माता-पिता के साथ बिताए बेहतरीन पल
माता-पिता के साथ बिताए बेहतरीन पल
ये उन दिनों की बात है जब यह एहसास नहीं था कि ये दिन ही अच्छे दिन हैं और ये पल ही जिंदगी के बेहतरीन पल हैं, जिन्हें हम बार-बार याद करते रहेगें।
मेरे पिता एक बहुत स्नेही व्यक्ति थे पर मां सख्त , अनुशासन प्रिय महिला थीं। केवल इतवार की छुट्टी वाले दिन ही बच्चों को उनके हाथ का बना खाना खाने का सौभाग्य मिलता था। उनके लंबे घने बाल थे, जिनसे खुशबू आती थी। वे मुझे अपने बालों से दूर ही रखतीं। मेरा मन चाहता, उनके बालों की चोटी बनाऊं, क्योंकि वे हमेशा जुड़ा बनती थीं। मगर वे झिड़क दिया करतीं।
मैं पिता के अधिक क़रीब थी।
पिताजी को बच्चों को घुमाना - फिराना बहुत अच्छा लगता था। मगर एक बात थी कि पिताजी हद दर्जे के कंजूस थे। हम रास्ते में कुछ खाना पीना चाहते, तो बताते आगे चलो, आगे और भी अच्छी चीजें हैं। इस तरह हम रास्ते भर की चीजों को देखते हुए, घर पहुंच जाते। घर पहुंचते-पहुंचते जब मैं गुस्से से मुंह फुला लेती, तो बिल्कुल अनजान बनकर पूछते, " ये तुमने मुंह क्यों फुला रखा है ?"उन्हें अंदाज ही नहीं होता था, अपनी कंजूसी का।
फिर भी अगली बार जब वे घूमने जाने की बात करते, तो मैं झट तैयार हो जाती।
तब टीवी नहीं हुआ करता था। रेडियो सीलोन, बिनाका गीत माला और अमीन सयानी के दिन थे। रेडियो पिताजी की अनुपस्थिति में चलता। उनकी आहट से बंद कर दिया जाता।
हम भोले बच्चे हुआ करते थे। स्कूल में अध्यापक और घर पर बड़ी बहन और मां से डरते थे। मां कामकाजी महिला थीं, इसलिए घर की जिम्मेारियां बड़ी बहन की थीं। उनके हिस्से रसोई का काम था, मेरे जिम्मे बाज़ार से छुटपुट सामान लाना, पानी भरना और बर्तन साफ करना था।
बहन अपने बड़े होने का खूब फ़ायदा उठाती थीं। हम मासूम बच्चों से बहुत से काम करवा लेतीं, हम भी ख़ुशी- ख़ुशी कर देते थे।
गर्मियों की रातों में छत पर गद्दे लगते और हम गुलाटी लगाकर बिस्तरों की ऐसी की तैसी कर देते। फिर पिताजी से बिना कहानी सुने सोते नहीं थे।
लंबी छुट्टियां होने का मतलब होता लाइब्रेरी सदस्यता लेना। पिताजी शाम के समय कम्युनिटी सेंटर ले जाते। वहां खुद पेपर पढ़ते, हमारे लिए लाइब्रेरी की पुस्तकें थीं।
डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी दिखाई जातीं। हम पैसे का मूल्य भी खूब जानते थे। शाम को एक घंटे के लिए किराए पर साइकिल लाते और पांच बच्चे किराया शेयर करते, सवारी का समय उसी अनुपात में बनता।
हमे माता पिता केवल धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे। जिसमें हम खूब मजा लेते, जब एक सेना के अग्नि बाणों को सामने के वर्षा बाणों से बुझा दिया जाता। इधर का फरसा उधर पहुंचते ही किसी के गले का हार बन जाता।
त्यौहारों पर नए कपडे बनते, जिन्हें पहनकर हम खूब इतराते , पैसे भी मिलते। महीने में एक दिन फिल्म देखते, होटल में डोसा और आइसक्रीम खाते।
नवरात्रि में रात - रात गरबा करते, गणेश चतुर्थी में 15 दिन रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते। हमे हमेशा ले जाया जाता। रामलीला हो, नौटंकी हो कुछ नहीं छूटता था।
एक और अच्छी बात थी कि पिताजी बच्चों को पढ़ने के हर संभव मौके देते थे।
जब परीक्षा पास होती, यदि हमें किसी विषय में कठिनाई होती , हम किसी दोस्त के घर जाकर पढ़ना चाहते , तो हम दिन में चले जाते। तब यदि वे
रात बारह बजे भी ड्यूटी से लौटते तो लेने आ जाते, सर्दियों की ठिठुरती रात में भी।
मैं पढ़ाई में बहुत अच्छी थी। मैं पढ़ने बैठती तो घरवालों को मालूम होता था कि मुझे किसी भी कम के लिए उठाना नहीं है।
इम्तिहान के बाद हम अपनी पुरानी किताबों पर जिल्द चढ़ाते। उन्हें आधे दामों में बेचते और अगली क्लास की किताबों का इंतजाम करते।
रात को मुहल्ले में आई स्पाई यू खेलते। बाहर सोते लोगों की चारपाई के नीचे छुप जाते। अब सोचती हूं वे कितने अच्छे लोग होते थे, जो नींद खराब होने पर भी फटकार नहीं लगाते थे।
कितना लिखूं, क्या-क्या लिखूं ? कितना कुछ है लिखने को।
