Chetna Sharma

Abstract

3.2  

Chetna Sharma

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मायका मीठा काढ़ा

मायका मीठा काढ़ा

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अब आई हो तो कुछ ...महीना भर तो रुक कर जाना बिटिया...।

कितने दिनों बाद हिसाब लगाते हुए लगभग 1 साल 3 महीने बाद आई हो। अच्छा... हमें तो याद भी नहीं अम्मा.. तुम इतना हिसाब रख लेती हो।

अब क्या.... करें बिटिया..... बुढ़ापे तक पहुंचते-पहुंचते इंसान हिसाब का पक्का हो ही जाता है ।अगर कुछ ना हो तो हिसाब लगाने को.... तो समय कैसे ...?कटे इन बूढ़ी हड्डियों का...।

और नीमा करवट बदलते हुए पंखे की खटखट में ध्यान लगाते हुए बोली ,अच्छा वह नुक्कड़ वाली मिश्राइन अब भी आती है क्या.. ?? तुम्हारे पास अम्मा..।

अरे !...अब नहीं ,बेचारी को पिछले महीने ही लकवा मार गया...।

ओह!... यह तो बुरा हुआ। भजन कीर्तन में कितना सुंदर नाचती थी काकी...।

हां.. होनी को कौन टाल सकता है..., सही कहती हो ....अम्मा ।

अच्छा... बगल वाले ताऊजी... और वह रामेश्वर काका.... सब ठीक है ना .....।

हां . वह सब ठीक है ,और अब तुम भी सो जाओ.... मां का हाल-चाल पूछा नहीं, मोहल्ले भर की खबर आज ही पूछ लो हमसे...।

नीमा ने लाड़ से मां के गले में हाथ डालते हुए कहा-" नाराज हो गई"।

क्यों ...?नाराज नहीं होंगे क्या ..?सब की फिकर बस हमारी ही नहीं .. ।

तुम्हारी फिक्र है जब भी तो ससुराल से छुट्टी लेकर आए हैं..।

बड़ा एहसान हम पर..., एक तुम ही ससुराल वाली हो ,बाकी तो सब जंगल में ब्याही है।

ओहो!...अम्मा नाराज मत हो ....।हम नहीं पूछेंगे किसी और के बारे में।कहकर नीमा माँ से लिपट कर सो गई ....।

और सुबह बाल झाड़ते -झाड़ते सोच रही थी नीमा... कैसे लिपट कर सोई थी वो रात को मां से...,अब उसकी उम्र रह गई है क्या...? ऐसे सोने की है।

और उसके बच्चे भी तो अब जवानी में कदम रख चुके हैं । पर मां का बूढा सिकुड़ा आंचल आज भी ढक लेता है उसे पूरा का पूरा।

नीमू-नीमू ....हां माँ...। नीमा का चित्त टूटा ।रात को क्या खाएगी ।जो अपने हाथों से जो परोस दोगी माँ।

और नीमा सोचने लगी अम्मा ...अभी तो दोपहर बीच में है और रात की चिंता पहले हो गई तुम्हे।

अच्छा बाबा कहां ...गए ??अरे!... वह कहा .. जाएंगे ??अपनी मंडली के साथ गए हैं सुबह की सैर पर ,और दोपहर की ताश... इसके आगे और क्या सूझता है भला उन्हे...।

भाई-भौजाई जब से शहर की तरफ रुख करे है...तुम और बाबा अकेले हो गए न अम्मा गाँव में...?

अरे!...नही ,ठीक है बिटिया पहले शुरु-शुरु में बुरा लगा था पर अब आदत हो गई हमको..। कभी- कभी आते हैं तो प्यार से दस-पाँच दिन कैसे बीत जाते हैं पता नहीं चलता।

हां ...यह तो है ,वैसे भी कुटुम्ब के इतने घर है । फिकर की कोई बात नहीं होती।

अच्छा... कहते -कहते नीमा की यादो की डोर उस भरे पूरे घर मे खो गई, जहा हर वक्त चहल पहल, खुशियां थी, और एक खाली कोने के लिए तरसती थी वो...।

पर तब याद आया खाली कोना...?

और उसका दिल धक से रह गया... अचानक ही सीढियो की तरफ कदम बढ़ा गई ...पानी की टंकी के पीछे ...।

अरे!...यह क्या कितना कबाड़ भर दिया अम्मा नेयहाँ कितनी धूल और जाले ...।

और जालो से याद आया ...जाले मकड़ी के बुने हुए कितने गहन और महीन...।

हटाते हटाते दिल की गिरह खोलने लगी... नीमा।

सूरज के साथ सुंदर जीवन के सपने वह यहीं बैठकर बुनती थी ।सूरज कस्बे से शहर क्या गया? पढ़ने, छोटे शहर की मामूली सी लड़की हो गई वह उसके लिए।

मन मसोसकर हट गई उसके रास्ते से ।पूछा भी नहीं फिर क्यों टिकती थी मुझ पर तुम्हारी नजर ।

उस नजर का भी तो वास्ता नहीं दे पाई, उस नजर के अलावा कोई और सबूत भी तो नहीं था उसके पास अपनी गवाही का प्यार का, सपनो का। मन मसोस कर रह गई जब...,जब उसने सूरज की छोटी-छोटी आंखों में बड़े-बड़े सपने देखे ।और उन्हें पूरा करने का उतावलापन ।

और लोकेश की गृहस्थी संभालने जा पहुंची दबी छुपी गुडिया सी बन... मन में इतनी उथल-पुथल ।पर फिर , पति के स्नेह रूपी मेघ मे छुप गया सूरज का अस्तित्व कही।

बिटिया ओ बिटिया... हाँ ददा आते हैं क्या...?हुआ।

अरे!. जलेबी लाए है आओ खा लो नही तो ठड़ी हो जाएगी।

अरे !...जब से आई है तुम्हारी बिटिया हमारी खबर लेने की बजाय और सब कीखबर ले रही है ।वह कैसा.. है ?वह आता है ना....,फलना कहां है...?

और एक हम हैं जो सोचते हमारे वास्ते आई है ।

ओहो!...अम्मा , ऐसा क्यो सोचती हो तुम मायका तो ठड़ी हवा के झोंके सा होता है कढ़ी धूप में। जब लड़की वहा जाती है तो..., बचपन से लेकर जवानी की दहलीज तक के सारे पड़ाव, फिर से पार करती है। बाबा की लाई जलेबी.....,भाई की खींची चोटी.... और बहन से बांटा सूट.... ताकि इस टूटी थकी देह में फिर से प्राण फूंक सके। यह तो ऐसा 'मीठा काढ़ा है 'मां जिसे पी लेने के बाद कुछ कैसेला और बेस्वाद नहीं लगता ।

बाबा की मजबूरी और तुम्हारी थकान, फिर से भीतर एक ताकत फूंक देती है ।और सब कुछ हल्का और आसान लगने लगता है बहुत आसान.. ।


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