Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Fantasy Inspirational

4.2  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Fantasy Inspirational

मेरे पापा 5

मेरे पापा 5

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रॉयल एनफील्ड बाइक पर मैं, उस नौजवान के साथ बैठी थी, आगे मेरे जीवन पथ में मुझे, जिनका पग पग पर साथ मिलना था। आज से पहले मैं, इतनी रोमांचित कभी न थी। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि जैसे हर विवाह योग्य कन्या को चाहिए जो वह, नौजवान सिर्फ, मुझे पति रूप में मिल रहा था। 

सुशांत को माँ ने लाखों में एक कहा था। मुझे, उससे भी बढ़कर यह लग रहा था कि सुशांत जैसा कोई दूसरा, हो ही नहीं सकता। 

बाइक पर मैं, सुशांत के साथ सवार थी। मैं, किसी भी बहाने से उन्हें छू सकती थी। फिर भी मैं उन्हें स्पर्श नहीं कर रही थी। मुझे, उनसे भगवान और भक्त का रिश्ता अनुभव हो रहा था। भक्त, भगवान के दर्शन करता है उन्हें, स्पर्श नहीं करता है। 

सुशांत चुप ही बाइक चला रहे थे। इससे मैं, यह मान रही थी कि वे मेरे मन की पढ़ रहे हैं। और मुझे मिल रही प्रसन्नता में, कुछ बोलकर विघ्न नहीं डालने के विचार से ही, वे चुप हैं। 

काश, मुझे अभी मिल रही, अपनी इस ख़ुशी का पूर्वाभास होता मैं, उन लोगों की सेवा लेती जो हमारे साथ की पहली बाइक राइडिंग, शूट करते। ऐसा वीडियो, अब तक के जीवन की मेरी, सबसे बड़ी उपलब्धि जैसा, आजीवन की स्मरणीय क्षण बन जाता। 

मै अपनी सोच में डूबी थी कि समय ने हमसे ज्यादा गति ले ली थी। समय को रेगुलेट किया जा सकता तो अभी मैं, इसकी गति अत्यंत धीमी कर देती। 

मेरे ना चाहते हुए, सुशांत संग मेरी, पहली यह बाइक राइडिंग, अतीत का हिस्सा हो गई थी। मुझे बाइक से उतरना पड़ा था। पार्क की पार्किंग में सुशांत, अब बाइक खड़ी कर रहे थे। 

पार्क में प्रवेश करते हुए साथ लाया टिफिन का बेग, सुशांत ने एक हाथ में लिया हुआ था। अपने दूसरे हाथ में, मेरे हाथ को ऐसे थामा था जैसे कि वे, कश्मीर में बाढ़ पीड़िता, किसी सुंदर लड़की को रेस्क्यू कर रहे हों। उनके हाथों के स्पर्श से मुझे समझ आ रहा था कि उनका, ऐसे मेरा हाथ थामना, वासना अधीन नहीं था। 

यह उनका, मुझ पर अधिकार बोध प्रेरित, सहज भाव था। मुझे लगा था कि किसी मंगेतर की, इससे निश्छल भावना कोई हो ही नहीं सकती। मुझे लगा कि कदाचित स्नेह वश, सभी पति, कभी कभी बड़े भाई होने का एहसास, पत्नी को कराते होंगे। 

मैं यंत्रवत अपने पग, उनके साथ उठाती-रखती पार्क के एक नयनाभिराम हिस्से में, एक बेंच तक आ गई थी। सुशांत की हर बात में इतनी अच्छाई देखना, वास्तव में सुशांत की अच्छाइयों के कारण था या मेरी उनके प्रति हुई दीवानगी से था, इसे सोच मैं, अभी का कोई बेशकीमती क्षण व्यर्थ नहीं करना चाहती थी। मैं, मुझे मिल रही अभूतपूर्व ख़ुशी की अनुभूति करते हुए, अभी के पल पल व्यतीत करना चाह रही थी। 

तब सुशांत ने पहली बार बोल कर मुझे, मेरी तंद्रा से निकाला था। वे कह रहे थे - 

रमणीक अकेले अकेले, तुमने अब बहुत खुश हो लिया है। अब तुम्हारी अनुमति हो तो क्या, हम साथ साथ इस समय का आनंद उठायें ?

उनका यह कहना मेरे उस विचार को पुष्ट कर रहा था कि सुशांत, मेरे मन की सब समझ रहे थे। कुछ सकपकाते हुए मेरे मुहँ से, अनायास निकला था कि - 

जी हाँ, हमें अब खाना चाहिए। देर करने से सब ठंडा हो जाएगा। 

सुशांत ने हँसते हुए कहा - तुम बहुत व्यवहारिक सोचती और करती हो, बातों में वह, आंनद कहाँ जो स्वादिष्ट भोजन में है। 

मैं झेंप गई थी। मुझे लग रहा था कि सचमुच मैं, गलत बोल गई थी। मुझे अभी, खाने से पहले, आपस में प्यार की बातों को, प्रमुख रखने वाली बात कहनी चाहिए थी। 

मैं भूल सुधार करने को कुछ कहती कि मैंने देखा सुशांत, निश्चिंतता से टिफिन खोल चुके थे एवं दो डिस्पोजल प्लेट्स में, यह कहते हुए सामग्री लगा रहे थे कि - वाह गाजर का हलुआ, मैं यूँ तो मीठा, कभी कभी ही खाता हूँ मगर आज, खाने में ज्यादा यही लूँगा। 

मैंने सहमति में कहा - हाँ-हाँ, क्यों नहीं। 

फिर सुशांत ने मेरे लिए लगाई प्लेट मुझे दी एवं स्वयं अपनी प्लेट जिसमें, गाजर का हलुआ ज्यादा लिया था, लेकर खाने लगे। खाते हुए हलुए की प्रशंसा कर उन्होंने, टिफ़िन में से हलुआ और लिया था। उनके मुहँ से हलुए की तारीफ़, मुझे पसंद आई थी कि मेरे द्वारा, प्यार डाल कर बनाया हलुआ उन्हें, अच्छा लग रहा था। 

जब वे टिफिन में थोड़ा बचा, हलुआ भी लेने लगे तो मैंने कहा - थोड़ा चखने के लिए मुझे तो दीजिये। 

उन्होंने इस पर कहा तुम घर जाकर खा लेना। अभी मुझे ही, इसका मजा लेने दो। 

मैंने कहा - नहीं थोड़ा तो मैं खाऊँगी। यह कहते हुए उनका जूठा खाने की अपनी तीव्र कामना वशीभूत, मैंने उनकी प्लेट में से, हलुए के दो कौर ले लिए थे। 

खाते ही मैं रुआँसी हो चिल्ला पड़ी थी - ओह, इसमें तो शक्कर है ही नहीं। 

सुशांत ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा एवं मुझे खींचते हुए एक तरफ ले गए। एक गुलाब के पौधे जिसमें ताजे, सुंदर गुलाब खिले हुए थे की तरफ, मेरा सिर, हल्के दबाव से झुकाया था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वे, ऐसा क्यूँ कर रहे हैं। तब उन्होंने पूछा - तुम्हें, गुलाब में सुगंध आ रही है?

मैंने कहा - हाँ, आ तो रही है, मगर आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह मैं समझ नहीं पा रही हूँ। आप, मुझे गुलाब ही सुंघाना चाहते थे तो इसे तोड़कर मुझे दे सकते थे। 

सुशांत ने कहा - 

कोरोना में स्वाद एवं सुगंध नहीं आती है। तुम्हें शक्कर का टेस्ट नहीं आया तो, कोरोना तो नहीं हुआ है? यह कन्फर्म करने के लिए सुगंध का परीक्षण जरूरी था। तुम्हें सुगंध आ रही है तो इसका अर्थ यह है कि तुम्हें, कोविड19 संक्रमण नहीं है।

ऐसा प्रतीत होता है स्वाद नहीं आने का कारण, तुम्हारा पूरा ध्यान प्रेमरस में डूबा है, भोजन के रसास्वादन में नहीं है। 

गुलाब मैंने इस लिए नहीं तोड़े कि जैसे आप-लड़कियाँ, व्यर्थ नहीं छेड़े जाने पर सुंदर और खिली सी अच्छी लगती हैं, वैसे ही मुझे, गुलाब अपने पौधे पर ही शोभा देते लगते हैं। 

मैंने उनके इस अनुकरणीय दृष्टिकोण की मन ही मन प्रशंसा तो की मगर, शिकायती स्वर में कहा - आप झूठे हो, हलुए में शक्कर नहीं है। आप ही उसे प्रेम रस के साथ ग्रहण कर रहे हैं जिसके कारण आपको शक्कर रहित हलुआ भी, मीठा और स्वादिष्ट लगा है। 

सुशांत ने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा - यह अन्याय है मी लार्ड, अपना प्रेम दीवानापन आप मुझ पर आरोपित कर रही हैं। 

मैने समर्पण करते हुए कहा - आप, परिहास न करते हुए, सीरियसली बताइये की यह स्वाद हीन हलुआ, आपने कैसे खा लिया? और यह भी बताइये कि मीठा कम क्यों खाते हैं, आप?

इस पर सुशांत ने गंभीरता से कहा - 

रमणीक, जीवन में, मैं भोजन में बहुत रस नहीं लेता हूँ। मुझे राष्ट्र-भक्ति एवं कर्तव्य-परायणता में जीवन रस एवं मातृभूमि से सुगंध मिलती है। 

अर्थात खाने से ज्यादा जीवन रस मुझे, कर्म एवं विचारों की अच्छाइयों में मिलता है। ज्यादा मीठा खाना मेरी फिटनेस पर भी असर करते लगता है। इसलिए भोजन में चीनी कम लेता हूँ। आज, मैं हलुआ ज्यादा खाना चाहता था क्योंकि इसे, तुमने मेरे लिए, प्रेम से बनाया था। 

सुशांत के उत्तर से मुझे खेद हुआ कि मैं माँ एवं सुशांत में हो रही बातों को सुनने में मग्न, हलुए में मिश्री डालना भूल गई। मैंने खेद सहित कहा - मैं कल ही फिर हलुआ बना के, आपके घर पहुँचाउंगी जिसे सर, ऑन्टी एवं आप मन भर के ग्रहण कीजियेगा। 

मुझे सुनते हुए, अब तक सुशांत ने टिफिन समेट लिया था। प्लेट्स एवं अन्य डिस्पोजल्स, पास के डस्टबिन में डाल दिए थे। अर्थात देश के स्वच्छता अभियान के प्रति भी वे जागरूक थे। 

अब हम पार्क में, साथ भ्रमण कर रहे थे। मेरे मन में इन दिनों में, सुशांत को लेकर जो विचार चले थे, उनका उत्तर मैं, सुशांत से लेना चाहती थी। अतः मैंने पूछा - 

सुशांत आप इतने आकर्षक, सजीले एवं योग्य लड़के हो, आप में तो, कॉलेज के समय से ही, अनेक लड़कियों ने अपना प्यार दर्शाया होगा?

सुशांत ने कहा - हाँ, मगर वे दिन मेरे पढ़ने के थे अतः तब मैंने, अपने अध्ययन पर एवं अब अपने सैन्य कर्तव्यों पर, अपना ध्यान केंद्रित किया है। अपने प्रति आकर्षित लड़कियों को, मैं विनम्रता से ना कहता रहा हूँ। 

मैंने फिर पूछा - आप 28 वर्ष के हैं, इस अवस्था की शारीरिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए, उनमें से किसी के साथ शारीरिक संबंध रख सकते थे?

सुशांत ने कहा - इस विषय में, मेरे विचार पुराने हैं। ये संबंध मैं, पति-पत्नी में ही उचित मानता हूँ। इसलिए मैंने किसी से फ़्लर्ट नहीं किया। मैं, नहीं चाहता कि कोई लड़की, मेरे से संबंध के अपराध बोध के साथ अपने पति के, बाहुपाश में जाये। 

उनके उत्तर ने मुझे, जीजू स्मरण दिला दिया, जिन्होंने एक दिन अकेले में मुझसे कहा था - निकी, तुम्हारे उम्र की लड़कियों में, एक शारीरिक जरूरत हो जाती है। अभी, तुम्हारी शादी नहीं हुई है। मगर चिंता न करो, मैं हूँ ना। 

मुझे, तभी से जीजू घटिया लगने लगे थे। उन्होंने अपनी अनियंत्रित कामुकता में, दीदी को धोखा देना एवं मुझे, पथ भ्रष्ट करना चाहा था। उनसे, मैंने मूक नाराज़गी दिखा, पीछा छुड़ा लिया था। तब से ही मैं, उनसे अकेले में साथ करने से, बचने लगी थी। 

सुशांत ने मुझे चुप देखा तो, पूछने लगे - रमणीक कहाँ खो गईं?

मैंने कहा - मेरा, आपसे पूछा गया प्रश्न, आप, मुझसे भी पूछ सकते हैं। 

सुशांत ने कहा - मैं, आवश्यकता नहीं समझता। 

मैंने पूछा - आपकी होने वाली पत्नी के पूर्व ताल्लुकात तो नहीं, आप इस की पुष्टि नहीं करना चाहेंगे?

उन्होंने जबाब दिया - जीवन है, समझ कम होने से कोई, कभी गलती कर दे तो समझ आने पर उसे दोहराएगा, मैं ऐसा नहीं मानता। मुझे यह भी नहीं लगता कि तुमने, अवैध संबंधों में पड़ने की गलती की है। 

मैंने पूछा - वैसे आप सही हैं, मगर की होती तो? 

सुशांत ने कहा - उस पर ध्यान नहीं देता। मुझे स्वयं पर विश्वास है कि जो भी मेरे करीब होता है, मेरे विश्वास को नहीं तोड़ता है। तुम अब, मेरे करीब आई हो, पूर्व में क्या रहा है, उससे अलग मुझे विश्वास है कि आगे पूर्णतः, तुम मेरी होकर रहोगी। 

यह सच था मगर, मुझे अचरज हो रहा था, लड़का कोई, ऐसा कैसे हो सकता है? जो, अपने चरित्र पर तो दृढ मगर उस लड़की को, जो उसकी पत्नी होने वाली है, के चरित्र को लेकर यूँ, उदासीन रहे। 

मैंने यही पूछ लिया तो, इसका जबाब भी अनूठा था। सुशांत ने कहा - नारी को भ्रमित कर उसका शोषण करना, पुरुष धूर्तता होती है। मेरी दृष्टि में नारी क्षम्य है। पुरुष धूर्तता, अक्षम्य है। 

मैंने श्रृध्दा पूर्वक कहा - आपसे बढ़कर कोई, फेमिनिस्ट ना होगा। 

उन्होंने कहा - नारी दशा को लेकर मुझे करुणा होती है। उसे सशक्त करने के लिए उसके “साथी”, पुरुष भूमिका, ठीक होनी चाहिए। 

उनका मन और झाँकने के लिए मैंने तर्क किया - 

क्या, इसे मैं ऐसा लूँ कि यदि मैं बताऊँ, मेरे, पूर्व संबंध रहे हैं तो भी आप, मुझे स्वीकार करेंगे?

सुशांत ने उत्तर दिया - यह प्रकरण ही नहीं है, फिर क्यों तुम पूछती हो? चलो मैं, मान लेता हूँ कि ऐसा है। तब मेरा न्याय बोध, यह कहता है कि सदियों से अनेक पुरुष, एकाधिक स्त्री से, संबंध रखते हुए, अपनी पत्नी को पतिव्रता देखना चाहते रहे हैं। 

ऐसे में जैसा पुरुष के बारे में कहा जाता है कि वह नारी से अधिक साहसी होता है। तब उसे पुरुषोचित साहस से नारी के ऐसे होने को, उदारता से स्वीकार करना चाहिए। 

अन्य शब्दों में यह कि मैं, आपके इतिहास को वह, जैसा भी रहा हो, महत्वहीन मानते हुए तुम्हें स्वीकार करूँगा। 

मैं सोचने लगी “वाह सुशांत और वाह उनका न्यायबोध”। उन्हें, अपना (होने वाला) जीवन साथी अनुभव करते हुए मैं, गर्विता हुई थी। 

मुझे यह भी ख़ुशी हो रही थी इस बेदाग चरित्र के पुरुष को, मैं, ‘सुशील-कन्या’ मिल रही थी। मुझे लग रहा था कि सच में हम #राम-मिलाई जोड़ी थे। अगर राम मुझे, सुशांत से नहीं मिलाते तो यह, सुशांत की सद्चरित्रता के साथ अन्याय होता।   

मुझे सुशांत से, बच्चों जैसे (जैसा छोटे बच्चे, अपने पेरेंट्स से करते हैं) प्रश्न करने एवं उनका उत्तर सुनने में बहुत मजा आ रहा था। मैंने पार्क में पास ही एक लड़के के मोबाइल पर क्रिकेट वीडियो कमेंट्री सुनी। जिससे मेरे मन में नया प्रश्न उभरा, मैंने पूछा - 

बॉलीवुड एवं क्रिकेट की चर्चा, इस समय की बड़ी समस्याओं, अर्थात #कोरोना एवं देश की सीमाओं पर के खतरे से, ज्यादा हो रही है। इस पर आपका विचार क्या है?

सुशांत ने कहा - विस्तारपूर्वक कभी बाद में कहूँगा। अभी सिर्फ इतना कहूँगा कि यदि बॉलीवुड, पहले इतना लोकप्रिय हुआ होता तो #प्रेमचंद, #जयशंकरप्रसाद एवं #सरोजनीनायडू तरह के नाम हमारे इतिहास में दर्ज ही नहीं मिलते।

 और अगर, 

क्रिकेट का, हमारे समाज में इतना प्रभाव पहले होता तो, भगतसिंग, चंद्रशेखर आज़ाद एवं सुभाष चंद्र बोस के तरह के क्रांतिकारी देश को मिलते, मुझे इस पर संशय है। 

मेरा आशय यह है कि #छद्म_नायक की छाया में #वास्तविक #नायक पनप ही नहीं पाते। 

यह स्वतंत्र भारत का दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ अच्छाइयाँ तो, अथक प्रयासों से भी प्रसारित नहीं हो पाती हैं मगर अकर्मण्यता एवं बुराई, बॉलीवुड एवं क्रिकेट की लोकप्रियता से बिना विशेष प्रयास प्रचारित एवं प्रसारित होती हैं।  

आहा! वैचारिक रूप से मुझे चरम आनंद अनुभव हुआ था। सुखद आश्चर्य था कि मेरे हर प्रश्न का ऐसा स्पष्ट एवं सुलझा उत्तर देने वाले, इस “आर्मी ऑफिसर” का रिश्ता, मेरे लिए स्वमेव आया था। 

मैं देख पा रही थी कि मेरे आगे के जीवन में, सुशांत के साथ से, #विचारधारा प्रमुख हो जाने वाली थी। 

पार्क से लौटने के पूर्व मैं एक और तसल्ली उनसे कर लेना चाहती थी। मैंने उनसे पूछा - 

एयरफोर्स के अपने कर्तव्य, #जाबांजी से निभाते हुए आप, इस बात का ध्यान तो रखा करेंगे कि घर में आपकी पत्नी, “मैं”, आपके घर लौटने की प्रतीक्षा, अधीरता से किया करती है। 

सुशांत के मुख पर अतिरिक्त गंभीरता परिलक्षित हुई थी उन्होंने कहा - 

अपने जीवन को मैं, आपकी #अमानत मानते हुए अपने खतरनाक कार्य, पूरे दिमाग और सतर्क रह अंजाम दिया करूँगा। मैं, यह अवश्य तुमसे, चाहूँगा की #राष्ट्र #रक्षा में, कभी अपनी पूरी #सजगता के बाद भी मैं, कभी अपने प्राण ना बचा पाऊँ तो तुम इसका दुःख नहीं करोगी। अपितु मेरी #वीरगति का #गौरव अनुभव करोगी। 

यह उत्तर उनका निर्विवाद रूप से विशुद्ध एवं सही था लेकिन मेरी आँखे नम हो गईं थीं। मैंने अपना मुहँ दूसरी तरफ कर लिया था। मेरी इस चेष्टा को उन्होंने समझा था। मुझे सम्हलने का समय देने के लिए उन्होंने चुप्पी साध ली थी। 

अब समय, घर लौटने का हुआ था। हम पार्किंग में आये थे। फिर एक बार में सुशांत के साथ #सगर्व रॉयल एनफील्ड पर सवार हुई थी। उन्होंने और मैंने हेलमेट लगाने के पूर्व एक दूसरे को सप्रेम, आत्मीयता से देखा था। सुशांत पर, पुनः उनकी विनोदप्रियता हावी हुई थी। उन्होंने, पूछा - 

रमणीक, अगर इंटरव्यू में तुमने, मुझे पास कर दिया हो तो, हम विवाह कब करें, यह जानना चाहता हूँ?

मैं, लजाई थी। मैंने हेलमेट लगा लिया था। सुशांत भी मुस्कुराये थे फिर उन्होंने, हेलमेट लगा कर बाइक स्टार्ट की थी। रास्ते में, मैंने चिल्लाकर कहा - 

आप चाहो तो मैं, आज ही विवाह कर लूँ आपसे!

सुशांत हास-परिहास से बाज नहीं आ रहे थे। उन्होंने जानबूझकर कहा - 

क्या कह रही हो, जोर से कहो, मुझे, हेलमेट में कम सुनाई पड़ रहा है।

मैंने भी उनकी शरारत का आनंद लेते हुए, गला फाड़कर दोहराया था - 

आप चाहो तो मैं, आज ही विवाह कर लूँ, आपसे! 

अब सुशांत सहित सड़क पर, आसपास चलने वालों ने भी, यह सुन लिया था। 

शायद मास्क के भीतर उन सभी के ओंठों पर मुस्कान थी। लेकिन मुझे अब कोई लाज नहीं आई थी क्योंकि मेरे साथ सुशांत थे।     

(मेरा अनुरोध है कि इस कहानी का अगला एवं अंतिम भाग, कोई #साहित्यकार या #प्रबुध्द #पाठक लिखे। मैं इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ)


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