। मैं वही खड़े खड़े सोचने लगा, ये भीड़ तो रोज़ की ही होगी हर रोज़ इतने लोग दिल्ली जाते है, आखिर दिल्ली कितनी बड़ी है इतने लोग रहते कहा होंगे लगता है कि हजारों गाँव के लोग भी कम पड़ते होंगे दिल्ली जैसे शहरों में ...यही सोच ही रहा था अभी कि मेरा छोटा बेटा छोटुआ बोला " बाउजी पेशाब लगी है, मैंने कहा आजा बेटा करा देता हूँ।
पर भीड़ देख कर तो मन घबरा ही जाता था, मैंने छोटुआ को कंधे पर बिठाया और एक हाथ से उसे पकड़ा और दूसरे हाथ से सीटों का सहारा लेते लेते लोगो के ऊपर से निकलता हुआ।आखिरकार बाथरूम तक पहुंच ही गया।
लोग ट्रैन की गलियों में निर्जीव बोरियों की तरह पड़े हुए थे, छोटुआ को बाथरूम में भेज के यही सोचने लगा, क्या पेट की भूख है, न जो सजीव को निर्जीव बना देती है, सारे दर्द को मिटा देती है, बस दो रोटी की भूख ही तो है, जोकि इंसान दूसरे इंसान का दर्द भी नहीं देखता है, यहाँ तक की कुछ रुपयों के लिए लोगो को जान से मारने में भी नहीं घबराता है, इतने में छोटुआ ने फिर आवाज़ लगाई, " बाउजी हो गया चलो "
आजा छोटुआ कहकर मैंने फिर से उसे कंधे पर बिठाकर अपनी सीट पर पहुंचा, जैसे तैसे भूखे प्यासे हम सब दिल्ली पहुंच गए।
अब क्या करे कैसे अपने दोस्त के पास जाये यही उधेड़ बून में थे, फ़ोन तो था नहीं कि फ़ोन करके जतिनवा को बुलवा ले या उससे ही कुछ पूछ ले।
पर जतिनवा का पता हमारे पास था, तो बस बिजुरिया और बच्चों का हाथ थामे स्टेशन से बाहर की ओर चल दिए।
जितनी भीड़ ट्रैन में थी उतनी ही भीड़ स्टेशन पर दिल्ली में तो हर जगह भीड़ ही भीड़ है, सब दौड़ रहे है, कोई कुली है कोई समोसे बेचने वाला तो कोई चाय वाला तो कोई कुछ और।
सब दौड़ने में लगे है, ट्रैन में जाने वालो की भी उतनी ही भीड़ है,जितनी की दिल्ली आने वालो की है।
अब तो ये सब रोज़ ही दिखना था,सो हम बस स्टैंड पहुंचे, वहां से हमें संगम विहार जाना था, वही पर तो हमारा दोस्त जतिनवा रहता था न
तो हम बस पकड़ कर संगम विहार पहुंच गए। कल से सभी ने ख़ाली पानी और २-२ बिस्कुट खा के पेट की भूख को दबाये थे।
संगम विहार पहुंच कर जतिनवा का कमरा ढूंढने में तो ऐसी तैसी हो गई, दिल्ली इतना बड़ा शहर बड़ी - बड़ी इमारते सड़को पर भागती जिंदगी और दूसरी तरफ संगम विहार जैसे जगह पर पतली- पतली गलियाँ,सड़कों पर खुदाई, कीचड़ भरे सड़के,लोगो की खचाखच भीड़,जगह - जगह टूटी हुई नल के पाइप और पानी बहता नज़र आया। लोग तो कहते है,दिल्ली में पानी कम है पानी बिकता है,पर मुझे तो पानी बर्बाद होता नज़र आया,ये पानी बर्बाद क्यू हो रहा है जब दिल्ली में पानी की कमी है तो, मुझे समझ नहीं आया। आख़िरकार मुझे एक घंटा घूमने के बाद गली के नाके पर ही मेरा दोस्त जितन्वा मिला। हम दोनों गले लगे,उसने अपनी भाभी के पैर छुए, और हम सबको लेकर अपने घर चल दिया।
घर पहुँचकर सबने चाय पिया। सब बहुत भूखे थे, पर जतिनवा ने सबके लिए खाना बना रखा था, थोड़ी देर में सबने नहा धोकर खाना खाया, खाना खाने के बाद जतिनवा ने बताया कि देख तेरे काम के लिए मैंने बात कर ली है, कल मेरे साथ चलो,और कल से ही काम शुरू कर लो। दो दिनों में कमरे का भी इंतज़ाम हो जायेगा। मैं बहुत खुश हुआ और बोला ठीक है,पर इसकी भी कही लगवा देते ( अपनी बिजुरिया की तरफ इशारा करते हुए बोला )
जितवा बोला - काहे टेंशन लेते हो पहले खुद लग जाओ, ठीक से सेटल हो जाओ, फिर भाभी जी को भी लगा देंगे।( हम दोनों ने हामी भरी और हां में हां मिला दिया ) रात को खा पी कर जल्दी सो गए, हम जितन्वा छत पर ही सोये। बिजुरिया और बच्चे कमरे में सोये। सुबह काम पर भी जाना था।
अगले दिन सुबह - सुबह ही 5 बजे जागकर बिजुरिया ने सब खाना बना दिया, हमें पता भी नहीं चला, जतिनवा बोला इन सबकी क्या जरूरत थी भाभी हम खुद कर लेते न। बिजुरिया बोली -" ऐसे क्यूँ कहते हो देवर जी हमारा भी तो फ़र्ज़ है कुछ।
चलिए आप दोनों तैयार होकर काम पर जाने की तैयारी कर लीजिए।
मैं घर की साफ़ सफाई सब कर दूंगी।
हम दोनों भी तैयार होकर अपनी अपनी टिफिन लेकर फैक्ट्री की और चल दिए।
३० मिनट्स की दूरी पर था फैक्ट्री, मुझे आज से ही काम पर रख लिया गया, और हमारी मजदूरी भी 4000 रुपये महीना लगाई गई, और कमरे के लिए 500 रुपये अलग से।
मैं बहुत खुश था मन लगाकर काम करने लगा।
मेरा काम वहां के सुपरवाइजर को बहुत अच्छा लगा,उसने जो भी कहा वो सब काम मैंने कर दिए, शाम को हम दोनों छुट्टी के बाद साथ साथ ही घर आ गए।
इसी तरह काम चलने लगा,अब जिंदगी पटरी पर आ गईं, मैंने जितन्वा के कमरे के बगल में ही कमरा ले लिया था।
बिजुरिया जतिनवा के लिए भी खाना बना दिया करती थी,क्योंकि वो यहाँ अकेला था।
मेरे दिल्ली आये एक महीने हो गए थे, अब मेरी दिन की ड्यूटी रात में बदल गई थी, और मेरे दोस्त की ड्यूटी वही दिन की ही रही,जब मैं ड्यूटी जाता तो उसके आने का टाइम हो जाता।
एक दिन की बात है, रात की शिफ्ट में मैं काम करने गया, पर आज मशीन में कुछ कमी लग रही थी, मशीन धीरे - धीरे चल रही थी, मैंने सुपरवाइजर से बताया कि मशीन ठीक नहीं चल रही है, तो उसने कहा कि अभी तुम चलाओ थोड़ी देर में ठीक करवा देता हूँ ।
तक़रीबन एक बजे मशीन ठीक करने वाला आया उसने मशीन खोल के सब चेक किया फिर बोला कि इसे बनने में लगभग एक दिन पूरा लग जायेगा।
फिर क्या था, सारी मशीनों पर पहले से ही लोग काम कर रहे थे।
तो सुपरवाइजर ने कहा अगर घर जाना चाहते हो तो चले जाओ, आज की पूरी तनख्वाह मिलेगी, और यहाँ रहना है तो यही रह लो।
मैंने सोचा की घर ही चलता हूँ, आराम से सो लूंगा, यहाँ तो इतना शोर है,क्या करूंगा यहाँ रहकर परेशां ही हूँगा।
ये सोचकर मैंने गेट पास लिया और घर की तरफ निकल गया।
लगभग २ बजे मैं फैक्ट्री से निकला।
सड़कें खाली थी, एक दो गाड़ियाँ चल रही थी, कहीं कहीं सड़क की लाइट ख़राब थी, वहां बहुत अँधेरा था।
यू ही चलते - चलते अभी कुछ आगे ही निकला हूँगा कि आगे की सड़क एकदम खाली पड़ी थी।
एक तरफ किसी फैक्ट्री की ऊँची दीवार और दूसरी तरफ एक तालाब जिसमे कीचड़ ही कीचड़ थी, उसमे से हमेशा गन्दी बदबू आती थी।
उस तालाब के थोड़ा करीब पहुंचा तो किसी बच्चे की रोने की आवाज़ आने लगी मुझे लगा की तालाब के पीछे बसी कॉलोनी जो है वही पर बच्चा रो रहा होगा ये आम बात है, बच्चे अक्सर भूख से रात में उठकर रोने लगते है।
मैंने इस आवाज़ को अनसुना कर आगे बढ़ गया।
पर जैसे - जैसे मेरे कदम आगे बढ़ते वैसे वैसे ही बच्चे के रोने की आवाज़ तेज़ होती जाती।
अब मुझे डर का एहसास होने लगा।
जैसे ही मैंने तालाब के आधे हिस्से को पार किया हूँगा कि उस बच्चे की रोने की आवाज़ अब तालाब के गंदे पानी से आने लगी।
आगे का रास्ता और भी डरावना और सुनसान था, सड़क के दोनों तरफ जंगली झाड़ियाँ थी, उस सड़क पर एक भी इंसान नहीं था।
मैंने सोचा आगे जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए मैं वापस फैक्ट्री जाने का निश्चय किया।
जैसे ही मैं पीछे मुड़ा फैक्ट्री की तरफ तो उस तालाब से कुछ निकला और हस्ते हुए बोलने लगा ..कहा जा रहा है .. आ मेरे पास आ ....हां हां हां .... तेज़ - तेज़ हसने लगा।
मैंने बिना पीछे मुड़े हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए फैक्ट्री की तरफ़ भागने लगा।
तभी चिल्लाते हुए उस छलावे ने कहा " आज तो तू बच गया " हां ..हां..हां ...हां...!
मैं जैसे तैसे फैक्ट्री पहुंचा और सुबह तक फैक्ट्री में ही रहा।
इस हादसे के बाद मैं कभी भी अकेले आधी रात को घर नहीं आया, सुबह होने पर ही फैक्ट्री से घर के लिए निकलता था।
ये बात मैंने जतिनवा को भी बताया,उसने कहा कि १० साल पहले एक बच्चे की लाश इस तालाब से मिली थी, इसलिए यहाँ की ऐसी कहानियाँ कई लोगो से सुनी है।
आधी रात को यहाँ से जाना ठीक नहीं है ......