मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 6
मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 6


सुखदेव: यार भगत कुछ भी कह ले तेरा ये पगड़ी वाला फोटो लगता एकदम ज़बरदस्त है। इसे देख के तो कोई भी तेरे इश्क़ में पड़ जाये।
भगत: क्या फ़र्क पड़ता है कोई पड़ भी जाये तो... तुझे तो पता ही है कि इस कदर वाकिफ़ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से, अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंक़लाब लिख जाता है।
सुखदेव: सो तो है। मोहब्बत है एक ही बार होती है। देश से हो गई, क्या करें...
राजगुरु: पगड़ी में ऐसा क्या नया है? वो तो ये बचपन से पहनता होगा।
भगत: नहीं, पगड़ी पहनना मैंने अकाली आंदोलन के वक़्त शुरू किया था। उस आंदोलन में पहचान के लिये सर पे काली पगड़ी पहनते थे। मैं आंदोलन में शामिल हुआ तो मैंने भी पहननी शुरू कर दी।
सुखदेव: उस वक़्त भी तो तुझे भाग के दिल्ली जाना पड़ा था। तब भी गोरे तेरे पीछे पड़ गये थे।
भगत: गोरों ने पीछा छोड़ा ही कब ? वैसे अच्छा ही हुआ था उस वक़्त जो गोरे पीछे पड़ गये। अगर ना पड़ते तो शायद मैं उस हस्ती से ना मिल पाता जिसके मैंने सिर्फ़ किस्से सुन रखे थे।
राजगुरू: कौन? अपने पंडितजी ?
भगत: हाँ। पंडित चंद्रशेखर आज़ाद। बड़ी तमन्ना थी उन दिनों पंडित जी से मिलने की, और जब मिलने का मौका मिला भी तो छिपते छिपाते।
सुखदेव: ये अपनी 'नौजवान भारत सभा' के बनने से पहले की बात है?
भगत: हाँ, उसी से पहले की बात है। अपना ग्रुप भी तो इसी दौरान बना था।
सुखदेव: हाँ, और भगवती भाई भी तो तभी मिले थे।
भगत: कहाँ... कॉलेज में भी तो थे भगवती भाई।
सुखदेव: पर हमसे तो बाद में आकर मिले ना...
भगत: हाँ... सो तो है।
आप शायद भगवती भाई को उतने अच्छे से नहीं जानते होंगे। भगवती चरण वोहरा, हमारे क्रांतिकारी दल के सदस्य और बड़े अच्छे दोस्त। वैसे तो गुजराती ब्राह्मण थे पर रहते थे लाहौर में ही। भगवती भाई के पिताजी शिव चरण वोहरा रेलवे में काम करते थे। बड़े खुश रहते थे अंग्रेज़ उनके काम से, 'राय साहब' की उपाधि भी दी थी उन्हें। लेकिन भगवती भाई पर इन सब बातों का कोई असर नहीं था। हम सब की तरह वतन की आज़ादी उनका भी सपना था। एक और खास बात, हमारी दुर्गा भाभी भगवती भाई की ही तो पत्नी थीं।
सुखदेव: यार ये गोरे होते तो बड़े डरपोक हैं।
भगत: ये तुझे अब पता चला?
सुखदेव: नहीं, पता तो तभी चल गया था। ज
ब दशहरा कांड के चक्कर में तुझे धर लिया था। असली मुद्दा था काकोरी की अंदर की बातें उगलवाने का, पर हिम्मत ही नहीं थी जो सीधे सीधे आकर पूछताछ कर पाते।
सच कहा सुखदेव ने। अंग्रेजों ने ये नीति भी अपना रखी थी कि करना कुछ चाहते थे और नाटक कुछ और करने का करते थे।
अरे... इसकी बातों ने मुझे एक किस्सा याद दिला दिया। चलिये आपको सुनाता हूँ...
काकोरी के बाद की घटना है। लाख कोशिश करने के बावजूद भी मैं और मेरे साथी, पंड़ित राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और अश्फ़ाक उल्ला खाँ (जो काकोरी कांड में पकड़े गए प्रमुख क्रांतिकारी थे) को छुड़ाने में नाकाम रहे। हम कानपुर से लाहौर वापस जा रहे थे। अचानक मुझे याद आया कि अमृतसर में किसी से मिलना है। बस उतर पड़ा मैं ट्रेन से। पहले तो सोचा कि पुलिस वाले होंगे, बचते बचाते जाना पड़ेगा। पर जैसे ही ट्रेन से उतरा, देखा तो वहाँ कोई नहीं। मैंने भी सोचा कि बड़ी मेहरबानी कर दी आज तो गोरों ने, वरना कहीं भी पीछा नहीं छोड़ते। पर ना जाने कहाँ से एक नामुराद पुलिसवाला स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरे पीछे लग गया। अब कच्ची गोलियाँ तो हम भी नहीं खेले थे। समझ गये कि हमारा ही पीछा किया जा रहा है।
चकमा दे के मैं एक मकान में घुस गया। और वो मकान था एडवोकेट सरदार शार्दूल सिंह का। थे तो सरकारी वकील पर क्रांतिकारियों का समर्थन करते थे।
मेरे पीछे पीछे वो पुलिसवाला भी आ गया। पूछताछ करने लगा। पर मैं सरदार साहब को पूरी बात पहले ही बता चुका था तो उन्होंने ना सिर्फ़ उसे उलझाकर दूसरी तरफ़ भेज दिया बल्कि मुझे भी तब तक बाहर नहीं निकलने दिया जब तक कि रास्ता पूरी तरह साफ़ नहीं हो गया।
बड़ी कोशिश की उन्होंने मुझे बचाने की पर क्या करते... गोरे तो घात लगाये ही बैठे थे। कर लिया गिरफ़्तार। 60 हज़ार की जमानत लगी तब छूटा, वो भी 15 दिन की ख़ातिरदारी के बाद।
सुखदेव: ले साइमन… ले... आजा... ले साइमन आजा...
देखो इसे... कहाँ तो साइमन गो बैक साइमन गो बैक चिल्ला चिल्ला के गला दुखने लगा था और इसे अपने कुत्ते का नाम रखने के लिये कुछ और नहीं मिला।
भगत: ओ मेरे भाई... मेरे सामने मेहरबानी कर के इसका नाम मत लिया कर। गला और दिल दोनों के जख़्म हरे हो जाते हैं।