मासी माँ

मासी माँ

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घर में चारों तरफ चहल-पहल थी। कहीं हलवाई को विशेष निर्देश दिए जा रहे थे, कहीं बाजार से आया हुआ सामान फैला था, तो कहीं पर अगली खरीददारी की सूची बन रही थी।

कभी चाय की प्यालियों के साथ हँसी-ठिठोली गूँज रही थी तो कभी अचानक माहौल में उदासी पसर जा रही थी।

इस माहौल से बेखबर घर की छत पर खड़ी लगभग पच्चीस-छब्बीस बरस की वो लड़की जिसका नाम अन्विता था, बिना पलकें झपकाये एकटक सामने वाली सड़क निहार रही थी।

कभी उसकी आँखों में उम्मीद की चमक नज़र आती तो कभी उदासी से पूरा चेहरा कुम्हलाया हुआ लगता।

"अरे जीजी, यहाँ हो तुम। हम कब से तुम्हें खोज रहे हैं।" कहती हुई अन्विता की चचेरी बहन नेहा ने आकर उसके पीठ पर धौल जमाई तो उसकी तंद्रा भंग हुई।

अन्विता ने अनमने मन से जवाब दिया, "क्या हो गया? मुझे क्यों ढूँढा जा रहा है?"

"लो कर लो बात। जिनकी शादी की रस्में चल रहीं हैं, जिनके लिए सारे मेहमान आये हैं, वही पूछ रही हैं मुझे क्यों ढूँढा जा रहा है?

वैसे आप छत पर खड़ी-खड़ी किसे ढूँढ रहीं हैं जीजी? जीजाजी तो परसों आएँगे बारात लेकर आज नहीं।" नेहा ने चुहल करते हुए कहा।

अन्विता कुछ कहती उससे पहले ही उसकी माँ पूर्णिमा जी वहाँ आ गयी और बोली "बिट्टो, यहाँ कब तक खड़ी रहेगी? चल नीचे एक बार चलकर तिलक का सब सामान तो देख ले ताकि हम अंतिम रूप से सब कुछ पैक कर सकें। बस तीन घंटे बचे हैं तेरा तिलक जाने में।"

अपनी माँ से लिपट कर मायूस आवाज़ में अन्विता ने कहा "नहीं, मैंने शोभित को कह दिया है कि जब तक मेरी मासी माँ नहीं आ जातीं, तिलक नहीं जायेगा।"

"अरे ये कैसी पागल लड़की है। दामाद जी को फ़ोन कर दिया सीधे। बेचारे क्या सोचेंगे?" पूर्णिमा जी परेशान होते हुए बोली।

अन्विता ने फिर से नज़रें सड़क की तरफ करते हुए कहा "कोई कुछ नहीं कहेगा माँ। मेरे तिलक के परात और गगरे को तो मासी माँ को ही आकर सजाना है। तभी तिलक जाएगा।

बस मैंने बोल दिया तो बोल दिया।"

उन दोनों की बातें सुनकर हतप्रभ सी खड़ी नेहा को जब कुछ समझ में नहीं आया तब उसने अन्विता से पूछा "अरे ये मासी माँ कौन हैं जिनका इतना इंतज़ार हो रहा है? सारी मासियाँ तो आ चुकी हैं?"

इससे पहले की नेहा को कुछ जवाब मिलता, अन्विता खुशी से उछलती हुई सीढ़ियों की तरफ कहती हुई भागी "मासी माँ आ गयी..."।

अन्विता को इस तरह दौड़कर घर से बाहर जाते हुए देखकर जहाँ सभी मेहमान अचरज में थे, वहीं पूर्णिमा मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।

"अरे भाई क्या हो गया? ये बिटिया ऐसे क्यों भागी?" एक रिश्तेदार ने पूछा।

"अभी आ जायेगी तब आप सब खुद पूछ लीजिएगा|" कहती हुई पूर्णिमा रसोई की तरफ चल पड़ी अपनी खास बहन के लिए खास नाश्ते का इंतज़ाम देखने।

थोड़ी ही देर में अपनी मासी माँ दीप्ति से बच्चों की तरह लिपटी हुई अन्विता ने घर में प्रवेश किया और अपनी माँ को आवाज़ देने लगी।

पूर्णिमा ने बाहर आते ही दीप्ति को गले से लगा लिया।

"आप सब ऐसे हैरान-परेशान यही सोच रहे हैं ना कि ये कौन है?

दरअसल ये मेरी सबसे खास सहेली, या कहिये मेरी छोटी बहन और मेरी बिट्टो की मासी माँ हैं, जो बिहार से खास-तौर पर बिट्टो की शादी में शामिल होकर बिट्टो से किये अपने वादे निभाने आयी है।" पूर्णिमा ने सभी रिश्तेदारों को दीप्ति का परिचय देते हुए कहा।

दीप्ति ने सभी को नमस्कार किया और पूर्णिमा के साथ अन्विता के कमरे में चली गयी।

"चलिये दीदी, अब काम बताना शुरू कीजिये। पहले ही फ्लाइट की देरी के कारण मुझे इतना वक्त लग गया आने में। क्या-क्या काम बचा है जल्दी से बताइए। किसी तरह की कमी नहीं होनी चाहिए। आखिर हमारी एकलौती बिटिया की शादी है।" दीप्ति ने पूर्णिमा से कहा।

"सारे खास काम अब आपको ही संभालने है मासी माँ। फिक्र मत कीजिये। बस पहले नहाकर जल्दी से नाश्ता कर लीजिए ताकि अपना चार्ज संभालने के लिए ऊर्जा आ जाए।" नाश्ते की प्लेट लेकर आती हुई अन्विता बोली।

"अरे वाह, मेरा प्रिय इडली और ढ़ोकला।

इतनी जिम्मेदारियों के बीच भी मेरी दीदी ने मेरे लिए इतनी मेहनत की।" पूर्णिमा के गले लगकर लाड़ से दीप्ति ने कहा।

"वाह भाई, सारा प्यार बस दीदी और बिट्टो के लिए। जीजाजी के लिए कुछ नहीं साली साहिबा।" कमरे में प्रवेश करते हुए पूर्णिमा के पति आलोक जी ने कहा।

आलोक जी के पैर छूते हुए दीप्ति बोली "अरे जीजाजी, आपके लिए भी मेरे पिटारे में बहुत कुछ है, लेकिन फिलहाल तो नाश्ता देखकर मेरे पेट में चूहे कूद रहे है।"

उसकी इस बात पर सभी लोग हँस पड़े।

तरोताज़ा होकर नाश्ता निपटाने के बाद पूर्णिमा दीप्ति को दूसरे कमरे में ले गयी जहाँ तिलक का सारा सामान रखा हुआ था और बोली, "लो भाई अब संभालो अपनी जिम्मेदारी। बिट्टो की ज़िद है कि परात, गगरे तुम ही सजाओगी। बस कुछ ही देर बचा है तिलक लेकर जाने में।"

"अरे आप फिक्र मत कीजिये, अभी सब हो जायेगा। बस बिट्टो को भेज दीजिये जल्दी से।" दीप्ति ने सामान देखते हुए कहा।

अन्विता के आते ही दीप्ति ने उससे कहा "जो सामान मैंने मंगाया था, सब लेकर आ जल्दी से।"

"ओहो तो मासी माँ और बिट्टो के बीच पहले से ही गुपचुप खिचड़ी पक रही थी।" पूर्णिमा ने दीप्ति का कान खींचते हुए कहा।

"अरे अरे दीदी, क्या कर रहीं हैं? मैं अब छोटी बच्ची नहीं हूँ। आज मेरी बिटिया का तिलक है।" दीप्ति ने रोने का अभिनय करते हुए कहा।

वहाँ उपस्थित बाकी लोग भी इन दोनों की हँसी-ठिठोली का आनंद लेते हुए दीप्ति के काम पर नज़रें जमाये हुए बैठे थे।

थोड़ी ही देर में अन्विता के बताए अनुसार दीप्ति परात और गगरे के साथ-साथ बाकी उपहारों को भी सज़ा चुकी थी।

उसकी सजावट देखकर सभी लोग 'वाह' कहने पर मजबूर हो गए थे।

नेहा ने दीप्ति से कहा, "अब मैं समझी की जिज्जी ने क्यों कहा था कि सजावट तो आप ही करेंगी।"

"मासी माँ ने मेरे लिए पहले भी बहुत कुछ किया है। अभी आगे-आगे देखो और क्या-क्या करती हैं।" अन्विता ने प्यार से दीप्ति के गले में बाँहें डालते हुए कहा।

उन दोनों को इस तरह एक साथ देखकर पूर्णिमा बीती यादों में खो गयी।

कोई बारह वर्ष पहले की बात थी। पूर्णिमा फ़ेसबुक के एक साहित्यिक समूह की एडमिन थी।

दीप्ति कुछ ही दिन पहले बतौर लेखिका इस समूह से जुड़ी थी।

एक दिन दीप्ति ने अपनी एक रचना समूह में पोस्ट की। उसे मंजूरी देने से पहले जब पूर्णिमा ने उसे पढ़ा तब उसमें उसे कुछ मामूली गलतियाँ नज़र आयीं।

ना जाने क्या सोचकर पूर्णिमा ने दीप्ति के इनबॉक्स में इस संदर्भ में संदेश भेजा।

वो संदेश पढ़कर दीप्ति मुस्कुरा उठी।

उसने जवाब में लिखा "मैम आप कितनी अच्छी है कि मेरी गलतियाँ भी सुधार दीं और सबके बीच में मुझे शर्मिंदा होने से भी बचा लिया।"

उधर दीप्ति को संदेश भेजने के बाद उसकी प्रतिक्रिया के बारे में आशंकित पूर्णिमा ने जब ये पढ़ा तो उसने राहत की साँस ली और दीप्ति के प्रोफाइल का एक चक्कर लगाने के बाद उसने कहा, "तुम मुझसे छोटी हो। अगर मैम की जगह दीदी कहोगी तो मुझे अच्छा लगेगा।"

फिर बातों-बातों में पूर्णिमा जी ने दीप्ति को बताया कि उन्होंने उसकी गलतियाँ उसे बता तो दीं पर साथ ही आशंकित भी थी कि कहीं वो उनके टोकने का बुरा ना मान जाए, जैसा कि एक जनाब पहले कर चुके थे।

जब पूर्णिमा जी ने उनकी गलती की तरफ उनका ध्यान दिलाने की कोशिश की तो वो उल्टा भड़क कर पूर्णिमा जी की लेखनी पर ही ऊँगली उठाने लगे थे।

ये बात सुनकर दीप्ति बोली, "दीदी, मुझे तो बहुत खुशी हुई कि आपने मुझे टोका। देखिए ना इसी बहाने मैंने कुछ सीख भी लिया और आप जैसी प्यारी सी दीदी को भी पा लिया।

आप मेरे लिए हमेशा ऐसी ही रहिएगा।"

दीप्ति की बात से पूर्णिमा जी को बहुत खुशी मिली।

देखते ही देखते वो दोनों सगी बहनों जैसी घनिष्ठ सहेलियाँ बन गयी, एक-दूसरे के हर सुख-दुख की भागीदार और राजदार।

पूर्णिमा को दीप्ति का आत्मविश्वास, और जीवन में कभी ना हार मानने का उसका जज्बा बहुत भाता था।

वो हमेशा चाहती थी कि उसकी बेटी अन्विता, जिसे वो प्यार से बिट्टो कहकर बुलाती थी, दीप्ति की तरह बने, ना कि उनकी तरह ज़रा-ज़रा सी बात पर घबरा जाने वाली, अपने सपनों के लिए ना लड़ पाने वाली।

जब भी दीप्ति अपनी पूर्णिमा दीदी की नज़रों में अपने लिए इतना विश्वास देखती, अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए उसके कदमों में और ताकत आ जाती। संघर्ष के दिन भी अपनी दीदी के साथ उसे सुहाने लगने लगे थे।

दीप्ति का हमेशा से एक ही सपना था अपने पैरों पर खड़े होने का, अपनी पहचान बनाने का।

लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।

इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में घातक बीमारी से पीड़ित होने के कारण कुछ सालों के लिए उसकी पढ़ाई छूट गयी।

बाद में पूरी तरह स्वस्थ होने पर दीप्ति ने दोबारा अपनी पढ़ाई शुरू की और साथ ही प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी।

लेकिन हर बार सफलता के नज़दीक पहुँचकर भी उसे सफलता नहीं मिल सकी।

जीवन के अट्ठाईसवें बसंत में पहुँचते ही आम मध्यमवर्गीय परिवारों की तरह उसके माता-पिता भी उस पर शादी के लिए दवाब डालने लगे।

आखिरकार दीप्ति ने उनकी बात मान ली और शादी के लिए हामी भर दी।

अपने जीवन से हताश-निराश दीप्ति के जीवन में ऐसा कोई भी नहीं था जिससे वो अपनी भावनाएँ बाँट पाती।

उन्हीं दिनों उसे एक नयी सखी मिली 'उसकी कलम|'

धीरे-धीरे दीप्ति ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालना शुरू कर दिया जहाँ उसके जीवन में आई पूर्णिमा और उसकी रचनाओं का मुरीद उसका जीवनसाथी गौतम। शादी और एक प्यारे से बेटे की माँ बन जाने के बाद भी रचनाकार के रूप में अपनी पहचान बनाते हुए जीतोड़ मेहनत की बदौलत आखिरकार दीप्ति ने प्रशासनिक विभाग की परीक्षा उत्तीर्ण कर ही ली।

परिणाम आने के पश्चात दीप्ति से भी ज्यादा अगर कोई प्रसन्न था तो वो थी पूर्णिमा।

बढ़ी हुई व्यस्तताओं के कारण अब दोनों की बातचीत थोड़ी कम होने लगी थी, लेकिन जुड़ाव वैसा ही था।

एक दिन जब किसी काम से दीप्ति ने पूर्णिमा को फ़ोन किया तो उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया।

दीप्ति बहुत परेशान हो गयी।

शाम में पूर्णिमा का संदेश आया कि वो अपने बच्चों के विद्यालय गयी हुई थी इसलिए उससे बात नहीं कर सकी।

दीप्ति को अंदाजा हो गया कि पूर्णिमा बहुत परेशान है।

जब उसने ज़ोर देकर पूछा तो पूर्णिमा ने कहा, "देख ना, बिट्टो के सारे विषय में बहुत अच्छे नम्बर है, बस गणित में कम है। उसे मन ही नहीं लगता गणित में। मैं क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा। दो वर्ष बाद उसके बोर्ड की परीक्षाएँ है। क्या होगा इस लड़की का?"

ये सुनकर दीप्ति बोली, "दीदी, पहले तो आप वचन दीजिये की आप मेरी बिट्टो को डाँटेंगी तो बिल्कुल नहीं, तब ही मैं आगे आपसे बात करूँगी।"

"चल वचन दिया। बोल क्या बोलना चाहती है।" पूर्णिमा जी ने जवाब दिया।

"मैं बस ये बोलना चाहती हूँ कि आप बिट्टो को प्यार से समझाइए की उसे बिल्कुल भी निराश होने की जरूरत नहीं है। अगर उसे गणित नहीं पसंद है तो कोई बात नहीं। आप उसके साथ जबरदस्ती नहीं करेंगी। लेकिन अब दसवीं तक तो मजबूरी है कि गणित नहीं छोड़ सकते तो वो बस थोड़ी सी मेहनत कर ले ताकि बोर्ड निकल जाए। उसके बाद वो वही पढ़ेगी जो उसे पसंद है।

आप उसे भरोसा दीजिये की आप उसके साथ है। उसके सपने आपके भी सपने है।

जब उसके अंदर ये भरोसा जगेगा तब देखिएगा वो बिना कहे खुद कितनी मेहनत करती है।

और आप अपने दिमाग़ से ये बात निकाल दीजिये की सिर्फ विज्ञान पढ़ने वाले बच्चे ही अच्छा कॅरियर बना सकते है।

मुझे देखिए इंजीनियरिंग छोड़कर समाजशास्त्र से स्नातक करना पड़ा, फिर भी मेरे सपने पूरे हुए ना।

बिट्टो को गाइड करने की जिम्मेदारी आप मुझ पर छोड़ दीजिए।" दीप्ति ने पूर्णिमा को समझाते हुए कहा।

उसके कहे अनुसार पूर्णिमा ने अन्विता से बात की जिसका उस पर सकारात्मक असर देखकर पूर्णिमा का दीप्ति पर विश्वास और गहरा हो गया।

अन्विता को जब पता चला कि दीप्ति ने उसकी माँ को ये सारी बातें समझाई थी तब उसने दीप्ति को "धन्यवाद मासी" का संदेश भेजा।

ये संदेश पढ़कर दीप्ति की खुशी का ठिकाना नहीं था।

अन्विता में वो हमेशा ही अपनी बेटी को देखती थी।

चाहे अन्विता के कराटे क्लासेस से जुड़ने की बात हो, या दसवीं के बाद उसके प्रिय विषय इतिहास से आगे की पढ़ाई करने की बात, या छात्रावास में रहकर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने की चाहत हो, पूर्णिमा के साथ मिलकर उसके सभी परिवार वालों को समझाने और अन्विता के लिए खूबसूरत भविष्य के दरवाज़े खोलने का काम हो, साथ ही बाहरी दुनिया से जुड़ी सही-गलत बातों को बताकर उसे युवावस्था में भटकने से रोकना हो, दूर रहकर भी अन्विता के लिए ये सारी जिम्मेदारियाँ दीप्ति ने बखूबी निभाई थी।

धीरे-धीरे अन्विता भी दीप्ति के बहुत नज़दीक आ गयी, और देखते ही देखते दीप्ति, अन्विता की मासी से उसकी 'मासी माँ' बन गयी।

जो बातें अन्विता अपनी माँ से नहीं कर पाती थी वो बेहिचक दीप्ति से कर लेती थी और दीप्ति माँ के साथ-साथ एक सहेली की तरह उसकी बातें, उसकी समस्याओं को सुनकर उनका समाधान निकाला करती थी।

अपनी मासी माँ के मार्गदर्शन में उनके और अपनी माँ के भरोसे पर खरी उतरती हुई अन्विता ने जिस दिन आईएएस की परीक्षा में पूरे देश में प्रथम स्थान पाया उस दिन दीप्ति और पूर्णिमा दोनों को ऐसा लगा जैसे स्वयं उन्होंने ही ये परीक्षा उत्तीर्ण की हो।

पूर्णिमा से ज्यादा उस दिन दीप्ति भावुक थी। उसकी आँखों से बहने वाले खुशी के आँसू थम ही नहीं रहे थे।

किसी तरह खुद को संभालते हुए दीप्ति ने पूर्णिमा से कहा, "दीदी, स्वयं से किया हुआ वादा आज मैंने पूरा किया। हमारी बिट्टो के जीवन में अब वो अंधेरा कभी नहीं आयेगा जो हमने झेला।"

"हमारे जीवन में ये दिन तुम्हारे साथ कि वजह से आया है। वरना मैं अकेली नहीं लड़ पाती अपनी बिट्टो के लिए। भला हो इस सोशल मीडिया का जिसने हमें मिलाया। वरना कहाँ तुम और कहाँ मैं। कभी मिल ही नहीं सकते थे हम।" पूर्णिमा बोली।

उनकी बात से सहमत होते हुए दीप्ति ने कहा, "हाँ दीदी, सही कह रही हैं आप। हर चीज के दो पहलू होते है सकारात्मक और नकारात्मक। ये तो आप पर है कि आप उसका इस्तेमाल कैसे करते हैं।

हमने सोशल मीडिया का सकारात्मक रूप अपनाया तो इसने भी हमारे जीवन में वही किरदार अदा किया।"

गुजरते वक्त के साथ अन्विता ने भी एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी के रूप में अपनी पहचान बना ली थी और अब सबकी इच्छानुसार उसका विवाह उसी के बैचमेट शोभित से तय हो गया था।

बरसों पहले दीप्ति ने पूर्णिमा से कहा था कि और कभी वो उससे मिलने आये ना आये पर अपनी बिट्टो की शादी में वो जरूर आएगी।

इस बात पर अन्विता ने उससे वचन लिया था कि "मासी माँ आप सिर्फ आएँगी ही नहीं बल्कि माँ के साथ मिलकर सारी तैयारियाँ भी आप ही करेंगी।"

आखिरकार वो दिन आ ही गया था जब इसी विवाह में पहली बार दीप्ति, पूर्णिमा और अन्विता के सम्मुख साक्षात खड़ी थी।

यही वजह थी कि अन्विता बेचैनी से उसकी राह देख रही थी और अब पहली बार अपनी मासी माँ को अपने इतने पास पाकर उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।

तिलक की रस्म के बाद अगले दिन हल्दी की रस्म थी।

साथ मिलकर अन्विता को हल्दी लगाते हुए दीप्ति और पूर्णिमा दोनों के चेहरे की चमक देखते ही बन रही थी।

हल्दी के पश्चात विवाह के शुभ दिन अपनी बिट्टो को अपने हाथों से दुल्हन के रूप में सजाती हुई दोनों माएँ नज़र बचाकर अपनी भीगी आँखें पोंछ ले रही थी।

उन्हें ऐसा करते हुए देखकर सहसा अन्विता बोली, "अब आप दोनों अभी से ऐसे रोयेंगी तो मुझे भी रोना आ जायेगा। और चाहे कितना भी महँगा वाटरप्रूफ मेकअप हो खराब हो ही जायेगा।"

उसकी बात सुनकर पूर्णिमा और दीप्ति दोनों हँस पड़ी।

कुछ ही देर के बाद बाहर से बैंड-बाजे की आवाज़ आने लगी।

द्वारचार की रस्में पूरी होने के बाद पूर्णिमा ने आरती की थाली लेकर दूल्हा बने हुए शोभित की आरती उतारी।

ऊपर अपने कमरे की खिड़की पर खड़ी अन्विता से नज़रें मिलते ही पूर्णिमा ने अपने बाद जैसे ही आरती की थाली दीप्ति के हाथों में दी, शोभित ने तत्क्षण आगे बढ़कर उसके पैर छू लिए और बोला, "माफी चाहूँगा मासी माँ, पर वीडियो कॉल में आप अलग ही लगती थी और अभी एकदम अलग लग रहीं है इसलिए पहचान नहीं पाया।"

"अभी हमारी साली साहिबा ने इतना मेकअप जो कर रखा है। इनके पतिदेव भी देखे तो धोखा खा जाये।" आलोक जी हँसते हुए बोले।

दीप्ति कुछ कहने ही वाली थी कि आवाज़ आयी "मेरी प्यारी पत्नी के जीजाजी, हम इन्हें अंधेरे में भी पहचान सकते हैं।"

गौतम को वहाँ देखकर दीप्ति के साथ-साथ पूर्णिमा और आलोक जी भी खुश हो गए।

"मौसा जी, ये तकनीक मुझे भी सीखा दीजिएगा।" ऊपर अन्विता के कमरे की तरफ देखते हुए शोभित बोला।

इसी तरह हँसी-ठिठोली के माहौल में जयमाल की रस्म पूरी हुई।

अब मंडप पर विधिवत विवाह की रस्में शुरू हो चुकी थी।

जब पंडित जी ने कन्यादान की रस्म के लिए आलोक और पूर्णिमा को बुलाया तब आलोक जी ने कहा "पंडित जी, हमारी एक इच्छा है। जब मैं और पूर्णिमा ये रस्म कर लें तो हमारे बाद दीप्ति और गौतम भी अपनी बिट्टो के लिए ये रस्म करें।"

"नहीं-नहीं जीजाजी, ये आप क्या कह रहे हैं? ये अधिकार सिर्फ आपका और दीदी का है।" दीप्ति ने भावुक होकर कहा।

आलोक जी ने अन्विता के सर पर हाथ रखते हुए कहा "तुमने माँ की तरह ही मेरी बिट्टो का जीवन संवारा है दीप्ति और मैं जानता हूँ बिट्टो के अलावा तुम्हारी कोई बेटी भी नहीं है जिसके लिए तुम ये रस्म कर सको।

इसलिए ये बात तो तुम्हें माननी ही होगी।"

"हाँ-हाँ, इसमें कोई हर्ज नहीं।" वहाँ मौजूद अन्य रिश्तेदारों ने भी कहा।

दीप्ति के हाँ कहते ही अन्विता के चेहरे पर भी खुशी के रंग खिल गए।

पूर्णिमा और आलोक के बाद जब दीप्ति और गौतम कन्यादान की रस्म के लिए आगे बढ़े तब दीप्ति ने शोभित से कहा "बेटे, मेरी सोच ज़रा अलग है। मुझे नहीं लगता बेटियाँ कोई सामान है जिसे किसी को दान दिया जाए।

इसलिए मैं अपनी बिट्टो का हाथ तुम्हारे हाथों में देते हुए कहती हूँ, आज से मेरी लाडली की सारी जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपती हूँ। इसकी खुशियों को अपने प्यार से दुगुना करना और अपने सहयोग से इसके दुख और परेशानियों को हमेशा आधा करना।

और बिट्टो, आज से मेरे बेटे जैसे दामाद की भी सारी जिम्मेदारी तुम्हारी हुई। हमेशा इसकी ताकत बनना और अपने कर्मों से हम सबका मान बढ़ाना।"

दीप्ति की बातों को सुनकर वहाँ मौजूद सभी लोगों ने तालियाँ बजाकर इस नई सोच का स्वागत किया।

विवाहोपरांत विदाई की बेला में अपनी माँ और मासी माँ के गले लगती हुई अन्विता मन ही मन दो-दो माँओं का प्यार उपहार में देने के लिए ईश्वर का आभार प्रकट कर रही थी।


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