आशा - भाग 1
आशा - भाग 1
आशा आशा कहां मर गई, कब से आवाज लगा रही हूं।विमला मौसी अपने आंगन से बारिश के पानी और कीचड़ को साफ करते हुए जोर जोर से चिल्ला ही रही थी, कि आशा हांफते हुए दरवाजे पर आई और मुस्कुराते हुए बोली, क्या कह रही हो मां, मै तो बस सामने रिंकी के घर खेलने गई थी।
आशा ने अपने नन्हे हाथों से अपना फ्रोक थोड़ा ऊपर किया और घर में जमे सुप्ली भर पानी को पार करते हुए आंगन मै पहुंची।
विमला मौसी से झाडू पटकते हुए कहा - ले साफ कर सब वरना रात को खाना कहां पकाएंगे। मेरे आने तक सारा पानी घर से निकाल देना, मैं जरा सुरभि मेम साहब के घर काम कर के आती हूं।
आशा के नन्हें पैर कीचड़ में धस्ते जा रहे थे,फिर भी उसने अपने ढाबे से पानी को तस्तरियों के सहारे बाहर आंगन में जो लकड़ी के दो खंभो के सहारे तिरपाल डालकर बनाया हुआ था, उसमे फेंकने लगी और बरसात को मन ही मन कोषने लगी।
हर बारिश मै उनके घर का यही हाल होता है,हर बार आशा अपने पिता के आने का इंतजर करती है।इस बारिश के बाद अगली बारिश ऐसी नहीं होगी, इस बार हमारे घर के छप्पर ठीक हो जाएगा और हमें बारिश मे हर दिन खाना पकाने और सोने के लिए जद्दजहद नहीं करनी पड़ेगी।
आशा के पिता रमन चाचू आज से करीब दस साल पहले जब आशा ने जन्म लिया था उसके एक साल बाद ही रोजी रोटी की तलाश में अपने जान परिचित दो चार लोगो के साथ सेलेम चले गए थे और आज तक बस कभी कभार उनकी चिठ्ठी आता है।हर चिठ्ठी में वो आने का वादा करते हैं और विमला मौसी के लिए नए कपड़े और आशा के लिए नई किताबें लाने का वादा करते हैं।
आशा अभी क्लास फाइव में पढ़ाई कर रही है।आशा कभी कभार ही स्कूल जा पाती है।अक्सर वह घर के कामों में ही व्यस्त रहती है।घर के काम में भला व्यस्त क्यूं न रहे उन्हें तो एक सांझ के खाने के लिए लकड़ी,चावल तेल, मशाले आदि सभी एकत्रित करने पड़ते है। विमला मौसी जिन्होंने कर्ज लेकर एक पुरानी सिलाई मशीन खरीदी है। बाकी घरों के चौंका बर्तन करने के बाद जो थोड़ा बहुत समय मिलता है उसमे वो कुछ कपड़े सिल लेती हैं,आशा भी विमला मौसी के साथ कपड़ों के फिनिशिंग में उनकी मदद करती है।ऐसे में उसे स्कूल जाने का समय ही कहां मिल पाता है।वो तो भला हो शुक्ला गुरूजी का जो हर बार परीक्षा के समय आशा की मदद कर देते हैं और वो पास हो जाती है।
आशा और विमला मौसी की जिंदगी बदहाली में ही सही पर खुशी खुशी कट रहीं थीं।आशा विमला मौसी से अक्सर अपने पिता रमन के बारे में पूछती रहती, चुकीं रमन चाचू जब घर से गए उस वक्त आशा मात्रा एक साल की थी और विमला मौसी के पास तो रमन चाचू की कोई ढंग की फोटो भी नहीं थी। जो एक आध फोटो विमला मौसी ने अपने शादी के वक्त खिचवाएं थे उसमे भी पानी घुसकर पूरा खराब कर दिया है।
आशा बस अपनी मां के द्वारा रमन के बारे में बताए गए वर्णन के आधार पर अपने मन में तरह तरह कि छवि बनाते रहती है।
विमला मौसी रोज की तरह ही सुरभि मेम साहब के घर से काम करके लौटी और सरसों तेल के टीन के डब्बों और बांस से बने दरवाजे को खोलते हुए अन्दर प्रवेश हुई,आशा तिरपाल के नीचे एक कोने में बने मिट्टी के चूल्हे में आधी भिंगी हुई लकड़ियों को सुलगाने का प्रयास कर रही थी।उसके बाल एवम् चेहरे पर राख और चारकोल के परत चढ़ी हुए थी।
विमला मौसी ने फटकारते हुए बोला, चल हट ..कितनी बार बताया है पतली और सुखी लकड़ियों को नीचे रख कर आग सुलगते हैं, पर तुम्हें ध्यान कहां रहता है, खामोखां माचिस किं तिल्लियां और मिट्टी का तेल बर्बाद कर दिया।विमला मौसी ने चुल्हें में फिर से हल्का सा मिट्टी तेल उ ढे ला और हल्की सूखी लकड़ियों को हल्का सुलगा कर ठाठ में लटके प्लास्टिक की थैली को लेने चली गई।
आशा मुंह लटकाए हुए विमला मौसी की ओर देखी और चूल्हे के बगल में ही हल्की सी सूखी हुई इटों पर बैठ गई।
विमला मौसी ने एक प्लास्टिक की थैली निकली जिसमें वो सुरभि मेम साहब के घर से सुबह की बची हुई ओल की सब्जी लाई थी।
विमला मौसी ने आज फिर से लाला जी के दुकान से वही आटा खरीद कर लाई थी जो पांच रुपए कम भाव में मिल जाती है।वैसे अ आटें में कुछ खराबी नहीं है बस उसे ध्यान से चाल कर बनानी पड़ती है।मौसी ने आशा को गमला और चलनी थमाते हुए खुद नंदू के कुएं से पानी लेने चली गई।
विमला मौसी आज फिर से टॉर्च लाना भूल गई और अंधेरे में ही कुएं की तरफ जाने लगी।विमला मौसी का ये तो रोज का काम है वो अंधेरे में भी डोर बाल्टी से पानी खींच लेती है।
इधर आशा विमला मौसी को न आते देख खुद ही तवा निकाला और चौकी बेलन पटकते हुए मन ही मन भून भुनाने लगी, "हमेशा देर करती है पानी लाने में इतनी देर में मै कई बार पानी भर के आ जाती"।
आशा ने आटा गूंथा और गुस्से में मोटी मोटी रोटियां बेलकर तवे पर डालने लगी ।रोटियां बनाने के बाद वो ज्यादा देर होता देख चिंतित हो गई।वो चूल्हे से लकड़ियों को निकाल कर उन्हें बुझाया और टॉर्च लेकर घर के दरवाजे पर खड़ी हो गई।अंधेरा भी था और बारिश से रास्ते में कीचड़ और झाड़ियां भी बढ़ गए थे। ऐसे में आशा को आगे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वो दरवाज़े पर खड़ी होकर विमला मौसी के आने का इंतजर करने लगी।