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नम्रता चंद्रवंशी

Tragedy

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नम्रता चंद्रवंशी

Tragedy

आशा - भाग 2

आशा - भाग 2

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रात के लगभग आठ बज रहें थे, अमावस्या की काली रात थी और चारों ओर घनघोर अंधेरे में हर तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। हालांकि,गांव में बिजली की सुविधा लगभग 4 साल पहले ही पहुंच गई थी। लेकिन ,अभी तक इस मुहल्ले में बिजली का नामो-निशान तक नहीं था।गांव के दो चार दबंगों को ये गवांरा ही नहीं था कि इस मुहल्ले में बिजली की सुविधा उपलब्ध हो।आखिर उनके दबंगई का जो सवाल था।कुछ तो विशेष सुविधा ऐसी हो जो सिर्फ उनके पास ही रहे।ऐसे में अभी भी यहां लोग मिट्टी तेल से जलने वाले लैंप, लालटेन और ढिबरी(पारंपरिक दिया जो शीशे की बोतल या लोहे की बनी होती है) का उपयोग कर रहे थे।

आशा अंधेरे में दो सेल का टॉर्च लिए हुए अपने दरवाज़े पर खड़ी होकर विमला मौसी के आने का बेशब्री से इंतज़ार कर रही थी और मन ही मन बहुत चिंतित हो रही थी।सामने दीवार पर टंगी घड़ी की सुई अब तो लगभग नौ बजाने लगे थे।आशा की चिंता और बढ़ते जा रही थिवो। मन ही मन किसी अनहोनी की आशंका से काफी दुखी हो रही थी।उसने भगवान को याद किया और काफी हिम्मत जुटा कर कुएं के तरफ जाने के लिए कदम बढ़ाया ही था कि तभी हरिया काका की आवाज आशा के कानों में गूंजी "विमला उठ,उठ विमला ,आंखें खोल, आंखें खोल विमला"।

आशा पूरी तरह से सिहर गई वो बिना कुछ देखे ,बिना कुछ सोचे - समझे झट - पट कुएं की ओर दौड़ने लगी।रास्ते के कीचड़ में उसके पैर धस्ते जा रहे थें। पगडंडी के किनारे - किनारे जन्मे कटिली झाड़ियों में उसका फ्रॉक बार बार फंस जा रहा था।वो जोर से उसे छुड़ाकर बेतहाशां बस दौड़े जा रही थी।आशा के आंखों से झर - झर आंसू निकल कर उसके गालों को लगातार भिंगा रहे थे।वो अपने असुओं को अपने फ्रॉक में बने झालर(फ्रॉक में कपड़ा से बना हुआ डिज़ाइन) से पोछने का प्रयास कर रही थी। दौड़ते हुए वो बस एक बात बडबडाते जा रही थी -" क्या हुआ मेरी मां को...,क्या हो गया है मेरी मां को हरिया काका...।"

इधर हरिया काका विमला मौसी को कुएं के पास पड़ी टूटी चारपाई पर लेटा कर नंदू को आवाज लगा ही रहे थे कि नंदू के पिता जी विदेशी बाबा ( दादा जी ) हाथ में लालटेन लिए हुए निकल कर कुएं तक पहुंचे और वो भी विमला मौसी को उठाने का प्रयास करने लगे।धीरे - धीरे मुहल्ले के लगभग सारे लोग वहां एकत्रित हो गए और विमला मौसी को चारो तरफा से घेर लिया ।

आशा कुएं से थोड़ी दूर से ही टॉर्च जला कर भीड़ जमा कर खड़े लोगों की ओर देखती है ओर जोर से चिल्लाती है - "मां....".क्या हुआ मेरी मां को, मां.......।"बोलते बोलते वो भीड़ को चीरती हुई विमला मौसी के पास पहुंचती है ओर धड़ाम से विमला मौसी के चारपाई के पास ही जमीन पर गिर पड़ती है।वो अपनी मां के हाथ पकड़ती है और अपने सीने से लगाकर ख़ूब रोने लगती है। आशा बारी - बारी से सबको आवाज देती है - "हरिया काका ,नंदू चाचा ,मीना चाची देखो न क्या हो गया मेरी मां को,ये कुछ बोल क्यूं नहीं रही है?"उसके प्रश्न मानो कलेजे की छलनी कर कर दे रही थी।

वो विमला मौसी के सीने से लिपट कर खूब फुट - फुट कर रोने लगी और रोते - रोते बुदबुदाने लगी - " उठो मां हमें नहीं चाहिए पानी,हम बिना पानी के रह लेंगे, प्लीज़ तुम उठ जाओ"।

तभी प्रभा काकी ने उसका हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया और अपने सीने से चिपका कर उसके गालों पर निरंतर गिर रहे आसुं को अपने आंचल से पोंछने लगी और प्यार से बोली - "कुछ नहीं हुआ तेरी मां को ये तो बस बेहोश हुई है वो कुछ दिन में ठीक हो जाएगी।

आशा बेहोशी और मृत्यु का अंतर समझने में पूरी तरह सक्षम थी।उसे लगा कि प्रभा काकी कहीं उसे सांत्वना देने के लिए झूठ बोल रही है।

तभी हरिया काका के बातों ने उसके मन को थोड़ा शांति दिया।हरिया काका ने बताया कि जब वो लगभग साढ़े आठ बजे शौच से होकर बाहर खेतों की ओर से आ रहे थे तो उन्हें कुएं के पास जोर से धड़ाम का आवाज सुनाई पड़ा।

उन्हें लगा जैसे कोई कुएं में गिर गया हो।वो दौड़े - दौड़े कुएं की ओर भागे तो देखा कि विमला मौसी कुएं के थीथे (कुएं का किनारा) में बेहोश पड़ी हुई थी।डोर - बाल्टी कुएं में गिर गया था।वो विमला मौसी को उठाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वो किसी भी प्रकार का कोई हरक़त नहीं कर रही थी।उन्होंने नंदू के खिड़की( घर के पीछे का भाग) में रखी हुई एक टूटी चारपाई को कुएं के पास लाया ओर उस पर विमला मौसी को लेटा दिया।

आशा को अब कुछ अच्छा लग रहा था वो भी विमला मौसी के हाथ को पकड़ा और नब्जों को महसूस कर काफी प्रसन्न हो रही थी।

अब विमला मौसी को भी हल्का - हल्का होश आने लगा था।वो जानना चाह रही थी कि उसे क्या हुआ था।लेकिन विमला मौसी का दाहिने हाथ में अब भी कोई हरक़त नहीं हो रही थी।

बहरहाल,रात काफी हो चुकी थी ऐसे मंजू चाची ,प्रभा चाची और मीना चाची और बाकी सब लोग मिलकर विमला मौसी को उसके घर तक पहुंचा कर अपने अपने घर चले गए।

सुबह जब जब विमला मौसी की आंख खुली तो वो झट - पट अपने बालों को समेटना चाहा ताकि वो पहले की तरह ही सुरभि मेम साहब के घर काम पे जा सके।लेकिन उसका दाहिना हाथ अभी भी कुछ हरक़त नहीं कर था।मन ही मन विमला मौसी काफी चिंतित हो रही थी।उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वो आशा को कैसे बताएगी ये बात।आशा भी विमला मौसी के साथ ही सो रही थी।मौसी के खुर्बुराहट( हल्की सी आवाज जो साफ साफ सुनाई ना दे) से उसकी भी नींद खुल गई वो उठकर विमला मौसी को देखी और अपने नन्हे - नन्हे हाथों के सहारे उसे अपने आगोश में लेकर बोली - " मां तुम कहीं नहीं जाओगी,तुम बस आराम करोगी, मै जाऊंगी सुरभि मेम साहब के घर काम करने।"

ये सब सुनकर विमला मौसी का कलेजा भर आया ।वो अपने कलेजे टुकड़े को दोनों हाथों से समेटना चाह रही थी पर कर नहीं पाई।बस अपने एक हाथ के सहारे आशा को अपने छाती से चिपका ली और उसके बालों को सहलाते हुए बोली - "नहीं बेटा,सुरभि मेम साहब के घर तुम काम करने नहीं झ आओगी,वो अच्छे लोग नहीं है"।इस पर आशा ने विमला मौसी की हथेलियों को अपने हाथों में भरती है और प्यार से बोली -" नहीं मां ,मुझे किसी से डर नहीं लगता,तुम बिल्कुल चिंता मत करो।"

अब आगे....



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