लव इन द एयर

लव इन द एयर

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छुट्टी का दिन है। वो एक बार फिर एकांत खोजता अपने कमरे में बैठ गया है। किंडल पर नई किताब भी कल रात ही डाउनलोड की थी उसने। वो अपनी किंडल रीडर उठाता है,पर दोबारा बिना खोले वापस रख देता है। कल रात की यादें जैसे उसके मन मे एक हलचल ले के आई हैं। जैसे किसी ने उसकी जिंदगी की फ़िल्म को रिवाइंड कर दिया हो।

कल शाम वो नन्दिता के साथ मूवी देखने गया था। मूवी देखने से ज्यादा अहम बात थी ,छूट गए पलों को दोबारा जीना। हम अपने उन पलों में दोबारा किसी टाइम मशीन से तो नही जा सकते जैसे कुआंटम फिजिक्स का सिद्धांत बताता है पर हां अपने शरीर के बगैर अपनी चेतना को पीछे ले जा सकते है। अक्सर आपने किसी कैफे,घर,बस या जहाज में सफर करते हुए अचानक किसी अजनबी को अकेले ही मुस्कुराते देखा होगा। वो अपने सुखद पलों में दोबारा जीने या होने का ही एक प्रयास होता है।

सिनेमा थियेटर में उसने पीछे की सीटें बुक की थी। उसकी याद में पीछे की सीटों पर बैठकर मूवी देखना ही दर्ज था। बचपन मे मां और पिताजी भी उसे स्क्रीन से दूर वाली सीट पर ले जाते थे।स्क्रीन के पास या नजदीक बैठकर फ़िल्म देखने से आंखों पर बुरा असर पड़ता था। फिर कालेज में वो कभी कभार अपने दोस्तों के साथ अगली सीटों पर बैठता। सस्ती और शोर करने के लिए बेहतर।

फिर नन्दिता के आने से सारा माहौल बदल गया। उसके साथ वो जब भी होना चाहता,एकांत ढूंढता। कालेज कैंटीन से ज्यादा उसे बोटेनिकल गार्डन में नन्दिता के साथ टहलना अच्छा लगता था। फिर छुट्टी वाले दिन शहर का कोई पार्क और उसके एकांत में लगा एक बैंच।

"अच्छा ये बताओ कि तुम सुबह कितने बजे उठ जाती हो।'

"छह बजे तक तो उठ ही जाती हूं क्यों?"

"अच्छा तो रात को जल्दी सो जाती होगी।"

"नही,दस ग्यारह तो बज ही जाते है,लेकिन तुम क्यों पूछ रहे हो ?"

"यहाँ नींद आती ही नही,और सुबह उठने का दिल नही करता। रात को तुम्हे याद करता रहता हूँ,सुबह तुम्हारे साथ सपनों की दुनिया मे होता हूं। जागने की इच्छा होने पर भी नही जागता,कि ये सपना चलता रहे।"

"अच्छा ये फिल्मी डायलाग मत मारा करो। रात सोने के लिए होती है और सुबह जागने के लिए ताकि पढ़ लिख कर कोई कैरियर बनाया जा सके।"

"हां ,सच तो यही है पर बड़ा घटिया सच है। भगवान को भी आदमी के शरीर मे केवल दिमाग देना था। दिल तो वो पच्चीस तीस साल के बाद ही देता।"

"वो क्यों??"

"क्योकि फिर आदमी पहले पच्चीस तीस साल सिर्फ कैरियर के बारे में सोचता,प्यार उसके बाद करता।"

"हम्म,इसका मतलब मैं कैरियर के बारे में बात कर रही हूँ तो मेरे दिल ही नही है केवल दिमाग है।"

"हां ये वाकई सोचने वाली बात हैं।"

दोनों खिलखिलाकर हंसते हैं,जैसे बगीचे के शांत फूलों के बीच से कोई हवा का झोंका गुजर गया हो।

नन्दिता के साथ वो सिनेमा जाता तो पीछे की सीट पर बैठता। नन्दिता का हाथ उसके हाथ मे रहता।इंटरवल में वो और प्रेमी जोड़ों की तरह बाहर खाने पीने के लिए नही जाते थे। वही अपनी सीट पर बैठे रहते और दोबारा फ़िल्म शुरू होने और अंधेरा होने का इंतजार करते। अंधेरा और एकांत जैसे उन्हें एक दूसरे के साथ कई बातों में आजाद कर देता।

"अच्छा यार,ये बताओं हर लव स्टोरी का अंत अच्छा क्यों नही हो सकता ?"

"अच्छा ही तो होता है,हर फिल्म में हीरो हीरोइन आखिरकार मिल ही जाते हैं।"

"ओहो, मैं रियल लाइफ की बात कर रहा हूँ नन्दिता,अब तुम फिल्मी हो रही हो। फ़िल्म सिनेमा में चल रही थी,अब हम बाहर हैं। "

"मैंने इस बारे में ज्यादा सोचा नही कभी,और अब तुम राजमा चावल खिलाओगे या इतने अच्छे माहौल को बोर करोगे। अब जरा देर फ़िल्म वाली फीलिंग लेने दो यार।"

नन्दिता की ये बेफिक्री जैसे उसे पजल कर देती। वो मुस्करा देता और उसके रंग में रंग जाता। क्या रियल और क्या फ़िल्मी, इन चक्करों से दूर ,नन्दिता कल से ज्यादा जैसे आज में जीती थी।

पढ़ते लिखते,खाते पीते,मौज मनाते कब पांच साल पढ़ाई में बीत गए जैसे पता ही नही चला था।

अब जैसे दोनों एक दूसरे के अभ्यस्त हो गए थे। दिल से ज्यादा दिमाग हावी हो रहा था।कैरियर,नौकरी,सेटिंग,पैकेज ये शब्द उन दोनों के बीच लव,मिलना,शादी जैसे शब्दों से ज्यादा प्रयोग होने लगे थे। घरवालों ने जैसे कितनी आसानी से उन दोनों के प्यार को यह कह कर स्वीकार कर लिया था कि पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दो,सेटिंग हो जाएगी तो बात अपने आप आगे बढ़ जाएगी।

घर वालों की ये बेफिक्री बिना किसी विरोध और रेसिस्टेन्स के जैसे उनके इमोशन्स को कहा गई थी।

पूरे संसार मे मंदी का दौर छाया था। बड़े बड़े पैकेज देने वाली कम्पनियां घाटे में जा रही थी। नौकरियों के पैकेज आधे से ज्यादा कम हो गए थे। प्रोफेशन डिग्रियों से अटे पड़े इस शहर में कुछ नही था तो वो था काम और नौकरी। कुछ था तो वो था कम्पेटिशन, और कम पैकेज में भी किसी न किसी तरह अपने आप को झोंक देने की मजबूर काबलियत।

नन्दिता को एक मल्टीनेशनल में जॉब मिल गया था,पर वो सरकारी नौकरी के लिए कोचिंग सेंटर में कोचिंग लेकर आखिरकार बैंक की जॉब में सेट हो गया। दोनों अब बस कभी कभार फोन पर बात करते,बात भी क्या बस कुछ पुराने पड़ चुके फिकरे।

"ज्यादा बिजी तो नही थे "।

"और शिफ्ट सुबह की हुई या रात की ही है।"

"वैसे भी तुम्हे तो रात को भी देर से ही नींद आती हैं।"

"नही यार अब सुबह जल्दी उठने की मजबूरी सुला देती है। और तुम्हारे लिए तो रात सोने के लिए थी,अब तुम्हे रात की शिफ्ट में ड्यूटी करनी पड़ती हैं।"

"वाकई यार ,दिल और दिमाग साथ साथ नही देने चाहिए भगवान को। अब देखो जो दिल कहता है,उसे दिमाग नही सुनता और जो दिमाग कहता है,उससे दिल इनकार नही कर पाता।"

नन्दिता और उसकी गहरी सांसें फोन में एक दोसरे को सुनाई देती।अब दोनों के शहर अलग थे पर फोन जैसे उन्हें अब भी नजदीक होने का अहसास दे रहा था।

कुछ ही महीनों बाद नन्दिता को कम्पनी ने अपनी विदेश की शाखा में जॉब ऑफर किया,परिवार वालो के लिए ये नन्दिता के लिए बड़ी अचीवमेंट थी। सबसे बड़ी बात नन्दिता बहुत खुश थी ,उसे हमेशा से कुछ बड़ा करने की चाहत थी। वो आज में जीती थी। ये अचीवमेंट उसका आज थी।

वो एक बैंक से दूसरे बैंक एक बड़े शहर में प्रमोशन बेसिस पर चल गया था। कसम और नए लोगों के बीच नन्दिता उससे कब और कैसे दूर होती गई, दोनों को ही पता न चला।

फिर जिंदगी अपनी रफ्तार चलती गई। नन्दिता विदेश में ही शादी कर के सेटल हो गई थी। अब बस फेसबुक पर ही वो उसके साथ टच में थी। उसके बहुत सारे फ्रेंड्स की लिस्ट में एक नाम उसका था। वो भी शादी शुदा हो गया। आज जब भी वो वीकेंड पर अपनी पत्नी के साथ घूमने जाता है तो राजमा चावल ,सिनेमा और शहर का बड़ा पार्क उसकी पसंदीदा जगह होते है। वो आज भी सिनेमा की पिछली सीट पर बैठा अपनी पत्नी के हाथों में हाथ डालकर बैठता है। उसकी बुक की हुई सीट पर अगर कोई प्रेमी प्रेमिका बैठे हो तो वो उनसे बिना किसी झगड़े के सीट एक्सचेंज कर लेता है। उसे लगता है जैसे हर प्यार को एक स्पेस देकर वो खुद को एक स्पेस देता है।

उसकी पत्नी उसे मिस्टर कूल कहती है और उसे बहुत प्यार करती है और इत्तेफाक देखिये कि उसका नाम भी नन्दिता है।


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