मानों या ना मानों
मानों या ना मानों


आज की कहानी कुछ ऐसी है की आप मानों या ना मानों।बात उस समय की है जब मै 12 वी की पढाई के लिए भागलपुर गया था। वैसे तो भागलपुर वाकई अच्छा शहर है जहां आपको आम के पेड़ समान रूप से नजर आ ही जाते हैं। यहां आपको हनुमान के झुंड भी नजर आ सकते हैं। मगर जो इत्तेफाक मेरे साथ हुआ यकीन करना काफी कठिन था। चलिए कहानी पर आते हैं।
12वीं की पढाई के लिए मैंने गुरुकुल में दाखिला ले ली। वैसे तो गुरुकुल की छात्रावास अच्छा था मगर मै अकले रहना ज्यादा पसंद करता था। मैंने खुद के लिए विद्यापीठ में रहने की इंतजाम किया था। विद्यापीठ एक विद्यालय था जहाँ मै पहले भी पढ़ चुका था।
विद्यापीठ से गुरुकुल का रास्ता थोडी दूर पडता था तो मैंने वहां जाने के लिए एक साइकिल रख लिया। विद्यापीठ से गुरुकुल जाने में मुझे करीब 15 मिनटों का समय लगता था। रास्ते में कुछ आम के पेड पडते थे। जो कुछ सुनसान इलाकों जैसा लगता था। इस सुनसान इलाकों से गुजरने के लिए मैंने एक टोर्च की व्यवस्था भी की थी।अब मैं प्रतिदिन सुबह-सवेरे गुरुकुल के लिए निकल जाया करता था। उस वक्त पढ़ाई में कुछ ऐसी रुचि थी मानो खाने का भी ध्यान ना हो। अब तो दोनों की दूरी भी कम लगने लगी थी।
एक दिन कुछ ऐसा हुआ जो मेरी कल्पना से परे था। मैं सुबह जगा, सारे कार्यक्रम से निपट कर गुरुकुल की ओर प्रस्थान किया। आज मुझे घर रात को लौटना था। इत्तेफाक तो देखिए आज मेरी टोर्च अचानक ही खराब हो गई थी। बस समझ नहीं आ रहा था क्यों? फिर भी मैं विद्यापीठ की ओर चल पड़ा क्योंकि विद्यापीठ तो जाना ही था। पर यह तो शुरुआत था जो मुझे मालूम नहीं था। अब बारी उस रास्ते को पार करने की थी जो सुनसान था।
ओह ये क्या, आज चमगादड़ मेरी आंखों के बिल्कुल सामने से गुजर रहे थे। मेरी धड़कन बहुत तेज हो गई। यकीन मानिए आज तक इसे केवल फिल्मों में ही देखा था। आगे चलने पर मुझे कुछ दूर एक सफेद कपड़े में एक आदमी खड़ा दिखाई दिया। अब मेरा शरीर हल्का हो गया था। बहुत हिम्मत कर मैं उसके पास पहुंचा फिर जाकर थोड़ी सांस में सांस आई।
वहां एक मानव अपनी नित्य क्रिया में लगा था। फिर भी आप मेरे पैर हल्के हो गए थे। बात इतनी होती तो कम थी आगे का मंजर अविश्वसनीय था। कुछ ही पगों के बाद एक सव आता हुआ दिखाई दिया । बस अब मत पूछो मेरी क्या हालत थी। मैं जैसे तैसे विद्यापीठ पहुंचा।
हालत मेरी कुछ ऐसी थी मैं बता नहीं सकता मानो या ना मानो।