नम्रता चंद्रवंशी

Abstract

3.6  

नम्रता चंद्रवंशी

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कुछ तो था

कुछ तो था

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"निशा, निशा, जल्दी.. भागो, देखो वो तुम्हारे पिछे, आ रहा है, भागो, तुम्हे नहर में धकेल देगा...निशा, । "

सुनकर, मेरे पति विकाश ने, मुझे नींद से झकझोर कर जगा दिया। मैंने गुस्से में पूछा -"क्या हुआ, क्यूं जगा दिया इतनी रात को??"

उन्होंने बताया कि मै सपने में बडबडा रही थी -"निशा ...निशा भागो....."

मै समझ गई, मेरी शादी को मात्र एक महीने हुए थे इसलिए मै विकाश को इस बारे में नहीं बता पाई थी।

दरअसल, बात उन दिनों की है, जब मै पंद्रह साल की थी। मैं एक आवासीय विद्यालय में, कक्षा दसवीं में पढ़ रही थी। यहां फिलहाल आठवीं से दसवीं तक की पढ़ाई होती थी। इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं होने के कारण ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई के लिए बच्चों को दूसरे डिस्ट्रिक्ट में भेज दिया जाता था। विद्यालय का अपना कोई भवन नहीं था, इसे सिंचाई विभाग के एक खाली दफ़्तर कम कॉलोनी के कैंपस में संचालित किया जा रहा था।

कैंपस लगभग दस - पंद्रह सालों से खाली पड़ा हुआ था। इसका निर्माण झुनझुन डैम के निर्माण के समय, ऑफिशियल कामकाज और विभाग के कर्मचारियों को रहने के लिए अस्थायी तौर पर, आज से करीब चालीस साल पहले हुआ था। प्रबंधन ने अस्थायी तौर पर उसी को विद्यालय कैंपस बना दिया था। स्थायी भवन निर्माण के लिए सड़क के किनारे की जमीन अधिग्रहित की गई थी।

कैंपस कुल रूप से लगभग पांच एकड़ में फैला हुआ था। चारों तरफ से बड़े बड़े पथरों से लगभग चार फीट ऊंचा अहाता (बाउंड्री) किया हुआ था। बाहर जाने के लिए मात्र एक ही गेट था।

चूंकि, यहां पहले सिंचाई विभाग का दफ़्तर हुआ करता था, इसलिए चारों तरफ घने पेड़ पौधे और झाड़ियां थे। बौंड्री से सौ मीटर दूरी पर झुनझुन डैम था, जिसका फाटक हमारे कैंपस से साफ साफ दिखाई पड़ता था। फाटक से निकलने वाले पानी की आवाज कैंपस तक सुनाई पड़ती थी। बगल में ही सिंचाई के लिए नहर निकला हुआ था, जो बिल्कुल बाउंड्री से सट कर गुजरता था। नहर का पानी यहां से पांच - सात किलोमीटर दूर गावों तक पहुंचता था। कैंपस में भवनों की स्थिति काफी जर्जर थी, दीवारों पर काई के मोटे - मोटे परत चढ़े हुए थे।

आस पास दो तीन किलोमीटर के व्यास में कोई गांव नहीं था। कभी कभार ही कोई राहगीर उधर से गुजरता था, वो भी सिर्फ दिन के वक्त, शाम ढलते ही चारों ओर सन्नटा पसर जाता था।

यह, मुख्य शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर, अन्दर जंगलों की ओर था। और मुख्य सड़क से यह लगभग चार किलोमीटर अंदर था, बस से उतरने के बाद कैंपस तक कि ये दूरी पैदल ही तय करना करनी पड़ती थी।

विद्यालय प्रबंधन ने अस्थायी तौर पर कुछ निर्माण करवाए थे, जैसे क्लास रूम्स, हॉस्टल बिल्डिंग, मेस के लिए हॉल, टॉयलेट आदि।

मेरा हॉस्टल (गर्लस हॉस्टल) कैंपस बाउंड्री से लगभग चालीस मीटर की दूरी पर दक्षिण की ओर था। ब्वॉयज हॉस्टल, कैंपस में बिल्कुल पीछे की तरफ था। और बीच में प्रिंसिपल कार्यालय और एकेडमिक भवन था। कैंपस के ठीक उतरी छोर पर हमारा मेस था। मेस के बगल में ही बाउंड्री के बाहर इमली और आम के दस बारह पेड़ थे, एक पतली नदी बहती थी, बिल्कुल बाउंड्री से सटी हुई।

गर्ल्स हॉस्टल से गर्ल्स लॉयलेट लगभग पच्चीस मीटर दूर बाउंड्री दीवार से बिल्कुल सटा हुआ था। बाहर वही से सटकर नहर बहती थी। टॉयलेट जाने का ये रास्ता झाड़ियों, पथरों और पेड़ों से भरा हुआ था। हॉस्टल से अटैचेड कोई वॉशरूम नहीं होने के कारण, रात के समय भी हमें वही जाना पड़ता था। रात के वक्त नहर के पानी के कल - कल की आवाज बहुत डरावनी और भयावह लगती थी।

हॉस्टल से सटे हुए लिप्टस, सागवान, इमली आदि के बड़े बड़े और घने पेड़ थे। आस पास अमरुद और बैर के वृक्ष भी भरे पड़े थे। कैंपस के अंदर हर किस्म के पेड़ पौधों की भरमार थी।

टीचर्स के लिए कोई क्वॉटर्स नहीं थें, इसलिए वे एकेडमिक ऑवर्स के बाद यहां नहीं रुकते थे। सिर्फ प्रिंसिपल सर, हॉस्टल वार्डन और एक दो बैचलर टीचर्स ही यहां रहते थें।

कुछ सफाई एवम् मेस कर्मचारी लोकल ही थे। वे भी अंधेरा होने से पहले अपने अपने घर चले जाते थे। कभी कभार अगर लेट हो जाए तो वहीं कैंपस में सो जाते थे, एकेडमिक भवन के बाहर।

लोकल होने के नाते वे लोग इस जगह के बारे में ज्यादा जानते थे। वे बताते थे कि डैम के निर्माण से पहले यहीं पास में एक चौड़ी नदी बहा करती थी। नदी के किनारे एक पूरा गांव बसता था।

डैम बनाने का प्रस्ताव पास होने के बाद जब सरकार ने भूमि अधिग्रहण करना चाहा तो, बहुत सारे लोगों ने अपना घर और जमीन अधिग्रहण के लिए देने से इंकार कर दिया । सरकार ने उनसे बातचीत कर के कुछ समाधान भी निकलना चाहा , लेकिन ग्रामीणों ने इसका पुरजोर विरोध किया और अपने फैसले पर अडिग रहें ।

ये सरकार की चीर कालीन एवम् एक अहम योजना थी। इसपर रोक लगाने का मतलब था, हजारों हेक्टेयर भूमि को बंजर बना देना क्यूं की बिना सिंचाई के साधन के वहां कृषि करना संभव नहीं था।

तत्कालीन सरकार के मुख्य मंत्री ने खुद जाकर ग्रामीणों से बात की और डैम से होने वाली लाभों के बारे में बिस्तर से समझाया।

लगभग नब्बे प्रतिशत लोग अपनी भूमि देने के लिए राजी हो गए, लेकिन दस प्रतिशत लोग अभी भी सरकार के फैसले के खिलाफ थे।

सरकार ने इसके लिए एक दूसरा रास्ता निकाला, जबरदस्ती कागजातों पर रैयतों के अंगूठे लगवाए जाने लगे। कई लोग रातों रात गायब हो गए जिनका अभी तक कोई अता पता नहीं है।

आस पास के लोग बताते हैं कि सैकड़ों लोगो को यही डैम के बांध में दफना दिया गया था। कई लोग अपने घरों में खुद को बंद कर लिया और डैम के पानी के साथ ही जलमग्न हो गए।

आज भी उनकी आत्मा यही अपने जमीन और घरों में बसी हुईं हैं। कई बार तो लोगों ने उनको अपनी आंखों से भरी दोपहरी में भी देखा है। उनके सगे आज भी उनको पूजा चढ़ाने के लिए डैम के किनारे बकरे की बलि देते हैं।

पांच साल में एक बार अवश्य ही कोई न कोई व्यक्ति का बलि लेता है यहां!

मेरे स्कूल को खुले अभी मात्र तीन साल हुए थे। इसलिए हम और दो सालों तक निश्चिंत थे।

मई और जून दो महीने हमारी गर्मियों की छट्टियां होती थीं। हमें पेरेंट्स के आने पर ही साथ में कैंपस से बाहर जाने की अनुमति मिलती थी।

आठवीं और नवमी कक्षा के स्टूडेंट्स की छुट्टियां एक मई से कर दी गईं। चुकीं, हमें बोर्ड के एग्जाम देने थे अगले साल इसलिए दसवीं की छुट्टियां पंद्रह तारीख से सुनिश्चित कि गईं।

कैंपस में हमारी वार्डन के अलावा और कोई नहीं था। प्रिंसिपल सर भी अपने पैतृक शहर चले गए थे छुट्टियां मनाने। बाकी टीचर्स एकेडमिक ऑवर्स में हमें पढ़ाने आते और फिर चले जाते थे।

हम कुल मिलाकर चालीस स्टूडेंट्स कैंपस मौजूद थे। हम गर्ल्स कुल मिलाकर दस थीं। रात के समय वॉशरूम के लिए हम कम से कम तीन या चार लड़कियां साथ में जाती थीं। हमरी वार्डन भी बहुत अच्छी थी, रात के समय हमें डर न लगे इसलिए वो भी हमारे साथ हर बार निकलती थीं।

पंद्रह तारीख को एकेडमिक ऑवर्स के बाद शाम तक सभी विद्यार्थियों के पेरेंट्स उन्हें लेने अपने अपने गाड़ियों से आ गए थे। मेरा और निशा का घर काफी दूर था इसलिए हमारे पेरेंट्स एक दिन बाद सोलह को आने वाले थें।

हॉस्टल में सिर्फ मै, निशा और वार्डन मैम थे। वार्डन मैडम की भी ट्रेन उसी रात ग्यारह बजे थी। इसलिए उन्होंने ने भी रात आठ बजे तक अपने कार से कैंपस छोड़कर, स्टेशन के लिए निकल गईं।

एक दो मेस स्टाफ और वॉचमैन मौजूद थे लेकिन गर्ल्स हॉस्टल के तरफ वे कम ही आते थें।

वार्डन मैम ने हमें हॉस्टल से बाहर न जाने की हिदायत दे रखी थी।

मैम के जाने के बाद मै और निशा गेट अच्छे से बन्द कर के सो गए।

हर तरफ सन्नटा था, नहर के पानी के गड़गड़ाहट की आवाज के साथ सर.. सर..बहती हवाएं, आम और इमली के वृक्षों को जोर जोर से हिला रही थी।

वॉचमैन भी सो गया था। चारों तरफ घना अंधेरा था।

मै गहरी नींद में सो गई थी कि,, , "प्रिया.....प्रिया..." के आवाज के साथ मेरी नींद अचानक खुल गई। मैंने देखा निशा मेरे बगल में से गायब थी, सामने नजर डाली तो दरवाजा सपाट खुला था और घड़ी में ठीक बारह बज रहे थे। मुझे काफी डर लग रहा था, धड़कने बिल्कुल तेज हो गई थी।

मैंने सोचा हो सकता है निशा को वॉशरूम जाना होगा!मुझे जगाया होगा उसने, मै नहीं जागी इसलिए अकेले चली गई हो !

मै हिम्मत करके बाहर आई और गेट के पास वाली लाईट जलाकर इधर उधर नज़र घुमाया, लेकिन निशा मुझे कहीं नजर नहीं आई। मैंने सोचा वॉशरूम का लाईट ऑन करके देखती हूं, अमावस की अंधेरी कली रात थी, और वॉशरूम यहां से लगभग चालीस मीटर दूर था, इसलिए लाईट जलाने के बावजूद कुछ साफ साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था।

बाद में मैंने आवाज लगाया,, -"निशा ..,, निशा.."

कोई जवाब नहीं आया!

मैंने वॉचमैन को भी आवाज दिया, लेकिन वो शायद वार्डन नहीं होने के कारण निश्चिंत कहीं सो गया था।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, डर से कांप रहीं थीं मै, लेकिन न जाने मुझ में इतनी हिम्मत कहां से आ गई। मैंने वासरूम में जाकर देखने फैसला किया।

थोड़ी दूर जाकर देखा तो निशा वॉशरूम के कॉरिडोर के गेट पर मेरे तरह फेस कर के बिना हिले डुले खड़ी थी, ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसे जबरदस्ती वहां खड़ा कर दिया हो!

मैंने चिल्लाया -"निशा,, , "

उसने कुछ जबाव नहीं दिया और अचानक गायब हो गई।

मुझे लगा शायद ये मेरे नज़रों का भ्रम है, हो सकता है मैंने निशा को देखा ही न हो!

मैं कुछ और दूर गई,

इस बार मैंने उसे दरवाज़े से निकल कर बाउंड्री वॉल के तरफ जातें देखा!

मैंने फिर से आवाज लगाया -"निशा,, , निशा,, "

वो फिर से नज़रों से ओझल हो गई।

अब मुझे लगने लगा था कि कुछ तो है!मै काफी डर गई थी।

मुझे अब आगे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, और पीछे लौटने का भी साहस नहीं था।

मै चुपचाप एक जगह खड़ी हो गई, और आंखे बंद कर ली।

थोड़ी देर बाद अचानक सरर, से कहीं चढ़ने की आवाज सुनाई दी.मैंने देखा तो,

निशा बाउंड्री वॉल पर चढ़कर, नहर की ओर मुंह करके बैठी हुई थी और पैर नीचे लटका कर दीवार पर ठक- ठक मार रही थी।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं, मैंने अपनी दोस्त को बचाने के हिम्मत जुटाई और निशा, , निशा,, पुकारते हुए आगे बढ़ने लगी।

अचानक एक सफेद आकृति निशा के पिछे उभर आई, मुझे अपनी आंखो पर भरोसा नहीं हो रहा था। मैंने देखा उस आकृति ने निशा के पीछे आकर उसके पीठ में हाथ लगाया, ऐसा लग रहा था मानो वह धक्का देकर निशा को नहर में धकेलना चाहता हो!देख कर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने चिल्लाया -"निशा,, , निशा,, , भागो, पीछे है तुम्हरे, जल्दी भागो वहां से, वो तुम्हे धकेल देगा नहर में!!"

लेकिन निशा पर कोई असर नहीं हुआ और वो बूत जैसी बाउंड्री वॉल पर बैठी रही!

मै बहुत डर गई थी, अगली बारी अपनी है सोचकर, मैंने अपनी आंखे बंद ली और वही बैठ गई की अचानक "छपाक, "की आवाज मेरे कानों में गूंजी। मैंने आंखे खोली और देखा तो निशा बाउंड्री वॉल पर से भी गायब थी!

वॉचमैन ने भी अपनी लाठियां दरवाज़े पर ठक - ठकाना शुरू कर दिया था।

सुबह उठी तो निशा के पेरेंट्स उसे लेने आए हुए थे।


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