Deepak Kaushik

Horror Tragedy Thriller

4.0  

Deepak Kaushik

Horror Tragedy Thriller

कुलधरा में एक रात

कुलधरा में एक रात

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निशिकांत जब अपने घर पहुंचा तब उसके अन्य दोनों मित्र सुलभ और कौस्तुभ अपनी पत्नियों के साथ उसके घर पर मौजूद थे। खुद उसकी पत्नी शुचि किचन में चाय नाश्ता तैयार करने में लगी थी। निशिकांत ने सभी का अभिवादन किया और कपड़े बदलने अपने कमरे में चला गया। जब वह लौटकर आया तब तक शुचि भी चाय-नाश्ता लेकर सभी लोगों के साथ शामिल हो चुकी थी।

"क्या बात है भाई। आज अचानक इस तरह फोन करके क्यों बुलाया है?"

"बात ही ऐसी है।" सुलभ ने कहा।

"बताओगे भी?"

"दरअसल एक मकान मिल रहा है, बहुत सस्ते में।"

"तो परेशानी क्या है, ख़रीद लो।"

"परेशानी ये है कि मैंने उस मकान के बारे में जानकारी इकट्ठी की है। पता चला है कि वो मकान हाॅन्टेड है।"

"हाॅन्टेड! हा... हा... हा...।" निशिकांत जोर से हँसा।

"तुम हँस रहे हो। क्या तुम ऐसी किसी भी जगह पर रात बिता सकते हो, जो हाॅन्टेड हो।"

"जिस जगह तुम चाहो।"

"कुलधरा में!"

अभी तक सारी बातें निशिकांत और सुलभ के बीच हो रही थी। पहली बार कौस्तुभ ने बातचीत में दखल दिया।

"कुलधरा? ये क्या बला है?"

"बला ही है। राजस्थान के जैसलमेर से १८ किमी दूर दो गांव हैं- कुलधरा और खाबा। कहते हैं कभी ये पालीवाल ब्राह्मणों का गांव था। लेकिन कोई दो सौ सालों पहले उजाड़ हुआ तो आज तक भी नहीं बस पाया है। लोग यहां घूमने-फिरने आते हैं। मगर रात में नहीं रुकते। जो रुकते हैं उन्हें रहस्यमयी शक्तियों के होने का प्रमाण मिल जाता है।"

"तो कब रुकना है वहां पर? और कितने दिन?"

"क्या तुम सीरियस हो?"

कौस्तुभ ने प्रश्न किया।

"हां भाई! मैं सीरियस हूं। भूत-प्रेत और अलौकिक शक्तियों से तो मुझे भय नहीं। क्या बिगाड़ लेंगी मेरा? अलबत्ता इस बहाने राजस्थान घूम लिया जायेगा।"

"तो ठीक है। हम लोग अगले हफ्ते का रिजर्वेशन करवा लेते हैं। कौन-कौन चलेगा?"

"मेरा खयाल है कि हम तीनों तो होंगे ही। बाकी लेडीज अपने बारे में बतायें।"

"जैसलमेर तक चलने में कोई बुराई नहीं है। मगर कुलधरा मैं नहीं जाना चाहती। मुझे डर लगता है।"

कौस्तुभ की पत्नी शामली ने कहा।

"मैं भी कुलधरा नहीं जाना चाहती।" शुचि।

"जब कोई भी महिला नहीं जायेगी तो मैं अकेली जाकर करता करूंगी।"

सुलभ की पत्नी श्रियम्वदा ने कहा।

"तो ठीक है। हम छहों लोग यहां से जयपुर, जयपुर से जैसलमेर चलते हैं। जैसलमेर में लेडीज को छोड़कर तीनों मर्द कुलधरा पहुंचेंगे। वहां तीन रातें गुजारेंगे। फिर वहां से जैसलमेर आकर लेडीज को जैसलमेर घुमाकर वापस जयपुर। दो दिन जयपुर में रुककर वापस लौट आयेंगे।"

कौस्तुभ ने कहा।

"ठीक है। डन।" निशिकांत ने प्रोग्राम को मुहर लगाई।

निर्धारित समय से एक घंटे देरी से तीनों मित्र कुलधरा पहुंच गए। रात गांव में रुकने का प्रोग्राम सुनकर वहां के स्थानीय लोगों ने उन्हें रात गांव में रुकने के लिए मना किया। जिसे इन लोगों ने हँसकर टाल दिया। इन तीनों में निशिकांत कुछ ज्यादा ही नास्तिक था। जबकि बाकी दोनों रहस्य रोमांच के लिए साथ आ गये थे। इन दोनों की पत्नियों ने इन दोनों के गले में ॐ और स्वास्तिक के लाकेट पहना दिये थे। जिसे तीनों महिलाएं किन्हीं बाबाजी से अभिमंत्रित करवा लायीं थीं। शुचि के लाख समझाने पर भी निशिकांत ने लाकेट को पहनना स्वीकार नहीं किया। हार कर शुचि ने उस लाकेट को होटल के कमरे में एक जगह साफ-सुथरी करके रख दिया था और उसकी पूजा करके अपने पति की सुरक्षा की प्रार्थना भगवान से करने लगी थी।

रात के दस बज गए थे। अभी तक ऐसी कोई घटना नहीं घटी थी जिससे किसी तरह का रोमांच पैदा होता। हां, एक अजीब सी सिहरन सुलभ और कौस्तुभ महसूस कर रहे थे। जिसका निशिकांत लगातार मज़ाक उड़ा रहा था। साढ़े दस बजे तीनों ने व्हिस्की की बोतल खोल ली और व्हिस्की पीनी शुरू कर दी। ग्यारह बजे इन लोगों ने खाना खाना शुरू कर दिया। अभी इन्होंने दो-तीन ग्रास ही खाये होंगे कि एक पत्थर हवा में उड़ता हुआ आया और इनके बगल में आकर गिरा। तीनों चौक उठे।

"कौन है?"

निशिकांत ने गरज कर कहा।

कहीं से कोई जवाब नहीं आया।

"लगता है कि कोई शरारत कर रहा है।"

निशिकांत ने पुनः कहा।

फिर एक पत्थर आकर गिरा। फिर तो जैसे पत्थरों के गिरने का सिलसिला ही शुरू हो गया। मगर कोई भी पत्थर इन लोगों को लगा नहीं। कुछ देर बाद जब पत्थरों का गिरना थमा तब तीनों ने फिर खाना शुरू कर दिया। पुनः दो-तीन ग्रास खाने के बाद किसी स्त्री के हँसने की आवाज़ सुनाई दी।

"ही...ही...ही...ही..."

"इतनी रात में इस सुनसान जगह पर कौन औरत आ सकती है।" सुलभ ने कहा।

"हो न हो, ये वही सब लीला है जिसके बारे में हम लोगों ने पहले से सुन रखा है।"

"हा...हा...हा.."

निशिकांत हँसा।

"वाह ये डरपोक! तुम लोगों को तो आना ही नहीं चाहिए था।"

इसके बाद कुछ देर तक कभी एक तो कभी कई स्त्रियों के हँसने की आवाज़ सुनाई देती रही।

"छम...छम... छम...।"

तभी उन तीनों को पायल के छनकने की आवाज़ सुनाई दी। जैसे कोई स्त्री पायल छनकाते उनके इर्द-गिर्द घूम रही हो। तीनों के हाथ रुक गये। जिसके हाथ में ग्रास था वो हाथ से छूट गया। अचानक उनके सामने रखा खाना हवा में उठ गया। जैसे किसी ने खाना उठा लिया हो। खाना निशिकांत के पीछे जमीन पर बड़े करीने से लग गया। खाना धीरे-धीरे हवा में उठ कर ग़ायब होने लगा। जैसे कोई अदृश्य शक्ति खाने को खा रही हो। यह सब देखकर राजस्थान की आधी रात की ठंड में भी उन तीनों के माथे पर पसीना छलक आया। व्हिस्की का सारा नशा पलक झपकते छू हो गया। तीनों उठ खड़े हुए और एक तरफ को भाग चले। लेकिन जाते तो जाते कहां? चारों तरफ उजड़े हुए मकानों के खंडहर थे। हर तरफ से अजीबोगरीब आवाजें आ रही थी। कहीं छोटे बच्चों के किलकने की आवाज़ तो कहीं किसी के हँसने की आवाज़ आ रही थी। कहीं राजस्थानी लोकगीत सुनाई दे रहे थे तो कहीं घुंघरूओं के छमकने की आवाज़ आ रही थी। जैसे कोई नर्तकी नृत्य कर रही हो। इस समय इन तीनों में से किसी की भी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। ये सब बस कहीं अच्छी जगह छुपकर अपनी जान बचाना चाहते थे। अचानक सुलभ एक जगह रुका। उसने बाकी दोनों को भी रोका और फुसफुसाते हुए कहा-

"मेरी बात ध्यान से सुनो। यहां आत्माएं है। ये सिद्ध हो चुका है। मगर ये सिर्फ डरा रही हैं। नुकसान नहीं पहुंचा रही। इसलिए इधर-उधर भागने के बजाय चुपचाप एक स्थान पर बैठ जाओ और शांति से रात काट लो। इनसे बचने का यही उपाय मुझे समझ में आ रहा है।"

तीनों एक स्थान पर बैठ गए। नींद तो क्या आनी थी? डर के मारे जान सांसत में पड़ी थी। इस समय रात के एक बज रहे थे। तीन घंटे का समय और काटना था। उसके बाद ब्रह्म मुहूर्त शुरू हो जाता है और उस समय इस तरह की शक्तियों की क्षमता घटने लगती है। तब ये इस तरह की लीलाएं करना बंद कर देती हैं। यह बात निशिकांत को नहीं तो कम से कम सुलभ और कौस्तुभ को तो पता ही थी।

अगली सुबह तीनों ने वापसी में ही अपनी भलाई समझी। वापस जैसलमेर आकर अपनी पत्नियों को अच्छी तरह घुमाया। दो रातें अतिरिक्त जो मिल गई थी।

इस घटना के बाद निशिकांत ने कभी भी भूत-प्रेतों का मज़ाक नहीं उड़ाया। उसे भूत-प्रेतों के अस्तित्व का प्रमाण मिल चुका था।

।।इति।।



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